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समकालीन मणिपुरी कविता : प्रो. यशवंत सिंह


मणिपुर पूर्वोत्तर भारत का नौ पर्वतमालाओं से क्रमशः घिरा हुआ मध्य में छोटी सी घाटी में स्थित राज्य है| इस राज्य की बोल-चाल की भाषा मणिपुरी है, जिसे स्थानीय भाषा में ‘मीतैलोन’या मैतैलोन जाता है| पूर्वोत्तर भारत की असमिया भाषा की तरह मणिपुरी भाषा में भी समृद्ध साहित्य परंपरा विद्यमान है| जिसकी शुरुआत प्राचीन समय से ‘लाइहराओबा’ के सृष्टि उत्पत्ति-विकास संबंधी धार्मिक गीतों से मानी जाती है| इन गीतों में सृष्टि की उत्पत्ति एवं मानव विकास का क्रमबद्ध वर्णन नृत्य-गीत-संगीत के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है| मणिपुरी साहित्य में नवजागरण की शुरुआत २०वीं शताब्दी के तीसरे दशक से होती है, जिसमे आधुनिकता की प्रवृत्तियों का प्रवेश 1947 ई. के बाद से होता है| समकालीनता को आधुनिकता के विकास के रूप में देखा जा सकता है, जिसमे वर्तमानकालिक होने का भाव सन्निहित होता है| समकालीनता अपनी धरती एवं प्रदेश से जुड़ा साहित्य-आन्दोलन है, जिससे निर्गत साहित्य मनुष्य का साहित्य है| इसमें मनुष्य की संवेदना, कुंठा, आशा-निराशा, आस्था-अनास्था, अस्मिता और भारतीयता के भावों को बेबाकी से अभिव्यक्त किया गया है|  

शिजगुरुमयुम निलबीर शास्त्री की कविता ‘मुझे मत छेड़ो’ में चौदहवीं का चाँद, कामदेव के बाण, वसंत ऋतु में कोयल की कूक आदि पारंपरिक प्रतीक कवि के मन में रोमांटिक भावों को जागृत करने में अक्षम हो रहें हैं| क्योंकि कवि का मन भूख-प्यास से व्याकुल है, वह जीवन संग्राम से हारा निष्फल पथिक है तथा उसका जीना भी जीवन का बोझ बन गया है –

“चौदहवीं के चाँद तुम मुझे मत छेड़ो 

मैं वियोगी नहीं 

और कामी भी नहीं 

मैं भूखा हूँ, नंगा हूँ

और बेकार हूँ 

x x x x

मैं निष्फल जीवन-संग्राम का हारा पथिक 

जीना भी

मेरे जीवन को बना हुआ बोझ |1

सिद्धनाथ प्रसाद की कविता ‘जब तक जिन्दा हो, जिन्दा रहो’ में व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए गरीब-भूखी जनता को शिकायत न करने, चुपचाप रहने की हिदायत दी गयी है क्योंकि सरकार ने गरीबी हटाओ का नारा देकर उसे जड़मूल से नष्ट कर दिया है –

“मुर्ख हो ? नंगे हो ?

क्या गरीब हो ?

शिकायत मत करो 

चुपचाप रहो 

जब तक जिन्दा हो, जिन्दा रहो 

गरीबी तो, सरकार ने

जड़मूल से हटा दी है |”2

डॉ. एलाङबम दीनमणि सिंह की कविता ‘मुश्किल तो यह है’ में दिखाया गया है कि मनुष्य इस संसार में सभी असंभव कार्य कर सकता है | वह संसार का नियंता बनने की कोशिश करता है लेकिन स्वयं अपने ‘मैं’ को वह खोज पाने में अक्षम है –

“मैं सब कुछ कर सकता हूँ 

सात समुन्दरों का पानी

एक ही चुस्की में पी सकता हूँ 

महा-महान पर्वतों को उखाड़कर 

आधुनिक महासागरों का घाव भर सकता हूँ 

x x x x x x

मानव जो हूँ न 

मुश्किल तो यह है

मैं ‘मैं’ न बन सका 

बस और क्या ! !3

लाइश्रम समरेन्द्र सिंह लिखित ‘ईशिङ’ यानि पानी शीर्षक कविता में नौकरशाहों के माध्यम से संचालित विकासवादी मॉडल की निरर्थकता पर करारा प्रहार किया गया है –

“देश का बड़ा पदाधिकारी आता है 

ज्ञानी आता है, विद्वान आता है  

जोरदार बहस करते हैं, जोरदार विचार विमर्श करते हैं

जोरदार तर्क-वितर्क करते हैं, बहुत कोशिश करते हैं दिनभर 

किन्तु नहीं निकलता पानी, उसी पहाड़ी कोख से |”4

जनसहभागिता के माध्यम से पानी निकलने का सफल संकेत भी इस कविता के अंत में मिलता है –

“निकलना ही होगा पानी को, क्यों नहीं निकलेगा ?

क्यों पानी नहीं निकलेगा 

निकलेगा कहती है वह नारी 

ऊँची आवाज में चिल्लाती है 

पानी निकल आता है, झर-झर बहने लगता है |’5

 

लोकतंत्र में सभी को अपने मन की बात कहने की स्वतंत्रता है | लेकिन इसके विपरीत प्रभाव पड़ता देख व्यक्ति की यह अभिलाषा उसके मन में ही रह जाती है | खुमन्थेम प्रकाश सिंह अपनी कविता ‘मैं क्या कहूँ’ के माध्यम से इसी की ओर इशारा करते है –

“मैं क्या कहूँ, कहने को तो बहुत कुछ है |

कहने की अभिलाषा से भरा हुआ मुँह 

जैसे मछली के बोलने का प्रयास

पानी से अटक गया है, वैसे 

ओंठ खोल नहीं सका, आज

गणतंत्र के इस मैदान में |”6

गणतंत्र में सभी को समान अवसर देने की बात कही जाती है | लेकिन गण यानी आमआदमी गाँवों में रहता है जबकि तंत्र यानी शासनकर्ता राजधानी दिल्ली में अटककर रह गया है| उनके बीच आपसी सहयोग होने के बजाय दूरियाँ लगातार बढ़ती जा रही हैं | इसीलिए थाङजम इबोपिशक सिंह के लिए यह मृग-मरीचिका के सिवा और कुछ नहीं है –

“गणतंत्र 

मरूभूमि में 

माया-मरीचिका में भटका

प्यास थके ऊँटों का समुदाय।7 

 

समकालीन कवि मणिपुर के बदलते परिवेश के प्रति सजग हैं| भूमंडलिकरण एवं  बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण विश्व एक ग्राम के रूप में परिवर्तित हो रहा है | जिसमें पश्चिमी जीवन-पद्धति हावी हो रही है तथा स्थानीय विशेषताओं का क्रमशः लोप होता जा रहा है | लाइश्रम समरेन्द्र ‘एक गावँ की कथा’ कविता के माध्यम से विलुप्त हो रही परंपरागत गायन पद्धति की ओर इशारा कर रहें हैं –

“कथा है एक गावँ की 

पूर्वोत्तर क्षेत्र की |

बहुत चर्चित गावँ चांदपुर की |

x x x x x

कोङखाम का थम्बौ 

छोड़ चुका है गायन

उस बढ़ई को 

कैसे दी जा सकती है उपाधि

एक है मनाओ नाम का 

कहते हैं गाता है, या नहीं गाता, क्या मालूम 

उसकी बेटी से पूछने पर बताया 

घर पर तो खूब गाता है 

x x x x x


उपाधि के हकदार दोनों में 

गायन की, करनी पड़ी प्रतियोगिता देर रात |

अर्पित की उपाधि कोङखाम के थम्बौ को 

अगले वर्ष से 

कोङखाम के उस बुजुर्ग के बाद 

बंद हो गई गायन उपाधि |8

महात्मा गाँधी के अनुसार भारत गाँवों में बसता है | गाँवों की सामाजिक संरचना आपसी प्रेम, सौहार्द एवं सहयोग पर आधारित है जिसके केंद्र में पारिवारिक व्यवस्था है | लेकिन संयुक्त पारिवारिक व्यवस्था पश्चिमी जीवन पद्धति अपनाने के कारण बिखर रही है | इबोहल सिंह काङजम की कविता – ‘कहानी माँ और संतानों की’ में एक माँ अपनी असंख्य संतानों की एकता व हँसी-ख़ुशी को देखकर आनंदित है लेकिन आगे चलकर इस एकता खत्म हो जाने पर माँ दुखी होती है | कविता के अंत में संतानों के पुनः एक हो जाने पर माँ के चेहरे की मुस्कराहट रौनक लौट आती है लेकिन मिलन के आँसू छलक पड़ते है –

“एक स्वर में बोले वे 

‘हम एक हैं’ |

माँ मुस्कराई रौनक लौट आई माँ के चेहरे पर

देख संतानों को, छलक आया आँसू

ख़ुशी के आँसू, मिलन के आँसू, एकता के आँसू |”9

 

इस कविता के माध्यम से कवि भारतमाता की संतानों के मध्य एकता का संदेश दे रहे हैं | समकालीन मणिपुरी कविता में भारतीयता का स्वर मुखर हुआ है | काङ्जम परमकुमार सिंह अपनी कविता ‘भारत को तो जिन्दा रहना है अगर मैं मर जाऊँ’ में जलियावाला बाग़, भगत सिंह, सूर्यसेन तथा पौराणिक महत्व के मकोई-नुङोन पर्वत को याद करते हुए अंत में लिखते हैं –

“विस्तृत नहीं, सम्पूर्ण नहीं जाति का इतिहास 

सोच-सोचकर आग की लपटें उठने लगीं 

अभागा, असहाय मैं भी कहना चाहता हूँ –

भारत को तो जिन्दा रहना है, गर मैं मर भी जाऊँ |”10

समकालीन मणिपुरी कविता में मातृभूमि के प्रति अथाह प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है | मातृभूमि की रक्षा हेतू अपने जीवन का बलिदान करने वाले पाओना व्रजबासी को याद करते हुए निशान नीङतम्बा लिखते हैं –

“खोङजोम की धरतीं पुकार रही है 

उस वीर पाओना व्रजबासी को 

जो अंग्रेजों के खिलाफ लड़े

अपने वतन की खातिर मरे

x x x x

धन्य है तेरी क़ुरबानी मैतै के फौलादी

कैसे भूलेंगे हम तेरी तिलांजलि”11

इस तरह समकालीन मणिपुरी कविता में समाज-राष्ट्र की विविध समस्याओं का संवेदनशील अंकन हुआ है | अपनी जड़ों से जुड़े रहने की ललक तथा मातृभूमि भारतभूमि के प्रति असीम लगाव इस कविता का मुख्य स्वर है |


संदर्भ सूचि    


फागुन की धूल, संपादन - देवराज, अनुवाद - इबोहल सिंह काङजम, प्रकाशक – काङजम इंटरप्राइजेज, इम्फाल, प्रथम संस्करण – 1999 ई., पृष्ट 2 से 4 तक |

फागुन की धूल, हिंदी खंड, पृष्ट- 30 से 34 तक |

फागुन की धूल, हिंदी खंड, पृष्ट – 14 से 17 तक |

फागुन की धूल, मणिपुरी खंड, पृष्ट – 6 से 7 तक |

फागुन की धूल, मणिपुरी खंड, पृष्ट – 6 से 9 तक |

फागुन की धूल, मणिपुरी खंड, पृष्ट – 16 से 17 तक |

फागुन की धूल, मणिपुरी खंड, पृष्ट – 32  से 33 तक |

कुछ कहूँ पतंग ! और कथा एक गावँ की, लेखक – लाइश्रम समरेन्द्र, अनुवादक – मेघचंद्र हैराङखोङजम, प्रकाशक – राइतर्स क्लब मणिपुर, नम्बोल, प्राथम संस्करण – 2003, पृष्ट – 63 से 68 तक|

महीप पत्रिका, संपादन - इबोहल सिंह काङजम, प्रकाशक – मणिपुर हिंदी परिषद इम्फाल, संस्करण – जून 2015, पृष्ट 22 से 27 तक |

फागुन की धुल, मणिपुरी खंड, पृष्ट – 14 से 15 तक |

मणिपुर पुष्पांजलि, लेखक – डॉ. सी एच. निशान नीङतम्बा, प्रकाशक – डॉ. के छत्रबती देवी, इम्फाल, प्रथम संस्करण – 2013, पृष्ट 2 


सहायक ग्रन्थ सूचि


मणिपुरी भाषा और साहित्य, संपादक – हजारीमयूम सुबदनी देवी, हिंदी परिषद्, हिंदी विभाग, मणिपुर विश्वविद्यालय, इम्फाल, संस्करण – प्रथम जनवरी 2007|

मणिपुरी कविता ; मेरी दृष्टि में, देवराज, राधाकृष्ण प्रकाशन,नई दिल्ली, पहला संस्करण – 2006 |

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