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आदिवासी महिला कथा लेखन का विकास और चिंतन : शैलेश यादव

कथा साहित्यk का प्रार्दुर्भाव भले ही युरोप में हुआ हो लेकिन हिंदी साहित्य् मे इसका पूर्ण विकास देखा जा सकता है। हिंदी कथा एक आधुनिक गद्य विधा है। विश्वद की हर भाषा में सभ्यसता, संस्कृ्ति, रहन-सहन इतिहास एवं पृथ्वी  के विभिन्नर रहस्यों् को लेकर अनेकों कथाएं लिखी गई हैं व लिखी जाती रहेंगी। इन प्रचलित कथाओं से किसी भी समाज या समुदाय की आस्थाै, विश्वा्स और मूल्यों  का पता चलता है, जिससे सीख एवं सुझाव दोनों प्राप्तक होते हैं।

''आदिवासी साहित्यह कहने मात्र से ही उन समस्तम आदिवासी समुदायों से संबंधित साहित्य  का बोध होता है जो अपने आप में एक विशाल, व्याहपक एवं विस्तृदत है। इस समुदाय में कई जातियाँ हैं जो देश के विभिन्न  प्रान्तो् में बहु संख्याव में हैं।''  आदिवासी समुदाय की संस्कृिति अधिकतर मौखिक ही है, जिसमें कथा, गीत-संगीत एवं नृत्य  शामिल हैं। इसी बारे में कमलेश्वहर जी कहते हैं कि ''भारत के पास बहुत पुष्टि एवं व्या।पक लोक संस्कृ ति की परंपरा है। लोक संस्कृ ति के विकास का मूल स्रोत ही आदिम समाज की बहुआयामी कल्परना, कल्प‍नाशीलता और उनकी रचनाशीलता से जुड़ा हुआ है। आदिवासियों के पास मन और बुद्धि की मानवीय प्रयोगशाला रही है, जिसमें आदिम कलाओं, उत्कीार्ण पाषाण चित्रों, प्रकृति के साथ तन्म य उल्लाैसपूर्ण लास और नृत्यच, स्वहरों का समायोजन और मौखिक-वाचिक परंपरा का लोक साहित्या प्रारंभ से ही मौजूद है।''  आदिवासी हमेशा से प्रकृति के नजदीक रहतें हैं, इसे भी वे परिवार का एक सदस्य  के रूप में मानते हैं। इसलिए आदिवासियों के साहित्य  में प्रकृति की पूरी छाप है। यह उनकी कविता, कहानियों तथा उपन्यािसों में स्प्ष्टर नजर आता है 

आदिवासी साहित्यो पर आज बहुत लोग लिख-पढ़ रहें हैं। आदिवासी साहित्यय के अपेक्षाकृत कम विकसित होने का कारण है, इनके अलग-अलग समुदायों का होना, इन्हींो अलग-अलग समुदायों में अलग-अलग भाषा का प्रयोग होता है, जिससे भारत का एक विशाल जनसमूह अनभिज्ञ है। आदिवासी समाज पर लिखने वाले आज बहुत हैं जिसमें आदिवासी और गैर आदिवासी दोनों हैं लेकिन यह दुर्भाग्यख ही कहा जा सकता है कि आदिवासी महिला साहित्य कार कम हुई हैं, उसमें भी कथा साहित्यक तो बहुत ही कम। इधर कुछ महिलाओं ने आदिवासी कथा साहित्यर में अपनी कलम से एक स्त्रीा के दु:ख-दर्द एवं आदिवासियत की उपस्थिति दर्ज की है, वह भी बहुत ही प्रभावकारी ढंग से। आदिवासियों के रीति-रिवाज की अपनी अलग विशेषता है, जो अन्यक समाज की तुलना में बेहतर है। चाहे वह टोटम हो या फिर धन संग्रह संबंधी बात हो। फिर इन्हेंा तथाकथित सभ्य  समाज द्वारा असभ्यव क्यों  कहा जाता है? बालात्कासर हो या प्राकृतिक दोहन मानवता का सारा उल्लंेघन तो दीकू समाज ही करता है फिर कहाँ से सभ्यत हुआ? आदिवासी, लोक साहित्या के सुनहरे रंग को  अपने शब्दोज के माध्यफम से साहित्यं जगत के समक्ष रखने में तत्पोर हैं। ''यह अलग बात है कि भारत बाकी हिन्दू  या अन्य धर्मी आबादी अपनी कूपमण्डूंकता के कारण खुद को श्रेष्ठह समझकर इन्हेंि अनदेखा कर रही है और इन्हेंआ जंगली या असभ्यप कह कर अपमानित करती है।''  इसका उत्तर आदिवासी महिलाओं ने अपने लेखन में कथा के माध्य‍म से व्यक्त किया है साथ ही वे अपनी समस्या ओं को सामने रख पाने मे सक्षम हो पायीं है। जब तक कोई समस्या  को उजागर नहीं किया जाता तब तक एक अकेला शोषण की समस्या  से जूझता रहता है लेकिन जैसे ही वह अपनी बात को बाकी समाज के सामने लाता है तो वह समस्याक केवल व्यलक्तिगत या उस समाज की ही नहीं, सभी की समस्याा बन जाती है, सभी लोग उस संघर्ष में साथ हो जाते हैं।  इसी ताकत को पहचानते हुए रमणिका जी कहती हैं कि ''अभिव्य क्ति की ताकत अगर मनुष्यक को पशु से भिन्नम बनाती है, तो साहित्यर उसे दिशा देता है और अहसास दिलाता है कि वह मनुष्यय अकेला नहीं बल्कि एक समाज का अंग है और प्रतिबद्ध साहित्यत समाज को गतिशील बनाता है- जड़ नहीं।'' आदिवासी समाज में आदिवासी महिलाओं की पूर्ण स्वजतंत्रता कहाँ तक है इस बात को आदिवासी महिलाएं ही सही रूप में व्यलक्त  कर सकती हैं। इसका विभिन्नक स्वसरूप हमें उपन्याेसों और कहानियों में देखने को मिल जाता है। आदिवासी महिला कथाकारों ने महिलाओं के साथ-साथ आदिवासियत को भी उकेरने का प्रयास किया है। गैर-आदिवासी रचनाकारों ने भी इनके दु:ख पीड़ा को व्यसक्तन करने का प्रयास किया है लेकिन वे आदिवासियत व स्त्रीि समस्याेओं के मर्म तक पहुँचने में नाकाम रहें हैं। रोज केरकेट्टा के शब्दोंव में कहें तो 'गैर आदिवासियों द्वारा रचित आदिवासी विषयक साहित्यं में शिल्प  है परन्तुव आदिवासी आत्माय नहीं। उसमें सर्जक अपनी दृष्टि से अच्छा ई-बुराई का कलात्मटक विवरण रखता है लेकिन आदिवासियों का सच उससे अलग है।' आदिवासी महिला लेखन को और भी समृद्धि की आवश्य‍कता है जिससे आदिवासी महिलाओं की समस्यान व आदिवासी शोषण एवं संघर्ष साहित्यज का मेरुदण्डय बन सके। आदिवासी महिला समाज अपेक्षाकृत दीकू समाज से स्व तंत्र है लेकिन इस समाज में भी महिलाओं के प्रति अलग-अलग समुदाय में अधिकारों की असमानता है। इस असमानता को अभी तक उपलब्धर कथा साहित्यल में उकरने का प्रयास किया गया है। फिर भी अभी भी बहुत कुछ कहने के लिए कथा साहित्यय को इंतजार है। '' इसलिए जरूरी है कि आदिवासी स्त्रीु कथा लेखिकाओं के अवदान को तो

रेखांकित किया ही जाए। उनके समुचित मुल्यांिकन भारतीय साहित्यर को समृद्ध किया जाए। क्योंखकि आदिवासी स्त्री  लेखको की रचनाएं न सिर्फ भारतीय समाज के अदेखे बहुभाषाई और बहु सांस्कृयतिक संसार को दर्ज करती हैं बल्कि पूर्वाग्रहों और गैर बराबरी से मुक्त् एक स्वकस्थर लोक तांत्रिक समाज की पुनर्रचना के लिए उत्प्रेसरित करती हैं।''

आदिवासी कथा तो वाचिक परंपरा में ही विकसित है फिर भी महिला कथा लेखन की शुरूआत लगभग आधी सदी पहले हो चुकी है। ''एलिस एक्काल हिंदी की पहली आदिवासी स्त्रीक कथाकार हैं। उन्होंीने पचास के दशक में हिंदी मे लेखन आरंभ किया था और 1947 से शुरू हुई साप्ता।हिक 'आदिवासी' की वह नियमित लेखिका थी।'' क्योंरकि न तो एलिस जी के द्वारा और न ही उनके परिवार द्वारा कोई कहानी संग्रहीत की गई, इसलिए उनके कहानी संग्रह का कोई उल्ले ख नहीं मिलता है। विभिन्नक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों को संकलित करके वंदना टेटे जी ने 'एलिस एक्काै की कहानियाँ' नामक शीर्षक से संपादित किया है। एलिस जी का पूरा नाम एलिस ख्रिस्तायानी पूर्ति है। ''कहानी लिखना और विश्वस साहित्यै का अनुवाद करना इनकी प्रकृति थी।'' इस संग्रह में पहली कहानी 'वनकन्यान' में बताया गया है कि प्रकृति प्रदत्त् सभी जीव-जन्तुग व पेड़-पौधे हानिकारक नहीं होते हैं बल्कि जो ऐसा समझते हैं वो बहुत बड़ी भूल करते हैं। दूसरी कहानी 'दुर्गी के बच्चेे और एल्माह की कल्पेनाएं' है। इसके केन्द्र  में दो निम्ने समझी जाने वाली दलित एवं आदिवासी स्त्रियों की कहानी है। दोनों दु:ख-सुख में एक दूसरे के साथ खड़ी रहती हैं। यह कहानी समूहिक अनुभूति की कहानी है। यह कहानी 1962 में प्रकाशित हुई थी। वंदना टेटे के अनुसार ''प्रकाशन के लिहाज से प्रेमचंद के बाद दलित विषय पर लिखी गई यह हिंदी की पहली दलित कहानी भी है।'' इनकी अगली कहानी है 'सलगी जुगनी और अंबा गाछ' यह एक बच्चे  की निश्छनल प्रेम की कहानी है। विकास की आँधी मे आदिवासी समुदाय वंचना का शिकार हो रहें हैं। यह कहानी आदिवासी अस्मिता की ओर संकेत कर रही है। इस संग्रह में संकलित 'कोयल की लाड़ली सुमरी' कहानी में एलिस एक्कास जी तथाकथित सभ्य  या बाहरी व्यलक्ति को शोषक, बालात्का'री के रूप में चित्रित करती हैं। अपने को सभ्यस कहने वाले लोग ही अपनी वासना का शिकार आदिवासी महिलाओं को बना रहें हैं। इस कहानी के माध्यिम से बताया गया है कि गैर आदिवासी समाज, आदिवासी स्त्रियो के उघड़े शरीर को मनोरंजन की दृष्टि से ही देखते हैं और उनका शारीरिक शोषण करते हैं। एलिस एक्काघ जी की अगली दो कहानियाँ 'पंद्रह अगस्तऔ, विलचो और रामू' एवं 'धरती लहरायेगी, झालो नाचेगी गायेगी'है। इसमें लेखिका का आदिवासी जीवन के सामाजिक ढ़ांचा के प्रति आशान्वित दृष्टिकोण दिखाई देता है।

महिला आदिवासी कथा साहित्य  की स्तं भ के रूप में जानी जाने वाली रोज केरकेट्टा के दो कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। रोज जी के कहानी संग्रह का नाम 'पगहा जोरि-जोरि रे घाटो' (2011) और 'विरुवार गमछा तथा अन्यन कहानियाँ' (2016) हैं। इनके पहले कहानी

संग्रह 'पगहा जोरि-जोरि रे घाटो' के शीर्षक का अर्थ होता है 'कतार में लौटती हुई चिडिया'। यह कहानी संग्रह हिंदी भाषा में ही लिखित व हिंदी पाठकों में बहुचर्चित भी है। इसमें 16 कहानियाँ संग्रहीत हैं। इस पुस्तखक से 'भँवर' कहानी विशेष रूप से प्रसिद्ध कहानियों मे से एक है, जिसमें आदिवासी महिलाओं को संपत्ति का अधिकार न देने की प्रथा के विरोध की कथा है। इस कहानी में विधवा महिला के पास कोई बेटा नहीं है जबकि केवल बेटियाँ हैं। उसका अपनी जमीन पर आदिवासी समाज के नियमों के अनुसार भी और कानूनानुसार भी हक है लेकिन पुरूषवादी सत्तास होने के कारण विधवा स्त्री  व उसकी बेटी पर अंधेरी रात में हमला कर माँ और एक बेटी को हमलावर रात भर नोचते हैं और जाते समय उसके टुकड़े-टुकड़े करके जाते हैं। छोटी बेटी इन हमलावरों से बचने में सफल होकर भी अपने हक के लिए गवाहों के अभाव में पाँच साल के बाद हाईकोर्ट के चक्कंर में अनुत्तकरित सवालों के भँवर में घूमती रहती है। आदिवासी समाज में भी स्त्रीक-पुरुष समानता के दंभ की सच्चाँई अलग ही है। रोज जी ने इस कहानी में इस सच्चााई को निडर रूप से उजागर किया है। इनकी ही 'गंध' कहानी में स्त्री , प्रतिरोध की चेतना से जागृत है। इस कहानी में नायिका छेड़खानी पर बदतमीज यात्री पर हाथ उठाती है। इसी तरह 'घाना लोहार का' कहानी में स्त्रीं अपने अधिकारों के लिए हमलावर जगत सिंघ का सिर और चंदरू का हाथ काट देती है। दूसरी तरफ लेखिका आदिवासी समुदाय के गुण को उजागर करते हुए 'विरुवार गमछा' कहानी में आदिवासी हथकरघे द्वारा बना गमछा को दूसरे प्रदेश गुजरात में आदिवासी पहचान का कारण बनाता हैं। इनकी भाषा की सहजता के कारण आदिवासी प्रतिरोध भी सहज और शान्तण प्रतात होता है। ''रोज केरकेट्टा की कथा शैली सहज है। वे किसी वाद के बोझ तले दबकर नहीं आदिवासी जीवन के सच को आधार बनाकर लिखती हैं।''

फ्रांसिस्कार कुजूर के लेखन की भाषा कुङुख है। कुङुख एवं हिंदी में इनके एक-एक कहानी संग्रह प्रकाशित हैं। इनकी हिंदी कहानी संग्रह का नाम 'मूसल' है। इनकी कहानी 'मूसल' आदिवासी समाज में संस्कृकति और आधुनिकता के द्वंद्व को उभारती है। दूसरी कहानी 'आधी रात को' दो अपाहिज लोगों की कहानी है। नायिका लंगड़ी है तो नायक नपुंसक। लंगड़ेपन के कारण पिता के घर में प्याजर नहीं मिला लेकिन नपुंसक पति के घर खूब प्या़र मिलता है तथा वे एक दूसरे की अपाहिजता को स्वीयकार भी कर लेते हैं।

आदिवासी लेखिका कोमल जी की कविता, कहानी तथा लघु कथा विभिन्नह पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। इनकी चर्चित कहानी 'साहूकार की मछली' और 'पहचान है। 'साहूकार की मछली' कहानी में मछली के संबंध में साहूकार से लड़ाई दिखाई गई है। दूसरी कहानी पहचान में आदिवासियत की पहचान को बड़ी बारीकी और भद्दे अंदाज मे मुखिया और नायिका के माध्यिम से दिखाया गया है। यह एक लघु कथा है।

मेघालय राज्य  की खासी आदिवासी समुदाय में विजोया सावियान जी का जन्मई हुआ। इनकी भाषा खासी और अंग्रेजी है लेकिन अनुवाद के माध्यहम से हिंदी साहित्यं में भी चर्चित हैं।  इनका हिंदी में अनूदित उपन्यावस 'धुंध में खोए हुए लोग' है। हिंदी में अनूदित कहानी 'सौतेला बाप', 'लंगड़ापन' (खासी) और 'बरसात की एक रात' आदि है। 'बरसात की

एक रात' कहानी में मेघालय की युवाशक्ति के मन में उग्रवाद के पनपने की पीड़ा को एक माँ और बेटे के मनोविज्ञान से जाड़कर व्य क्तव किया गया है। इनके उपन्यामस 'धुंध में खोए हुए लोग' मे सीमित नौकरियों के कारण आपसी संघर्ष यानी की घुसपैठ (अन्यै प्रदेश के लोगों का) और मूल निवासी के हिस्सेर की सुविधाओं को लेकर पनपती वैमनसता और असुरक्षाबोध का चित्रांकन किया गया है। इसी उपन्या स में लेखिका ने मातृसत्ताब में सौतेले पिता के कारण बच्चेा के मन पर पड़ रहे असर को उकेरा है। लड़का खुद को फालतू की वस्तुा समझने लगता हैं तथा कभी-कभी मातृसत्तास के इसी प्रभाव के कारण वे अनपढ़ भी रह जाते हैं। इनकी कहानी 'सौतेला बाप' और 'लंगड़ापन' खासी जनजाति पर ही आधारित हैं। 'सौतेला बाप' की नायिका लेबिआंगमॉन अपने स्कू्ल के समय से ही बेरिस नेईलौगस से प्रेम करती थी, लेकिन जाति अलग होने के कारण दोनों की शादी नहीं हो पायी। नायिका बेरिस के बच्चेक की माँ भी बन जाती है। नायिका की शादी टोकिन बेरिन से हो जाती है। सौतेला होने के बाद भी टोकिन बच्चे  वैंनवॉक को बहुत प्याकर करता है। आगे कहानी में दोनों  मिलकर नायिका की शादी फिर बेरिस से करवा देते हैं। पहले पति को छोड़कर अपने प्रेमी को पति बनाना मेघालय में मातृसत्ताा के कारण संभव हो पाया है। वहाँ स्त्रीर-शक्ति मातृसत्ताल के कारण जीवित है।'लंगड़ापन' कहानी में एक बहादुर औरत कोंगतिशि की है जो क्षेत्रीय दंगो में नायक की बहन को जान पर खेल कर बचाती है। जब नायक उसके अन्येिशि ष्टि के लिए जाता है तो नायक का लंगड़ापन ठीक हो जाता है इससे नायक की दृष्टि में बहादुर महिला का स्था न और ऊँचा हो जाता है। यह आधुनिक एवं प्रतीकात्माक कहानी है। इनका लेखन स्री्था शक्ति को पहचान दिलाता है। खासी जनजाति की एक और लेखिका एस्थहर सीएम हैं। इनकी कहानी का नाम 'पानी में संस्महरण : उमखराह नदी के जीवन का एक अध्यामय' है। इस कहानी की नायिका बेम एक घर में नौकरानी का काम करती है तथा उसकी माँ भी नौकरानी है, उसे भी एक पति की तलाश है। बेम कसाई के लड़के के साथ प्रेम - वश होकर भाग जाती है। आठ साल बाद कसाई पति पाँच बच्चों  की माँ बनाकर, उनके पालन पोषण का जिम्माह बेम पर छोड़कर खुद शराब और बिमारी के कारण मर जाता है। बेम किसी तरह भूख और गरीबी से लड़ते हुए  बच्चोंऔ को पालती है। उसकी माँ अपने से बहुत छोटा पति लाती है। माँ को अपनी बेटी से ही खतरा है कि कहीं उसके पति को अपना न बना ले, इसलिए उसे घर में नहीं रहने देना चाहती थी। बेम एक चाय की दुकान पर काम करते हुए बिना बताए ही कहीं चली जाती है। इस मातृसत्ताब के समाज में यह स्वततंत्रता है कि वे अपने लिए पति को किसी भी उम्र चुन कर ला सकती हैं।

अरुणांचल प्रदेश के न्यी शी आदिवासी समुदाय में जन्मीा जोराम यालाम नाबाम के हिंदी कहानी संग्रह का नाम 'साक्षी है पीपल' (2012) है। इसमें नौ लम्बीय कहानियाँ संकलित हैं। इसमें भी यासों और दिलासा चर्चित कहानी है। नबाम जी का हाल ही में 'जंगली फूल' (2019) नामक एक उपन्यामस भी प्रकाशित हुआ है। यह उपन्या स अरुणांचल प्रदेश की जनजातियों पर केन्द्रित है। न्यीउशी समुदाय में पुरुष को बहुपत्नीा रखने का आजादी है। इनकी कहानियों में समाज की कई सशक्त  स्त्री  पात्रों के माध्यहम से स्त्री -पुरुष के बीच मित्रता के संबंध को आदर्श घोषित किया गया है। लेखिका ने प्रगतिशील मानवतावादी दृष्टि से जनजातियों में भी नवजागरण लाने का प्रयास किया है। वीर भारत तलवार के शब्दों  में ''प्रेम की महिमा का गुणगान करने वाले इस उपन्याास में कई शक्तिशाली स्त्रीा चरित्र हैं जिनकी नैसर्गिकता से प्रभावित हुए बिना हम नहीं रह सकते हैं। स्त्रीं-पुरुष के बीच मित्रता के संबंध को आदर्श घोषित करने वाली यह साहसिक कृति अपनी खूबसूरत और चमत्का रिक भाषा के कारण बेहद पठनीय बन गई है।'' इसी तरह इनकी कहानी 'यासो' भी बहुपत्नीच प्रथा पर केन्द्रित है। इसमें बहुपत्नीै प्रथा की बारीकियों के बारे में बताया गया है, जो पति खेत में जितना अच्छा। काम कर सकता है, उसे उतना ही पत्नीय रखने की सामाजिक मान्येता है। सब पत्नियाँ पहली पत्नीस के आदेशानुसार चलती हैं, पहली पत्नी  ही अपने पति के लिए अन्यज पत्नियों का चुनाव भी करती है। वहाँ लड़का-लड़की का ब्यामह माँ-बाप की मर्जी से ही होता है, इसलिए अधिकतर लड़कियाँ उस पति को छोड़कर भाग जाती हैं। इसके बाद पिता के उम्र वाले पुरुष की दूसरी, तीसरी पत्नी  बनना पड़ता है। नाबाम जी इस प्रथा को कहानी में तोड़ने को प्रयास करती हैं। यासो का भी ब्या‍ह में दब्बू  व शर्मीउला पति मिला था लेकिन यासो को बलशाली पति चाहिए था जो उसे सुरक्षा दे सके। इसलिए यासो भागकर तमिन के खेत में मेहनत के लिए जाती है जहाँ तमिन की पहली पत्नीए उसकी मेहनत को देखकर तमिन से शादी करा देती है, उस तमिन की दो पत्नियाँ और भागकर आई थी। लेकिन यासो इस प्रथा से अपनी बेटी कोदुःख नहीं भुगतने  देगी । यासो चाहती है कि बेटी दूसरी शादी न कर सुखद जीवन बिताए। 'दिलासा' कहानी सात घायल मजदूरों की कहानी है जिनका अस्पुताल पहुँचना बहुत जरूरी है पर आटो ड्राइवर के सनकीपन के कारण समय लगता है। इस कहानी में ड्राइवर के सनकीपन के कारण की कथा भी समाहित है।

नगपुरिया भाषी कथाकार सरिता सिंह बड़ाईक की कहानी है 'दावेदार'। यह चिक बड़ाईक आदिवासी समूह की कहानी है। यह कहानी गाँव के आदिवासी किसान समाज में व्या।प्त़ विकृतियों को दर्शाती है। दीकू संस्कृकति आदिवासी पर हावी हो रही है। पिता के मरने पर कैसे उसके बेटे उसकी संपत्ति के दावेदार बनने के लिए झूठा दिखावा करते हैं। बढ़-चढ़ कर रोते हैं और पिता की सेवा का झूठा दंभ भर रहें हैं, पिता के जीते हुए सभी लोगों ने उन्हें  अनदेखा कर दिया था। यहाँ तक कि इन्हींा लोगों के कारण वे मर भी जाते हैं। इस कहानी के माध्यरम से लेखिका आदिवासी मूल्यों  के अवमूल्यान को बचाने की अवश्यइकता पर बल देती हैं। इस कहानी की शैली सुगठित तथा नगपुरिया भाषा के शब्दे अधिक मिलतें है, जो आदिवासियों के धरातल से जोड़ने के लिए आवश्य क भी हैं। नगपुरी भाषा की एक और लेखिका हैं मंजु ज्योकत्सोना। इनके कहानी संग्रह का नाम है 'जग गबू जमीन'। इस संग्रह की चर्चित कहानी है 'प्रायश्चिोत' जिसमें एक पति अपने पत्नी  पर किए गए जुल्मोंम का प्रायश्चित करता है। ऐसा प्रायश्चित केवल आदिवासी समाज ही कर सकता है, तथाकथित सभ्यय समाज नहीं। नायक रिक्शा। चालक है, वह नगाड़ा बजाने व नाचने में माहिर है। पूरा परिवार नाचता और गाता है और एक ही कमरे में गुजारा करता है लेकिन उसकी दुल्हनन जो आती है वह बदसूरत व बेसुरी दोनों है, पर घर के कामों को अच्छेी तरीके से करती है। वह खुद कमाकर घर के लिए पैसे लाती है। सास और पास-पड़ोस यहाँ तक कि पति भी उसे बॉझ कहता है, जो कि सच भी था, तो वह सहन नहीं कर पाती है पति से मार खाने के बाद अपने मायके जाकर आत्मकहत्याा कर लेती है। उसके बाद नायक शराब के नशे में धुत होकर शाराब बेचने वाली को ही दुल्ह न बनाकर घर लाता है, जिसके पेट में दूसरे का बच्चाो है लेकिन पति अपने अपराध बोध का प्रायश्चित करना चाहता था।

गोंड आदिवासी समुदाय से सुशीला धुर्वे जी महाराष्ट्रच की निवासी हैं। इनकी चर्चित कहानी 'गाय चोर दीकू' है। इस कहानी में दिखाया गया है कि दीकू (बाहरी लोगो) की वजह से आदिवासी समाज का ताना-बाना छिन्नन-भिन्ना हो रहा है, इन आदिवासियों का पशु चुराकर दीकू उन्हींज को फिर बेचते हैं। यही नहीं दीकूओं द्वारा योजनाबद्ध तरीके से जंगलो से लकड़ी चोरी, बाजारों से पशुओं की चोरी और गाँव-घरों से स्त्रियों की चोरी लगातार कर रहें हैं। आदिवासी समाज की पुरखा परंपरा, अस्तित्वघ और संस्कृीति पर खतरा नजर आ रहा है। इस खतरे से यह कहानी भलीभाँति अवगत कराती है। गोंडी समाज पर महाराष्ट्र  की ही लेखिका जीवन उषा किरण अन्नातम ने अपनी कहानी 'भूख' में यह प्रश्नन उठाया है कि एक तरफ एक वर्ग विशेष के लिए खाने की प्लेतटे सजाई जा रही हैं, वहीं दूसरी तरफ अधिकांश लोग  भूख मिटाने के लिए क्योंी तरस रहे हैं? वे सब भूख से मर रहे हैं। रोंगटे खड़े कर देने वाली ऐसी ही सच्चीे घटना का चित्रण इस कहानी में किया गया है। यह कहानी बाढ़ में फंसे लोगों की मार्मिक राजनीतिक कहानी है। महारष्ट्री की ही गोंडी भाषी कथाकार वसुधा मंडावी ने स्त्री  सश‍क्तिकरण की कहानी 'इरुक' है। इरुक नायिका के माध्यडम से स्त्री  अपने अपमान का  बदला स्वनयं लेती है, किसी पर निर्भर नहीं होती है। ''यह कहानी अपने शिल्पभ और भाषा के लिहाज से महत्वतपूर्ण बन पड़ी है। यह एक बेमिसाल आदिवासी कहानी है, जो न सिर्फ अपने कटेंट के लिहाज से खूबसूरत है बल्कि शिल्पस के लिहाज से भी चकित करती है।''

तेमसुला आओ मूलत: अंग्रेजी भाषा की लेखिका हैं। लेकिन हिंदी अनूदित चर्चित कहानी 'तीन औरतें' में ऐसी तीन औरतों का वर्णन है जिनके साथ कोई न कोई घटना जुड़ी है। लियोन्तुऔला की शादी हो चुकी थी लेकिन एक दिन मेरेनसाशी उसका बलात्काोर करता है, इस बात से लियोन्तुटला को अपराधबोध होता है कि उसने बलात्कासर का विरोध उतनी शिद्दत से क्योंे नहीं किया जितना करना चाहिए था। फिर बाद में वह मेरेनसाशी की बेटी को जन्मर देती है, नाम है मेदेम्लाा। वह बड़ी होकर मेरेनसाशी के बेटे से ही प्रेम करने लगती है। जब लियोन्तु‍ला को पता चलता है तो पिता से बात करके यह शादी नहीं होने देती। मेदेम्लार बिना शादी के ही बच्चीक को गोद लेकर रहने लगती है। वह बच्चीह मार्था कक्षा आठ में ही अपौंक से शारीरिक संबंध बनाकर उसी से शादी कर लेती है।

जम्मू  के लेह निवासी संरिंग छोरोल की कहानी 'अखरोट का दरख्त्', एक बच्चीप के प्रकृति प्रेम की अतिमार्मिक और दिल को छू लेने वाली रचना है। इस कहानी के माध्य म से प्रकृति के मासूमियत और कोमलता को यह आधुनिक सभ्या समाज निर्ममता से रौंद रहा है। यह कहानी इससे सावधान और बचाने की आवश्यलकता पर बल देती है। संताली भाषा की कहानी 'सच्चाी सुख' प्रीती मुर्मू की कहानी गाँव के बाहर शहरों में जा बसे आदिवासियों और गाँव में रहने वासे आदिवासियों के सोच के अंतर का विस्तृँत वर्णन है। शहरी आदिवासियों के जीवन शैली में मूल्यों  का ह्रास हो गया है। दमयंती सिंकू की कहानी 'सीने के अजूबे प्रेमी', एक अपाहिज युवती की कहानी है। यह  आदिवासी समुदाय पर केंद्रित है। इसमें रोज तंग करने वाले दो युवक के सामने जब लड़की शादी की शर्त रखती है तो वे भाग खड़े होते हैं। यह कहानी मनचलों के प्रेम और छल-कपट को उजागर करती है।

आदिवासियों में भ्रूण हत्याल की परंपरा नहीं थी लेकिन अब धीरे-धीरे फैल रही है इसी को दर्शाते हुए कुङुख भाषी शांति खलको की कहानी 'मेरे बाप की शादी' है। नायिका अपने बाप की दूसरी शादी को लेकर चिंतित है क्योंंकि उसके बाप ने पहली पत्नी  को भ्रूण हत्या  कराते समय जानबूझकर मार डाला था। 

इसके अलावा विभिन्नत पत्र-पत्रिकाओं में कुछ लेखिकाओं की कहानियाँ और उपन्या्स समय-समय पर प्रकाशित होते रहें हैं।अन्य  कहानियों में ममांग देई कृत 'देवों की वर्षाभूमि', ज्योपति लकड़ा कृत 'कोराइन डूबा', मीरा रामनिवास कृत 'अंतिम टारगेट', शोभा लिंबू यल्मों् कृत 'कारोबार' और 'नम्चुन दाज्युर', येसे दरसे थोंगसी कृत 'आईना' आदि हैं। आदिवासियत को आधार बनाकर वंदना टेटे द्वारा प्रकाशित कहानी संग्रह 'लोकप्रिय आदिवासी कहानियाँ' है। इन लेखिकाओं के अलावॉ हिंदी कथा साहित्यक में अदिवासी समाज के चिंतनधारा को आगे बढ़ाने के लिए वासवी कीड़ो, दयामनी वार्लो, बिटिया मुर्मू, ग्रेस कुजूर, सावित्री बड़ाईक, सुषमा माथुर, अल्मा  ग्रेस बारला, वारीपदा, दीपा मिंज, मिलनरानी जमातिया, कुसुम माधुरी टोप्पोम, डॉ0 मेरी हॉसदा, सुशीला सामद, थसो क्रापी (कार्वी लेखिका) तथा शान्ति सवैया आदि आदिवासी लेखिकाएं प्रयासरत हैं। 

समग्र रूप से कहा जा सकता है कि आदिवासी साहित्‍य में आदिवासी महिलाओं का योगदान कम ही सही पर महत्‍वपूर्ण है। आगे महिला कथाकारों में लोग अपना योगदान दे रहें हैं। आदिवासी महिला कथाकारों ने आदिवासी की प्रकृति प्रेम, उनके जीवन मूल्‍य, आदिवासी परंपरा को प्रगतिशील बनाने और उनके शोषण के विरुद्ध पुरजोर रूप से आवाज उठाई है। इसके साथ ही आदिवासी समाज में महिलाओं की धरातलीय स्थिति से अवगत कराया है, उनके दैहिक और मानसिक एवं आधिकारिक शोषण के प्रतिरोध स्‍वरूप अपनी आवाज मुखर की है, इनके न्‍याय के पक्ष में खड़ी हैं। ''पारिवारिक और सामाजिक जीवन की नित नूतन समस्‍याएं और प्रकृति से साहचर्य की प्राचीन परंपरा आदिवासी साहित्‍य का ठोस आधार है, जिस पर आदिवासियों का प्राचीन तथा समकालीन साहित्‍य टिका हुआ है और अब यह आदिवासी साहित्‍य हिंदी के माध्‍यम से देश और दुनिया मे छा जाने की हैसियत बनाने में जुटा है।''


संदर्भ ग्रंथ

भारत का आदिवासी स्‍वर, रमणिका गुप्‍ता, अनन्‍य प्रकाशन, दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण- 2018, पृष्‍ठ- 188

[1]पूर्वोक्‍त, पृष्‍ठ- 27

[1]पूर्वोत्‍तर का आदिवासी सृजन का स्‍वर, सं. रमणिका गुप्‍ता,अनन्‍य प्रकाशन, दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण- 2018, पृष्‍ठ सं. 10

[1]आदिवासी स्‍वर और नयी शताब्‍दी, सं. रमणिका गुप्‍ता, वाणी प्रकाशन, नई दिल्‍ली, द्वितीय संस्‍करण- 2008, पृष्‍ठ- 06

[1]एलिस एक्‍का की कहानियाँ, सं. वंदना टेटे, राधाकृष्‍ण प्रकाशन, नई दिल्‍ली, पहला संस्‍करण- 2015, पृष्‍ठ- 22

[1]पूर्वोक्‍त, पृष्‍ठ- 09

[1]आदिवासी साहित्‍य के लिए आदिवासी साहित्‍य जानना जरूरी है, www.prabhatkhabar.com/news/ranchi/story/619540.htm, 03 जुलाई 2017

[1]एलिस एक्‍का की कहानियाँ, सं. वंदना टेटे, राधाकृष्‍ण प्रकाशन नई दिल्‍ली, पहला संस्‍करण- 2015, पृष्‍ठ- 28

[1]आदिवासी चिंतन की भूमिका, गंगासहाय मीणा, अनन्‍य प्रकाशन,दिल्‍ली, पुनर्मुद्रण-2019, पृष्‍ठ- 73

[1]जंगली फूल, जोराम यालाम नाबाम, अनुज्ञा बुक्‍स पब्लिकेशन, प्रथम संस्‍करण- 2019, आवरण पृष्‍ठ

[1]आदिवासी कहानी संचयन, सं. रमणिका गुप्‍ता, साहित्‍य अकादमी, नई दिल्‍ली, प्रथम संस्‍करण- 2019, पृष्‍ठ- 22


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