दुनिया का मेला : सविता लाइमयुम
अनुगामी हुआ प्रकाश अँधकार का
चलते जैसे स्वप्न में उड़ता हो इंसान
अव्वल अपने को समझ
अस्तित्वहीनों से भरे अड्डे में
पदासीन हो तुम भी इनके मध्य
अतृप्ति से करते रहे संचय धन का
मदमस्त हाथी सा
अपने कदमों से मसल देते
वन रूपी संसार में व्याप्त
निरुपाय जीवों के समक्ष
वीर और सत्य साबित होते
सृष्टिकर्ता मुस्कराते
निहार रहे मेला संसार का।
यहीं छोड़ जाना है अपार धन
जीवन भर जिन्हें संजोया।
मुट्ठी बंधकर आए थे
खुले हाथ चले जाना है।
अंतिम यात्रा में अपनी
कर्मों के अलावा
कुछ भी तो नहीं ले जाना है।
यह सब कुछ
भूले बैठे हो तुम
भयंकर नहीं क्या भूल यह।
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