मणिपुरी लोककथा में सामाजिक परिदृश्य :डॉ. वाइखोम चींखैङानबा
मणिपुरी में लोककथा को फुङ्गावारी कहते हैं। फुङ्गावारी दो शब्दों के मेल से बना है। फुङ्गा का अर्थ है अलाव और वारी का अर्थ है कथा। प्राचीन काल में दादा-दादी या बुजुर्गों द्वारा बच्चों को अलाव तापते समय कथा सुनाने की परंपरा थी। इस तरह की कथा को मणिपुर में फुङ्गावारी की संज्ञा दी गई। मणिपुरी लोककथा का आकार अक्सर छोटा होता है। आकार छोटा होने पर भी लोककथाएँ गागर में सागर की भाँति महती भूमिका निभाती हैं।मनोरंजन के साथ-साथ लोककथाएँ बच्चों के मनोबल को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाती हैं।यह ध्यान देने योग्य है कि प्राचीन मणिपुरी समाज में जब शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करने की औपचारिक पद्धति नहीं थी, तब लोककथाओं की मदद से बच्चों को नैतिकता, जीवन मूल्य, मानव मूल्य इत्यादि से अवगत कराया जाता था,लेकिन आज लोककथा कहने और सुनने की प्रथा खत्म हो रही है, फिर भी इसके महत्त्व और विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए कई लोग लोककथाओं का संकलन करके पुस्तक के रूप में सुरक्षित रखने का प्रयत्न कर रहे हैं ।
साहित्य समाज का दर्पण होता
है, यह कथन केवल शिष्ट साहित्य के लिए नहीं बल्कि
लोक साहित्य के लिए भी सिद्ध होता है। अगर हम किसी समाज विशेष की लोककथाओं को ध्यान
से देखें, तो हम उस समाज के रीति-रिवाज, खान-पान, सोच-विचार और रहन-सहन आदि बातों से परिचित हो सकते हैं । इस
संदर्भ में देवराज लिखते हैं- “लोककथाओं ने समाज-विशेष की सांस्कृतिक, परंपरओं और काल-क्रम में निर्मित जीवन मूल्यों को सुरक्षित रखने
तथा इस थाती को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अक्षुण्ण रूप में पहुँचाने का महान
कार्य भी किया। जिन समाजों का सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास
परंपरागत इतिहास ग्रंथों में नहीं है, उनका इतिहास जानने के लिए लोककथाओं का माध्यम अपनाने की आवश्यकता है।”1 कहना यह है कि लोककथाओं में काल-विशेष और समाज-विशेष के छोटे-छोटे लेकिन विशिष्ट तथ्य देखने को मिलते हैं ।
मणिपुर में अनेक जाति और जनजातियाँ निवास करती हैं। यहाँ की प्रमुख जाति मैतै या मीतै है। कबुई, ताङखुल, माओ, पाइते, मरिङ्, अनाल, आइमोल, मार, थादौ, कोम (उल्लेखनीय है कि मेरी कोम इसी जनजाति से है), चीरू,थाङ्गाल आदि मणिपुर की जनजातियाँ हैं। कई लोककथाओं में चीङमी (पहाड़ी) और तम्मी (मैदानी) को एक ही माँ की संतानें बताई जाती है। पहाड़ी बड़ा भाई है और मैदानी छोटा भाई । बड़े भाई में ताकत ज्यादा थी इसलिए पहाड़ों पर चला गया और छोटे भाई में ताकत कम थी इसलिए मैदान में ही रहने लगा। आज भी मणिपुर में मेरा हौ चोङ्बा नामक एक त्योहार मनाया जाता है, इसमें पहाड़ी और मैदानी के बीच के संबंध को याद किया जाता है। चीङ्मी-तम्मी एक है, एक ही माँ की संतानें हैं, इस भावना को उजागर करने का प्रयास होता है। इस दिन शाम के समय मैतै जाति के घरों के आँगन में एक लम्बी बाँस के सिरे पर दीप जलाकर खड़ा किया जाता था। आज-कल दीप के स्थान पर लालटेन लटकाया जाता है। इस कृत के पीछे यह लोक विश्वास है कि दोनों भाई जब एक-दूसरे से बिछुड़ रहे थे उस समय बड़े भाई ने अपने छोटे भाई की सलामती जानने के लिए यह तय किया था कि मेरा महीना, जो कि मणिपुरी वर्ष का सातवाँ महिना है, आने पर मैदान में रहने वाला भाई दीपशिखा के माध्यम से अपनी सलामती का संदेश देगा। पहाड़ से उस रोशनी को देख वह महसूस करें कि उसका छोटा भाई सही सलामत है, दीप शिखा जलाया जाता है। इस त्योहार की अंदरूनी भावना बहुत मार्मिक और एकता को प्रोत्साहन देने वाला है ।
अविदित नहीं है कि लोककथाओं में अक्सर काल्पनिक तत्व पाए जाते हैं। सही-गलत और तर्क-वितर्क से लोककथा बिल्कुल स्वतंत्र है। सदियों से लोककथा कहने की परंपरा चली आ रही हैं और इसके भिन्न-भिन्न रूप देखने को मिलता है। स्थान भेद के साथ कथा वाचक अपनी मर्जी से लोककथाओं को अपनी शैली में सुनाता है। लेकिन इसमें निहित मूल तत्व समान होता है। भले ही लोककथा में अवास्तविक प्रसंग देखने को मिल जाए, इसको सुनाने वाले अपनी पर्तिभा से श्रोताओं को प्रसंगानुसार रुलाते हैं, हँसाते हैं, दुखी करते हैं और गुस्सा भी दिलाते हैं। यह लोककथा की विशेषता है। इसके संदर्भ में बी. जयंतकुमार शर्मा कहते हैं- “लोककथा मन से बनाई गई कथा है, इसमें सही-गलत ढूँढने की आवश्यकता नहीं है । यह तो एक अलग तरह की कला है । संगीत, नाटक, नृत्य जैसी प्रभावशाली कलाओं से यह कम नहीं है । इसमें भी मन को लुभाने की शक्ति विद्यमान है । इस वजह से सदियों से तपता, शंद्रेम्बी-चाइश्रा, बूढ़ा-बूढ़ी द्वारा अरबी लगाना, चालाक लोमड़ी, कैबु कैओइबा जैसी लोककथाएँ आज भी प्रचलित हैं ।”2 इसका तात्पर्य यह है कि लोककथाओं के विशिष्ट गुणों के कारण ही समाज में आज भी लोककथाएँ प्रचलित हैं, लोग इसे बहुत पसंद करते हैं ।
मणिपुर में अनेक प्रकार की
लोककथाएँ प्रचलित हैं । अध्ययन की सुविधा के लिए लोककथा विशेषज्ञों ने इसको छह
प्रकारों में विभाजित किया हैः-
पशु पक्षियों की लोककथा ।
मंत्र-तंत्र की लोककथा ।
आमोद-प्रमोद की लोककथा ।
झूठ-मक्कारी की लोककथा ।
ज्ञान संबंधी लोककथा और
संचयी लोककथा (क्यूमूलेटिव) ।
इस तरह हम देख सकते हैं कि इन सभी प्रकार की लोककथाओं में कहीं न कहीं मणिपुरी समाज की सांस्कृतिक, सामाजिक परिदृश्य विद्यमान रहता है।
मणिपुर में अनेक आमोद-प्रमोद की लोककथाएँ प्रचलित हैं। उदाहरण के लिए तपता, मूर्ख दामाद, एक नाव में तीन दोस्त, बूढ़ा-बूढ़ी द्वारा अरबी लगाना, संयासी बिलाऊ और पेबेत (एक पक्षी की प्रजाति) इत्यादि लोककथाओं का उल्लेख किया जा सकता है । ये लोककथाएँ मनोरंजन के लिए सुनाई जाती हैं । इससे हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि मणिपुरी समाज के लोग आमोद-प्रमोद और मनोरंजन को पसंद करते हैं । आज मणिपुर में अनेक प्रकार के त्योहार मनाए जाते हैं ।
मणिपुरी समाज में सामूहिक
एकता बहुत मायने रखती है । मुहल्ले के किसी भी घर में आपात की स्थिति आने पर सब उस
घर में आकर मदद करते हैं। उसके दुख में शामिल होते हैं । इस तरह सामूहिक कार्यों
में हर किसी को भाग लेना अनिवार्य होता है। इस प्रसंग में सहेली ढिबरी, नोङ्गौबी जैसी लोककथाओं को देख सकते हैं। सहेली
ढिबरी लोककथा में एक बुढ़िया रात भर चरखा चलाती है, उसके घर में एक चोर घुसकर ढिबरी के पीछे छूप
जाता है। बुढ़िया डर कर ढिबरी को सहेली के रूप में आवाज देती हुई वह कथा सुनाती है।
कथा सुनाते हुए बुढ़िया जोर-जोर से चिल्लाती है - मुहल्ले वालो, चोर... चोर... तब मुहल्ले के सभी लोग आ जाते हैं और चोर को
पकड़ते हैं। इससे हमें ज्ञात होता है कि तत्कालीन मणिपुरी समाज में किसी के भी घर
में संकट आने पर सामूहिक रूप से मदद करते थे। आज भी मणिपुर में बिजली के खंभे में
पत्थर से घंटी बजाने का प्रचलन है। जब भी लोग इसकी आवाज सुनते हैं तो समझ जाते हैं
कि मुहल्ले में कुछ हुआ है, और लोग तुरंत अपने घरों से निकल आते हैं।नोङ्गौबी भी इस तरह की ही लोककथा है
जो सामूहिकता की भावना और एकता पर बल देती है। इस लोककथा में भगवान सहित मनुष्य, पशु-पक्षी सब मिलकर
तालाब की खुदाई करते हैं लेकिन नोङ्गौबी (पक्षी की एक प्रजाति) नहीं आयी। शेर, बाघ, घोड़ा, हाथी, बैल से लेकर चुहा, कबूतर, तोता सबके सब आ गए। नोङ्गौबी को सबने बार-बार आवाज दी मगर वह कहती रही- बच्चे रो रहे हैं, बच्चे को खाना खिला रही हूँ, मैं व्यस्त हूँ । इस वजह से भगवान ने नोङ्गौबी
को शाप दिया कि यदि वह नदी और तालाब से जल पीती है, तो उसके पीछे का भाग भस्म हो जाए। आज भी यह लोक विश्वास
प्रचलित है कि नोङ्गौबी नदी और तालाब से पानी कभी नहीं पीती हैं। इस लोककथा का
संदेश यह है कि हमें सामूहिक कार्यों में अनिवार्य रूप से भाग लेना चाहिए ।
मणिपुरी लोककथाओं में सौतेली माँ का अत्याचार
पहली पत्नी की संतानों को ही सहना पड़ता है। लोककथाओं के लिए तो यह
रूढ़ी ही बन गई है कि सौतेली माँ है तो बेटी को कष्ट देगी ही, उससे ढेर सारा काम करवाएगी। इस सेंदर्भ में
शंद्रेम्बी-चाइश्रा और लाङ्मैदोन पक्षी की कथाएँ उल्लेखनीय है।
शंद्रेम्बी-चाइश्रा लोककथा में शंद्रेम्बी अपनी सौतेली बहन
चाइश्रा से बहुत प्यार करती है। लकिन चाइश्रा की माँ शंद्रेम्बी को बहुत कष्ट देती
है। एक दिन राजा शंद्रेम्बी को देख लेता है, तबसे राजा को उससे प्यार हो जाता है। इसके बाद दोनों की शादी हो जाती है। शादी
के बाद ससुराल चली जाने पर भी चाइश्रा और उसकी माँ शंद्रेम्बी को कष्ट देने की ही
सोचती रहती हैं। एक दिन शंद्रेम्बी को मायके में बुलाकर गरम खौलता पानी उढेलकर मार
डालती है, लेकिन उसकी आत्मा कबूतर बनकर उड़ जाती है। इधर
चाइश्रा शंद्रेम्बी के वस्त्र और गहने पहन राजा के पास शंद्रेम्बी बनकर चली जाती
है । एक दिन घास काटने वाले आदमी से, जो राजा का सेवक भी है, एक फ़ाखता पक्षी मिलता है, वह कहता है-
इचा निङ्थौ शिगनी
“हा निङ्थौ तूकाओबा
फीगे ईयोङ् तत्कनी
नबुङो निङ्थौदा तम्जरु
नङ्ना अदुम तम्द्रबा
शगोल शमु शिहनगे
कुक्रु कु कु खाङ्मैतत्।”3
(भावार्थ- राजा तुम पत्नी को भूल गए हो । हमारा पुत्र संकट में है । मैंने जो कपड़े बुनने का काम किया था, अब उसके धागे टूटेंगे । हा पाङल चारा काटने वाले, तुम इस संदेश को राजा तक पहुँचाओ । अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो हाथी-घोड़ा मरवा दूँगी ।)
राजा तक इस संदेश के पहुँचने पर राजा खुद उस जंगल में आकर फ़ाखता से कहता है-
“चेक्ला चादी नुङ्शिबी
लम्खुनु ओ चेक्नुङ्शि
इसानौगी थवायना ओनबा चेक्
चेक्ला नङ्ना लाक्लबदी
नसानौ ऐगी खुबाम्दा
चेक्ला नङ्बु तोङ्लोराव
से-से नबुक् थन्ना चारोलाव् ।”4
(भावार्थ- नादान चिड़िया । फ़ाखता प्यारी । अगर तुम मेरी रानी की आत्मा हो तो आओ, मेरी हथेली पर बैठकर ये अन्न खाओ ।)
यह ध्यान देने योग्य है कि इस लोककथा के अनेक
प्रसंगों में काव्यात्मक ढंग से गेय पद्धति में अनेक बातें कही गई हैं । इससे यह
बात स्पष्ट हो जाता है कि मणिपुरी समाज में सदियों से काव्य का प्रचलन था ।
लाङ्मैदोन पक्षी लोककथा भी एक ऐसी लोककथा है जिसमें सौतेली माँ के अत्याचार से दम
तोड़केर नोङ्दोन्नू नामक लड़की लाङ्मैदोन पक्षियों के झुंड में शामिल होकर चली
जाती है । यह अत्यंत मार्मिक लोककथा है । जब पिता को पता चलता है और वह उसे वापस
बुलाता है तब नोङ्दोन्नू कहती है- “पिताजी, क्षमा कीजिए । मैं यहाँ आपके वापस आने का इंतजार कर रही थी । आप जो कुछ मेरे
लिए लाए हैं वो सब माँ को दे दीजिए। अब मुझे सुंदर कपड़े और आभूषण की आवश्यकता नहीं
है । अब मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं यहाँ से उड़ जाऊँ ।”5 यहाँ पर पक्षी बनकर खुले आसमान में उड़ जाना
इसका संकेत है कि हर कोई असहयीय दुखों को पार करके एक न एक दिन स्वतंत्र होने की
कामना करता है ।
थादौ जनजाति में प्रचलित
रागात्मक संबंधों को उजागर करने वाली लोककथाओं में जोनल्हिंग-नंगल्हुन का मुख्य रूप में उल्लेख कर सकते हैं ।
यह प्रेम के प्रति पूर्ण समर्पण और कुर्बानी की लोककथा है । लोककथा का एक प्रसंग
आज के यथार्थ को दिखाता है कि गरीब होना कितना कष्टदायक होता है । लोककथा की कुछ
पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं- “नंगल्हुन बचपन से जोनल्हिंग को चाहता था । उसकी नजर सदा उस पर टिकी रहती थी ।
परंतु गरीब घराने का बेटा होने के कारण बहुत चाहकर भी उसके करीब जाकर उससे बातें
करने से डरता था।”6 लेकिन नंगल्हुन का प्यार सच्चा था इसलिए बहुत मार्मिक ढंग से दोनों की एक साथ
मृत्यु हो जाती है ।
मणिपुरी लोककथाओं में हँसी-मजाक से संबंधित लोककथाओं की संख्या भी अनगिनत
है । प्रमुख रूप से मूर्ख दामाद, सीधा चलने वाला मूर्ख, तपता, बूढ़ा-बूढ़ी द्वारा अरबी
लगाना, उड़ने वाली हाथी, एक नाव में तीन साथी आदि उल्लेखनीय है। भले ही
ये लोककथाएँ हँसी-मजाक और मनोरंजन के लिए हों, लेकिन इसमें बहुत सारी काम की बातें जैसे; समाज की मान्यताएँ, लोगों के विचार देखने को मिलता है । मणिपुरी
समाज में दामाद का स्तर ऊँचा होता है । कुछ लोग इस स्तर को गिराते हैं जैसे; कोई अपनी पत्नी के घर,
घरजमाई बनकर रहता है, इसे मणिपुरी समाज में बहुत निम्न माना जाता है। इनके जैसे
लोगों को यहाँ मर्द तक नहीं मानते हैं । आज मणिपुर में यह कथन प्रचलित है- पत्नी के घर में रहने वाला आदमी मर्द नहीं होता
। इसी तरह मणिपुरी लोककथाओं में ऐसे पुषों को मूर्ख और निम्न दिखाया गया है । इनके
हरकतों से पता चलता है कि ये कितने निम्न होते हैं ।
प्रत्येक समाज के खान-पान, काम-धंधा, वेश-भूषा अलग होते हैं । मणिपुरी समाज के भी विशिष्ट
खान-पान, वेश-भूषा हैं । यहाँ प्रचलित अनेक लोककथाओं में इसकी
छाप देखने को मिलती है । बूढ़ा-बूढ़ी द्वारा अरबी लगाना, धागे का गोला खाने वाली, सहेली ढिबरी, शंद्रेम्बी-चाइश्रा जैसी लोककथाओं से मणिपुर में प्रचलित
खान-पान, वेश-भूषा, काम-धंधे के बारे में पता लगाया जा सकता है ।
शंद्रेम्बी-चाइश्रा लोककथा में शंद्रेम्बी अपने मायके आते
समय गहनें, फनेक मपान नाइबा (स्त्रियों का अधो-वस्त्र), इन्नफि (ओढ़नी) पहनकर आती है । आज भी मणिपुरी महिलाएँ ये पहनती
हैं । बूढ़ा-बूढ़ी द्वारा अरबी लगाना, धागे का गोला खाने वाली तथा सहेली ढिबरी
लोककथाओं से यह ज्ञात होता है कि तत्कालीन मणिपुरी समाज में चरखा चलाने और ऊन-सिलाई
के प्रयोग का प्रचलन था । यह भी कह सकते हैं कि श्रम को बहुत प्रधानता दी जाती थी
। इसी लिए तो सहेली ढिबरी लोककथा में आधी रात तक बुढ़िया चरखा चलाती हुई दिखाई गई
है । इतना ही नहीं बूढ़ा-बूढ़ी द्वारा अरबी लगाना
लोककथा में वृद्ध होने के बाद भी मौसमी उसलें उगाते हुए दिखाया गया हैं । इस
लोककथा में हेन्ताक (खाद्य पदार्थ), खरूङ् (बड़े आकार का घड़ा) आदि का जिक्र भी किया गया है । इससे स्पष्ट है
कि मणिपुरी समाज में इस तरह की चीजें प्रयोग में लाई जाती थी । हेन्ताक का उपयोग
करके बंदरों द्वारा खिलाए गए अखाद्य खा लेने से गले में उठने वाली सुरसुरी का
उपचार करना इसका प्रमाण है कि मणिपुरी समाज को औषध के रूप में सेवन किए जाने वाले
पदर्थों का ज्ञान था। बंदरों को सबक सिखाने के लिए बूढ़ा मरने का नाटक करता है, तब बुढ़िया इस तरह रोती है- अरबी खाके मर गए, कद्दू खाके वापस आओ... इससे यह पता चलता है कि मणिपुर में कद्दू को
बहुत उपयोगी सब्जी के रूप में खाते हैं । आज भी किसी सामुहिक भोज में उबाले हुए
कद्दू का एक टुकड़ा अवश्य दिया जाता है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि लोककथाओं से
समाज में प्रचलित खान-पान, वेश-भूषा, रीति-रिवाज इत्यादि की
जानकारी मिल सकती है ।
प्राचीन काल में सामान्यतः
लोग बहुत सीधे-सरल होते थे, लोगों का मन बहुत साफ हुआ करता था। हो सकता है, ज्यादातर लोगों का मन साफ हों, लेकिन बुराई तो हर समय विद्यमान रहती है । चोरी, डकैती, मक्कारी आदि का वर्णन लोककथाओं में देखा जा सकता है । बुद्धिमान चोर, सहेली ढिबरी, न्याय करने वाली कैची, बुद्धिमान और मूर्ख चोर इत्यादि लोककथाओं में
चोरी के अनेक प्रसंग आते हैं । भले ही यहाँ पर बताए गए चोरी करने के तरीके में
सीधेपन तथा हँसी-मजाक जैसी हरकतें मिलती हों, बात तो चोरी की ही है । ये लोककथाएँ हमें सीख
देती हैं कि समाज में ऐसे कई लोग हैं, जो मेहनत करना नहीं चाहते हैं । बुद्धिमान चोर लोककथा के जरिए हम यह कह सकते
हैं कि मानव समाज में ईमानदार व्यक्ति ढूँढना बहुत मुश्किल होता है । इस लोककथा
में चोर को फाँसी की सजा सुनाई जाती है, लेकिन चोर इतना बुद्धिमान है कि वह राजा से कहता है- “आपके पास जितना सोना है सब
जमीन में गाड़कर ढक दीजिए, उसी से सोने का पौधा उगेगा । लेकिन उसे उगाने वाला ऐसा व्यक्ति होना चाहिए
जिसने जीवन में कभी भी किसी भी चीज की चोरी नहीं की हो ।”7राजा ने ऐसे व्यक्ति को ढूँढवाया, लेकिन नहीं मिला । राजा स्वंय भी कहने लगा कि वह
राजकोष से सोना चुराता है। इस वजह से चोर को माफ कर देने का फैसला लिया जाता है ।
भले ही यह लोककथा काल्पनिक हो, इसमें छुपी मूल बातें आज के संदर्भ में बहुत प्रासंगिक हैं। यह एक बड़े विज़न
की लोककथा है । आज हमारे देश में छोटे से छोटे कर्मचारी से लेकर बड़े-बड़े अधिकारी
तक, आम आदमी से लेकर नेता तक, सब मौका मिलने पर चोरी से बाज़ नहीं आते। इस बात
को यह लोककथा भली भाँति दिखाती है ।
दुनियाँ में राक्षस और राक्षसी से संबंधित अनेक
लोककथाएँ प्रचलित हैं । तिङ्कम-लाइकम, राक्षसी की बेटी, बदला, दो दोस्त आदि राक्षस और राक्षसी से संबंधित मणिपुरी लोककथाएँ हैं । इस तरह की
लोककथाओं में राक्षस या राक्षसी की जान किसी तोते में या किसी वस्तु में होती है ।
इतना ही नहीं शरीर के विभिन्न अंगों के अलग-अलग वस्तुओं में
सुरक्षित रहने की लोककथा हमने सुनी है जैसे, घड़े और धनुष-बाण को नष्ट करने पर राक्षस के सिर और कमर का
भस्म होना । इसमें तिलस्म और ऐयारी अक्सर देखने को मिलता है। भले ही ये लोककथाएँ
मनोरंजन के लिए, बच्चों को सुनाने के लिए हों, लेकिन यह विचारणीय है कि प्राचीन समाज में वाकई
ऐसे इन्सान रहे हों, जो राक्षस की तरह खूँखार
होते थे और आम मनुष्य को बहुत कष्ट देते थे । इस प्रसंग में बी. जयंतकुमार शर्मा कहते हैं- “मणिपुर में अनेक राक्षस और
राक्षसी की लोककथाएँ प्रचलित हैं । राक्षसों द्वारा गाँव को नष्ट करना, सबको मार डालना और गाँव ही लुप्त हो जाना अक्सर
सुना जाता हैं । इसमें हम विचार कर सकते हैं कि असल में राक्षस रहे हो या बाहरी
आक्रमणों के कारण गाँव अस्त-व्यस्त होते रहे हो
। यह भी हो सकता है कि जल-वायु के खराब होने
से या महामारी से गाँव के सभी लोग मर गए हो ।”8
मणिपुर में प्रचलित गुड़िया
से संबंधित लोककथाओं में गुड़िया, गुड़िया का वरदान उल्लेखनीय है । इस तरह की लोककथाओं में बचपन से गुड़िया को
सहेली के रूप में प्यार करने वाली लड़की की शादी होने वाली होती है । लड़की के
सपने में गुड़िया रोती हुई आती है और वह उसे केले के पेड़ के पास दफनाने के लिए
कहती है । दूसरी लोककथाओं में गुड़िया लड़की को वरदान देती है कि वह पशु पक्षियों
की भाषा समझ सके । इस तरह बड़े दुख के साथ लड़की गुड़िया को छोड़कर चली जाती है ।
यह जीवन की सच्चाई है कि एक न एक दिन लड़की को शादी के बाद माँ-बाप, भाई-बहन, रिश्ते-नाते सबको छोड़कर जाना पड़ता है । जब विदाई का
क्षण आता है, तब वह माँ-बाप, भाई-बहन के अलावा घर के सभी निर्जीव वस्तु से भी लगाव
महसूस करती है । इस भावना को इन लोककथाओं में गुड़िया का सहारा लेकर व्यक्त किया
है । यहाँ पर गुड़िया एक प्रतीक है । वह निर्जीव होके भी बात करती है, लड़की के साथ गहरा संबंध स्थापित करती है । गुड़िया
लोककथा में लड़की के सपने में गुड़िया कहती है- “तम्फा, तुम्हारी शादी होने वाली है लेकिन मैं तो साथ
नहीं आ सकती ।तुमने मुझे इतना प्यार दिया, मैं बहुत खुश हूँ । मैं तुझे पशु-पक्षियों की भाषा
समझ पाने की शक्ति वरदान स्वरूप दे रही हूँ । जाने से पहले तुम मुझे केले के पेड़
के पास दफना देना ।”9 आज भी मणिपुर में जो लड़कियाँ गुड़िया से बहुत लगाव रखती है, वह इन लोककथाओं में कही गई बातों से विश्वास
करती हैं । भले ही लोककथाओं में बताई गई बातें अवैज्ञानिक हों, उसे अंधविश्वास कहें, मगर जो छाप दिल में लग जाती है, उसे बदलना अक्सर मुश्किल होता है ।
व्यक्ति के पास ज्ञान हो, कौशल हो तो जीवन की गति को पकड़ते हुए सफलता को
प्राप्त कर सकता है । जीवन के अनेक उतार-चढ़ावों का सामना
आसानी से कर सकता है । जीवन को सही मायने में जीने के लिए समाज में रहकर व्यक्ति
औपचारिक ज्ञान अर्जन कर रहा है । ज्ञान-अर्जन की औपचारिक
पद्धति से पहले लोग अनौपचारिक रूप से भी ज्ञान हासिल करते थे । प्राचीन काल में
बच्चों को लोककथा सुनाकर भी उनका मनोबल विकसित किया जाता था । तीन शिक्षाएँ, गाय चराने वाला बालक, बुद्धिमान चोर, चंद्रकङ्नान्, सहेली ढिबरी, राजा और मंत्री के पुत्र आदि ऐसी मणिपुरी
लोककथाएँ हैं जो बच्चों को शिक्षा देती हैं । पंचतत्र में भी पहले कथा को सुनाने
के बाद अंत में मूल बात को शिक्षा के रूप में बताते हैं । इसी तरह इन लोककथाओं को
बच्चे मनोरम होकेर सुनने के बाद मूल तत्व को ग्रहन करते हैं जो जीवन में बहुत काम
आता है । तीन शिक्षाएँ लोककथा में गुरु अपने शिष्य से कहता है- “शिष्य, पहली शिक्षा यह है कि घी बहुत सारवान वस्तु है ।
दूसरी शिक्षा यह है कि राजा को रात में नहीं सोना चाहिए और तीसरी शिक्षा यह है कि
स्त्री उच्छृंखल हो जाए तो उसे दंड देना चाहिए ।”10 इस लोककथा के अंत में भी ये शिक्षाएँ उपयोगी
सिद्ध होती है । इतना ही नहीं, अनेक लोककथाओं में झूठ बोलने और मक्कारी का अंत क्या होता है, यह दिखया गया है । गाय चराने वाला बालक लोककथा
में बालक बाघ के आने का बार-बार नाटक करता है, और सबका मजाक उड़ाता है । लेकिन जब असल में बाघ
आता है तो उसकी पुकार को ढोंग समझकर कोई उसे बचाने नहीं आता है । इस तरह की साधारण, मगर महत्वपूर्ण प्रसंगों से बच्चे को सीख मिलती
है कि झूठ बोलने का नतीजा क्या होता है। इस लोककथा को आधार बनाकर आज मणिपुर में जब
कोई झूठ बोलता है तो कहते है- ‘गाय चराने वाला बालक, बाघ तुम्हे खा जाएगा।’
कोम जनजाति में प्रचलित याइलुङ् का सद्व्यवहार
नामक लोककथा भी हमें यह सीख देती है कि कोई सबसे सद्व्यवहार करें तो बुरे-से बुरा व्यक्ति का दिल भी जीत लेता है । इस
लोककथा में यह दिखाया गया है कि लोग खोङ्जाई राजा से बहुत डरते है कि अगर उन्होंने
किसी को पकड़ लिया तो उसे मार दिया जाएगा, लेकिन याइलुङ् नामक लड़की के सद्व्यवहार
को देखकर राजा उसे और उसके भाई को सही सलामत छोड़ देता है।इस तरह हम कह सकते हैं
कि मणिपुरी लोककथाओं में शिक्षा के रूप में ग्रहण करने लायक अनेक तत्व विद्यमान
हैं ।
सदियों से मणिपुरी लोककथाएँ चली आ रही हैं । ये कब से चली आ रही हैं, इसका कोई निश्चित समय नहीं बताया जा सकता, तब भी यह कहा जा सकता है कि मणिपुरी लोककथा और मणिपुरी समाज का अटूट संबंध है । सामाजिक परिदृश्य को प्रस्तुत करने में लोककथाएँ महती भूमिका निभाती हैं । ये लोककथाएँ मणिपुरी समाज की अतुल्य संपत्ति है।मणिपुरी समाज की आशाएँ-आकांक्षाएँ, सुख-दुख इन लोककथाओं में विन्यस्त हैं । मणिपुर की सामासिक संस्कृति की झलक भी इन लोककथाओं में देखने को मिलती है । दूसरे के सुख-दुख में यह समाज हमेशा सहभागी रहता है, ऐसा इन लोककथाओं से पता चलता है । मणिपुरी लोककथाओं के संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि जहाँ एक तरफ ये लोककथाएँ हमारे हृदय का विस्तार करती हैं वहीं दूसरी ओर अनेक स्थल पर हमें बौद्धिक भी बनाती हैं ।
संदर्भ संकेतः-
देवराज, मणिपुरी लोककथा संसार, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, प्रथम संस्कण- 1999 ई. पृष्ठ X (भूमिका से)
बी. जयंतकुमार शर्मा (सं), फुङ्गावारी शिङ्बुल, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, संस्करण- 2013 ई. पृष्ठ क (भूमिका से)
वही, पृष्ठ 39
वही, पृष्ठ 40
प्रो. अरूण चतुर्वेदी (प्रधान सं), प्रो. हजारीमयुम सुवदनी देवी(सं), मणिपुरी लोकसाहित्य, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा, प्रथम संस्करण- 2012 ई. पृष्ठ 63
डॉ. ल्हिंगनैलम हाओकिप, थादौ की लोककथा, जीतनाईन एनटर्प्राइजेस, इंफाल, प्रथम संस्करण- 2005 ई. पृष्ठ 73
प्रो. अरूण चतुर्वेदी (प्रधान सं),प्रो. हजारीमयुम सुवदनी देवी (सं), मणिपुरी लोकसाहित्य, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा, प्रथम संस्करण- 2012 ई. पृष्ठ 4
बी. जयंतकुमार शर्मा (सं), फुङ्गावारी शिङ्बुल, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, संस्करण- 2013 ई. पृष्ठ ठ (भूमिका से)
क्षेत्रिमयुम सुवदनी (सं), भारत की फुङ्गावारी खरा, लिन्थोइङम्बी पब्लिकेशन, इंफाल, प्रथम संस्करण- 2006 ई. पृष्ठ 52
देवराज, मणिपुरी लोककथा संसार, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, प्रथम संस्कण- 1999 ई. पृष्ठ 19
डॉ. वाइखोम चींखैङानबा
टी.जी.टी (हिंदी) राष्ट्रीय खेल एकादमी
खुमन लम्पाक, इंफाल – 795001
मोबाइल – 9615155725
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