मणिपुर में रथयात्रा का स्वरूप
मणिपुर भारत के उत्तरपूर्व में स्थित प्राकृतिक संपदाओं से युक्त एक सुंदर-राज्य है। यहाँ अनेक जाति और जन जातियाँ निवास करती हैं। इतिहास साक्ष्य देता है कि मणिपुर एक स्वतंत्र देश हुआ करता था। इसका प्राचीन नाम कङ्लैपाक था। यहाँ पहले हिंदू, मुस्लिम, ईसाई आदि धर्म प्रतलित नहीं थे। तत्कालीन कङ्लैपाक के लोग अपनी परंपरा से चले आ रहे स्थानीय देवी-देवताओं को ही मानते थे। लेकिन राजा चरायरोङ्बा के शासनकाल (1697 ई.-1709 ई.) में हिंदू धर्म प्रचारकों का मणिपुर में आगमन शुरू हुआ। इसके फलस्वरूप राजा और उनके परिवार हिंदू धर्म के प्रति मोहित होने लगे। राजा चरायरोङ्बा के पुत्र गरीबनवाज़ (पामहैबा) ने हिंदू धर्म का मणिपुर में और अधिक विस्तार किया। उनके शासन काल (1709 ई.-1748 ई.) में हिंदू धर्म को राज धर्म घोषित किया गया और धीरे-धीरे अधिकांश लोग हिंदू धर्म को स्वीकार करने लगे। इसी तरह मणिपुर में हिंदू धर्म संबंधी पूजा-पाठ, त्योहार आदि का प्रचलन होने लगा। इसके पश्चात राजश्री भाग्यचंद्र के शासनकाल (1759 ई.-1760ई, 1764 ई.-1798 ई.) में भी अनेक हिंदू मंदिरों का निर्माण किया गया।
रथयात्रा को मणिपुर में
काङ्चिङ्बा कहते हैं। काङ का अर्थ है रथ और चिङ्बा का अर्थ है खींचना। अर्थात रथ को
खींचकर यात्रा के रूप में निकलना। मणिपुर में सबसे पहले रथयात्रा की परंपरा सन् 1746 ई.-1747 ई. में शुरू हुई। शुरुआती दौर में भगवान जगन्नाथ की मूर्ति बनी
नहीं थी। हरसाल बिना मूर्ति के ही रथयात्रा का त्योहार छियासी वर्ष तक मनाते रहे। यह
ध्यान देने योग्य है कि राजा गंभीर सिंह के राज्यकाल (1825 ई.-1834 ई.) में रथयात्रा सामान्य तरीके से हुआ। उनके समय में ही भगवान जगन्नाथ
की मूर्ति का निर्माण कराया गया। सन् 1832 में पुरी से पधारे एक ब्राह्मण पंडित ने भगवान जगन्नाथ की मूर्ति बनाई। इस मूर्ति
को बनाने के लिए मणिपुर के हैपोक नामक स्थान से एक विशाल आम के पेड़ को कटवाया गया।
उनके द्वारा बनाई गई भगवान जगन्नाथ की मूर्ति आज भी सुरक्षित है। सन् 1846-1847 की रथयात्रा के दौरान एक दुर्घटना घटी। रथयात्रा के शुरू होते
ही भगवान जगन्नाथ की मूर्ति का एक हाथ टूटा और साथ ही रथ के पहियों में आग सुलगने लगी।
इसके बाद पुनः इन सबकी मरम्मत की गई।
मणिपुर में आज भी रथयात्रा
का त्योहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। सबसे विशाल रथ की यात्रा इंफाल में स्थित
श्रीश्री गोविंद मंदिर से निकलती है और राज्य के कोने-कोने में स्थित ब्राह्मणों के मंदिरों तथा इंफाल के सङाइपोरौ
नामक स्थान में स्थित इंटरनेश्नल सोसाइटी फोर कृष्ण कोन्शियसनेस के मंदिर से भी रथयात्रा
निकलती है। लेकिन यह यात्रा श्रीश्रीगोविंद मंदिर में स्थित रथ की यात्रा निकलने के
कुछ समय बाद ही शुरू होती है। रथयात्रा का त्योहार इङेन महीने (जून-जुलाई) के दूसरे दिन से शुरू होता है और दस दिन तक मनाया जाता है। लेकिन
रथ की यात्रा केवल पहले और अंतिम दिन को ही होती है।रथ यात्रा के दौरान रथ में लकड़ी
की बनी भगवान जगन्नाथ, उनका
भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की मूर्तियों को सजाकर रखे जाते हैं और पूजा-पाठ के बाद अनेक भक्त रथ को खींच कर ले जाते हैं। मणिपुर में
प्रचलित रथयात्रा की यह परंपरा रही है कि रथ में विराजमान मूर्तियों के दोनों बगल में
दो लड़कियाँ अवश्य रहती हैं और सेवा भाव को प्रकट करती हुई मूर्तियों को चामर से
सेवा करती हैं। श्रीश्रीगोविंद मंदिर से निकलने वाले रथ की उँचाई लगभग बीस फीट है।
इस रथ को अनेक भक्त मंदिर से सनथोङ् (राजमहल
का मुख्यद्वार) तक
खींचकर जाते हैं और पुनः उसी रास्ते से वापस लाते हैं। रथ -यात्रा के दौरान अनेक
गीतकार पुङ् (एक
प्रकार का मृदंग), मंजिरा, मोइबुङ् (शंख) इत्यादि यंत्रों के साथ गीत गाते चलते हैं । जहाँ-जहाँ रथ रूकता है वहाँ अनेक भक्त फल, फूल, मिठाई
आदि रथ में विराजमान भगवान जगन्नाथ, बलभद्र
और सुभद्रा को चढ़ाते हैं और आरती उतारते हैं। इसके बाद रथ की देखभाल कर रहे ब्राह्मण
पंडित चढ़ाए गए फलों को प्रसाद के रूप में सबको बांटता है। भक्तों के बीच यह विश्वास
रहता है कि रथ के रस्सी को एक बार पकड़ लिया तो तमाम मन्नतें पूरी हो जाती हैं।
इङेन महीने (जून-जुलाई) के दूसरे दिन से शुरू होकर नौ दिनों तक प्रति दिन शाम के
समय भगवान की आराधना के लिए कीर्तन होता है, खुबाकइसै (तालियों
के धुन में गीत गाना) होता
है। इसी तरह अनेक पूजा-अनुष्ठान के बाद
सभी भक्त एक साथ खिचड़ी का सेवन करते हैं। मणिपुर में अनेक भक्तों के बीच यह मान्यता
प्रचलित है कि एक बार भगवान जगन्नाथ ने अपनी बहन सुभद्रा को खाना बनाने का आदेश दिया
और कहीं चले गए। लेकिन सुभद्रा खाना बनाना भूल गई। जब उसका भाई वापस आया तो अचानक याद
आया। समय का अभाव और अपने भाई के डर से उन्होंने चावल, सब्जी, दाल
सब एक साथ ही पका लिया। इसी तरह वह आहार खिचड़ी बन गया। इसी तरह आज भी मणिपुर में रथयात्रा
की शाम को खिचड़ी पका कर सबको खिलाने का प्रचलन है।
इङेन महीने (जून-जुलाई) के बारह वाँ दिन हरी शयन होता है, अर्थात भगवान जगन्नाथ के शयन का दिन। इसी दिन परंपरागत रूप से
चली आ रही निश्चित पूजा-पाठ के बाद साल
के रथ यात्रा त्योहार का समापन हो जाता है।
मणिपुर में प्रचलित रथयात्रा का त्योहार वैष्णव धर्म से संबंधित अवश्य है, फिर भी इस त्योहार में सभी धर्मों के लोग शामिल होते हैं। सिर्फ हिंदू धर्म से संबंधित त्योहारों में ही नहीं, बल्कि मुस्लिम, ईसाई, सनामही (मणिपुर का मुख्य और प्राचीन धर्म) जैसे अनेक धर्मों से संबंधित त्योहारों में भी मणिपुर के सभी लोग शामिल होते हैं। यह कहना उचित होगा कि मणिपुर में निवास करने वाले सभी लोग धर्म के संकुचित दायरे में नहीं पड़ते। मणिपुर में अनेकता में एकता अवश्य देखने को मिलती है।
सहायक पुस्तकें–
1.लाइरेन्मयुमइबुङोहलसिंहएवंनिङ्थौखोङ्जमखेलचंद्रसिंह (संपादक), चैथारोलकुम्बाबा (The Royal Chronicle of
Manipur), मणिपुरीसाहित्यपरिषद, इंफाल, प्रथमसंस्करण- 1967 ई.
2.लाइश्रमजयचंद्रसिंह, श्रीश्रीगोविंदअमसुङ्मणिपुर, मणिपुररामाकृष्णसोसाइटी, इंफाल, प्रथमसंस्करण- 1993 ई.
3. कोङ्ब्राइलातपमश्रीरजनीकांतशर्मा, रथयात्रा (काङ्चिङ्बा), तोक्ङाप्रिंटिंगप्रेस, इंफाल, दूसरासंस्करण- 2006 ई.

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