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‘नई सुबह’ कहानी संग्रह : पूर्वोत्तर भारत की स्त्री संवेदना का प्रतिबिंब

भारत का पूर्वोत्तर प्रांत विविध जाति- जनजाति एवं भाषाओं कक्रीड़ास्थल है। यहाँ के आठों राज्यों में मौखिक तथा लिखित साहित्य की समृद्ध परंपरा विद्यमान है। असम राज्य विभिन्न जाति-समुदायों का निवास-स्थल होने के कारण यह सांस्कृतिक विविधता का केंद्र भी है। यहाँ प्रचलित कुछ भाषाएँ मौखिक एवं लिखित-दोनों रूपों में तथा कुछ मौखिक ज्ञान-परंपरा से समृद्ध है। असम में हिंदी भाषा और साहित्य संबंधी गतिविधियाँ व्यापक रूप में देखने को मिलती हैं। यहाँ विद्यालय, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालयों में हिंदी विषय के अध्ययन-अध्यापन की सुदृढ़ व्यवस्था है। हिंदी में प्रकाशित विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ एवं समाचारपत्र, असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, केंद्रीय हिंदी संस्थान की शाखा, पूर्वोत्तर हिंदी साहित्य अकादमी जैसी संस्थाएँ हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रचार-प्रसार और विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। असम में आज अनेक सृजनशील लेखक एवं शोधकर्ता हिंदी साहित्य के विकास में सक्रिय हैं, जिनमें रीता सिंह सर्जना का नाम आदर के साथ लिया जाता है।

बीज शब्द : पूर्वोत्तर भारत, नई सुबह, सुलह, पितृसत्ता, अलविदा, मँगरू, घटनाक्रम, भंटी, थर्ड             जेंडर, दंगा, स्त्री-जीवन

रीता सिंह सर्जना का परिचय :  

रीता सिंह सर्जनातेजपुर, असम की निवासी हैं। वे असम सरकार अधिनिस्थ वन विभाग  की कर्मचारी हैं। निजी एवं कार्यालयी जीवन की जिम्मेदारियों के अतिरिक्त वे साहित्य सेवा में सक्रिय हैं। उन्होंने पूर्वोत्तर हिंदी साहित्य अकादमी की स्थापना करके कई नवोदित रचनाकारों को हिंदी भाषा-साहित्य के प्रति प्रेरित किया। उन्होंने कई पुस्तकों एवं पत्रिकाओं का संपादन किया है। कविता, कहानी एवं लघुकथा के क्षेत्र में उन्होंने अपनी पहचान बनाई है। उनकी प्रशस्त कहानियाँ, लघुकथाएँ, कविताएँ एवं लेख विभिन्न राज्यों से निकलने वाली पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। उनकी कहानियाँ नई सुबह शीर्षक पुस्तक में संकलित हैं, जो सन् 2021 में बुक क्लिनिक्स, छत्तीसगढ़ से प्रकाशित है।

विषय-विश्लेषण

नई सुबह कहानी संग्रह में कुल सत्रह कहानियाँ संकलित हैं। इस संग्रह की पहली कहानी तोहफ़ा है। इसके केंद्र में स्त्री जीवन है। श्रुति, माँ, चारु बुआ, भक्ति बुआ और युवती इसके स्त्री पात्र हैं और पिता, अमित, अरुण पुरुष पात्र हैं। इसमें पुरुष पात्र स्त्री पात्र के उद्देश्यों की पूर्ति करने में सहायक हैं। माँ और चारु बुआ उन चंद औरतों की प्रतिनिधि हैं, जो विदेश को स्वर्ग का दर्जा देती हैं। माँ चारु बुआ की खातिरदारी करती हैं क्योंकि उनके पति विदेश में नौकरी करते हैं। उनकी इच्छा है कि बुआ श्रुति के लिए कोई ऐसा लड़का देखे जो विदेश में नौकरी कर रहा हो। बुआ एक लड़के के साथ श्रुति का रिश्ता तय कर देती है। माँ यह नहीं देखती है कि लड़का कैसा है। विदेश के नाम पर तुरंत रिश्ता पक्का कर लेती है। अंत में उस लड़के के द्वारा ठुकराई गई एक युवती से इस बात का खुलासा हो जाता है कि लड़का कई लड़कियों को धोखा दे चुका है, तलाक ले चुका है। कहानी में विदेश के मोह की त्रासदी, इसमें होमी जाने वाली युवतियाँ, अपने आस-पास के गुणी युवकों को नजर अंदाज करते हुए विदेश में नौकरी करने वाले लड़कों को महत्व देने वाले एवं बेटी के जीवन को अपने अहं की तुष्टि का माध्यम बनाने का प्रयास करने वाले अभिभावक, पश्चाताप, भूल सुधार, एक युवती के सपने जैसी परिस्थितियाँ घटनाक्रम के माध्यम से उभरकर सामने आती हैं। इसमें स्त्री ही स्त्री के विरूद्ध है और स्त्री ही स्त्री की सहायिका भी। एक स्त्री ही दूसरी स्त्री की गलत धारणा को बदलकर जीवन को नई दिशा की ओर ले जाने में सहायता करती है।

    सुलह इस संग्रह की बेहद सुंदर कहानी है जिसमें आपसी समझदारी की न्यूनता से रिश्तों में दरार आने और दाम्पत्य जीवन के टूटने के पीछे निहित कारणों को कथ्य बनाया गया है। पितृ सत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में स्त्री हमेशा कमतर ही मानी जाती है। पुरुष परिवार का नियंता होता है। विवाह से पूर्व एक-दूसरे पर जान छिड़कने वाला जोड़ा, विवाह के पश्चात कई शंकाओं के घेरे में जीने लगता है। दोनों तरफ से संबंध के प्रति उदासीनता दिखाने के कारण रिश्ते की डोर धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगती है और एक दिन दोनों एक दूसरे को बर्दास्त कर न पाने की स्थिति में आकर डिभोर्स के लिए कानून का सहारा ले लेते हैं। कहानी के मुख्य पात्र प्रशांत और सुरुचि इसी परिस्थिति से गुजर रहे हैं। सुरुचि चाहती है कि प्रशांत उसकी भावनाओं को समझे, एक पत्नी का सम्मान दे। प्रशांत की भी शिकायत है कि सुरुचि उसे समझती नहीं है। दोनों को अपनी जिम्मेदारी और एक दूसरे के सम्मान में हो रही कमियों का पुन: एहसास दिलाने में लेखिका निर्णायक भूमिका निभाती है और अंत में दोनों में सुलह हो जाती है।

      सहनशीलता एवं धैर्य की कमी, अहं भाव का आधिक्य, अपनी परिधि में सीमित रहना आदि कुछ ऐसी समस्याएँ हैं, जो रिश्तों पर हावी हो जाती हैं और बना-बनाया संबंध टूटने-बिखरने लग जाता है। वर्तमान युवा पीढ़ी में यह समस्या अधिक दिखाई दे रही है। मूल भारतीय समाज में गृहस्थ जीवन का ढाँचा आपसी समझदारी, एक दूसरे के मान-सम्मान एवं समर्पण में टिका होता है। स्त्री और पुरुष परिवार रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। यदि एक पर दूसरा भारी पड़ने लगे या अधिकार जमाने लगे, तो वहाँ समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं और ये स्थितियाँ दाम्पत्य जीवन में दरार का कारण बनती हैं। मूल भारतीय शास्त्र, शब्द परंपरा एवं कोशों में डिभोर्स शब्द नहीं है। निज परंपरा, ज्ञान एवं पहचान के अभाव में आज की पीढ़ी निरंतर इस समस्या का शिकार हो रही है। कहानी के दो पात्रों ने आपसी समझदारी दिखाते हुए संबंध को बिखरने से बचा लिया, यही भारतीय परंपरा की पहचान है।

      ममतालय स्त्री की अगाध ममता की कहानी है। लेखिका एक मतामयी माता की संतान हैं और वे स्वयं अपनी ममता भिन्न घर्मावलंबी रेहाना पर लुटाती हैं। एक स्त्री के निस्वार्थ स्नेह के साथ-साथ यह कहानी आतंकवाद की समस्या की ओर भी पाठकों का ध्यान आकर्षित करती है। आतंकियों के आका युवा पीढ़ी को गुमराह करते हुए धर्म के नाम पर उन्हें अपनी जान की बलि चढ़ाने को मजबर ही नहीं करते बल्कि हत्या, बमबारी, अशांति जैसे कृत्यों को अंजाम देने के लिए निरंतर उन्हें उकसाते हैं। रेहाना का प्रेमी आमिर भी दहशतगर्दों की सूची में शामिल था। यह जानकर उसे धक्का लगा पर उसने ईश्वर को धन्यवाद भी दिया कि गठबंधन से पहले उसका वास्तविक चेहरा सामने आया। ईश्वर ने उसे बचा लिया। रेहाना अनाथ बच्चों के लिए ममतालय खोलती है। उसके अनन्य सहयोगी कृपासिंह से विवाह करती है और दोनों तन-मन से अनाथ आश्रम की देख-रेख करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं।

      दाम्पत्य जीवन में पति-पत्नी एक दूसरे अलंकार होते हैं। एक दूसरे के बिना दोनों का जीवन अपूर्ण होता है। पर समय के फेर के साथ केवल पति को ही पत्नी का शृंगार व अलंकार माना जाने लगा और पत्नी केवल पति की सहायिका के रूप में सीमित हो गई। वह पति की अलंकार न होकर निजी संपत्ति बन गई। वास्तव में व्यवहारिक जीवन में देखा जाए, तो इस संबंध में मानसिक रूप में पति से पत्नी की भूमिका की श्रेष्ठता की कसौटी पर खरी उतरती है। यदि पत्नी दो तीन बच्चों को छोड़कर स्वर्ग सिधार जाए, तो चंद महीनों के बाद पति दूसरे विवाह के लिए लड़की देखना शुरु कर देता है। अधिकांश पुरुष पत्नी के अभाव में पारिवारिक जिम्मेदारी के मैदान में फेल होते हुए पाए जाते हैं। इसके विपरीत यदि दो-तीन बच्चों को छोड़कर पति मर जाता या छोड़कर चला जाता है, तो पत्नी बड़े धैर्य के साथ अपने बच्चों की परवरिश करती है। एकाध घटनाओं को छोड़ दें, तो भी औरतों का बड़ा हिस्सा अपने बच्चों को लावारिश छोड़कर दूसरे पुरुष की तलाश में नहीं निकलता।

      अलंकार कहानी दांपत्य जीवन के मूल संस्कारों के साथ परंपरागत भारतीय स्त्री के गुणों को भी दर्शाती है। नंदिनी अपने पति को अलंकार मानती है। उसके इस त्याग के बदले उसके पति सत्यपाल भी उसे भरपूर प्रेम और सम्मान देते हैं। वे भी नंदिनी को अपना अलंकार मानते हैं। पति की मृत्यु के बाद जब सामाजिक नियमों के अनुसार उसके सुहाग-चिन्हों को उतारा जाता है, तो वह पल भर के लिए शून्य हो जाती है पर तुरंत ही अपने आत्मविश्वास को दृढ़ करती हुई, अपने बच्चों को अपना अलंकार मानते हुए उनके लिए जीने का दृढ़ संकल्प लेती है। यही सशक्त भारतीय स्त्री का परिचय है। वह कर्तव्य और संघर्ष के मैदान में कभी पीठ नहीं दिखाती। इस कहानी में रोहिणी नाम की एक और पात्र है, जो पुरुष प्रताड़िता है। बच्चा जनने में अक्षम होने के कारण वह अपने पति के कोपभाजन का पात्र बनती है। नशेड़ी पति की प्रताड़ना के उपरांत भी वह दांपत्य जीवन की जिम्मेदारियों को निभाने के लिए तैयार है, पर पति के इन्कार के बाद वह अनाथाश्रम के बेसहारा बच्चों पर एक माँ की ममता लुटाती हुई अपना शेष जीवन व्यतीत कर देती है।

      नई सुबह एक स्त्री के धैर्य, साहस एवं संघर्ष की कथा है। कहानी की मुख्य पात्र मनोरमा के पति के शराब का आदी बन जाने के बाद घर की आर्थिक स्थिति चरमरा जाती है। ऐसे में मनोरमा परिवार की गाड़ी को हाँकने के लिए ट्यूशन का सहारा लेती है और दो पैसे क जुगाड़ करने में लग जाती है। उसके सामने दो बच्चों का भविष्य है। परिवार के दैनंदिन खर्चे हैं। इतना होते हुए भी अपने पति को छोड़ने या तलाक लेने का खयाल उसके मन में नहीं आता। वह परिवार की जिम्मेदारी उठाती है, पति की ज्यादातियाँ एवं परिवारवालों के ताने सहती है और मिसेज डेका के सहयोग से अपने शराबी पति को नशा मुक्ति केंद्र में भेजती है। सारी प्रतिकूल परिस्थितियों से मनोरमा भागती नहीं बल्कि जुझारु स्त्री के रूप में उनसे लड़ती हुई पति के सुधरने का इंतजार करती है। इस कहानी में एक स्त्री को कठिनाई से उबारने के लिए दूसरी स्त्री सहयोग करती है। मिसेज डेका स्नेहशीला ही नहीं है बल्कि सकारात्मक सोच की प्रतिनिधि पात्र है, जो भोली मनोरमा के आगे सहयोग का हाथ बढ़ाती है।

      अलविदा एक दर्द भरी कहानी है। इसके केंद्र में भी स्त्री जीवन है। गलत पुरुष की दोस्ती ने सरला के जीवन की कमर तोड़ दी थी। वह अपनी जमा पूँजी अपनी सहेली के सपने पूरे करने में लगा देती है। जीवन से ऊब कर वह गुमनाम ही नहीं होती बल्कि नींद की गोलियाँ लेकर हमेशा के लिए इस दुनिया से विदा लेती है और पीछे अपनी एक बेटी छोड़ जाती है। थोड़ी सी चूक के कारण सरला का इस संसार से विश्वास उठ जाता है और यही उसकी आत्महत्या का कारण बन जाता है। यह उसके स्त्रीत्व का कमजोर कमजोर पक्ष है। दूसरी ओर निलू गुमनामी का जीवन जी रही अपनी सहेली सरला को खोज निकालती है और उसकी मृत्यु के बाद उसकी बेटी को गोद लेकर वह एक माँ की ममता देती है। यहाँ निलू एक सशक्त, परोपकारी, निस्वार्थ सहेली एवं वात्सल्यमयी स्त्री के रूप में अपना परिचय देती है।

      मँगरू कहानी में पाठक दहेज प्रथा की बिडंबना से साक्षात्कार करते हैं। वैसे पूर्वोत्तर भारत के मूल किसी भी समाज में दहेज प्रथा नहीं है। कहानी का मुख्य पात्र मँगरू गाँव में कमाई न होने के कारण कुछ कमाई करने एवं बेटी के लिए दहेज के पैसे जुगाड़ करने के उद्देश्य से गुवाहाटी आया है। आँधी-तूफान, वर्षा, धूप-किसी की भी परवाह किए वगैर वह दिन-रात रिक्शा चलाता रहा। उसका एक ही सपना है कि उसकी अप्सरा के समान सुंदर कजरी अपने ससुराल में राज करे। इसके लिए उसे दहेज में देने के लिए पैसों का इंतजाम करना आवश्यक था। यहाँ फिल्मी अन्दाज में घटनाक्रम मोड़ ले लेता है।

      एक दिन स्टेशन के पास नाइट सुपर से उतरकर एक नव विवाहित जोड़ा मँगरू के रिक्शे में बैठ जाता है। मँगरू रिक्शा चलाते हुए उन्हें उनके गंतव्य की ओर ले जाने लगा। रास्ते में  सवारी लड़की, लड़के से समय पूछती है तो मँगरू को उसकी आवाज जानी-पहचानी-सी लगती है। वह पलटकर देखता है, तो भौंचक्का रह जाता है। जिसके लिए वह दिन-रात एक कर रहा है, वही एक पराई लड़के के साथ भागकर गुवाहाटी आई है। यह जानकर उसके पैरों तले की जमीन खिसक जाती है। यह भारत के कुछ राज्यों व समाज में प्रचलित दहेज प्रथा की बिडंबना है, जिसके चलते माता-पिता के साथ बेटियों का जीवन भी मुश्किलों में पड़ जाता है। इस कहानी में व्यक्तिगत जीवन से अधिक सामाजिक रीति-रिवाज़ के कारण व्यक्ति का जीवन पीड़ा का पर्याय बनता हुआ दिखाया गया है। यह कहानी इस संग्रह में संकलित अन्य कहानियों से भिन्न है। इसमें विवाह के लिए बेटी की रजामंदी का प्रश्न नहीं उठता। इसमें प्रेम को सामाजिक कलंक का दर्जा दिया जाता है। इसमें स्त्री की इच्छा गौण है और पुरुष ही उसके जीवन का निर्णायक है चाहे पिता हो या पति। ऐसी स्थिति में बेटी का प्रेमी के साथ भाग जाना निश्चय ही मँगरू के लिए लज्जास्पद एवं खेदजनक बात है।

      क्या मेरा कुसूर है कहानी थर्ड जेंडर के जीवन की त्रासदी एवं सामाजिक विडंबनाओं का जीता-जागता दस्तावेज है। लंबे समय तक समाज में मानव के दो लिंग-पुरुष और स्त्री को मान्यता रही, जिसमें तीसरे लिंग अर्थात किन्नर+ के लिए कोई स्थान नहीं था। यह विद्रूपता भारतीय समाज में कबसे पनपी, किसी को नहीं मालूम जबकि प्राचीन भारतीय ग्रंथों में वृहन्नला (अर्जुन), शिखंडी, देवाधिदेव महादेव का अर्धनारीश्वर रूप, किन्नर देश आदि किरदार एवं स्थान तीसरे लिंग के गौरवशाली अतीत का वर्णन करते हैं। सच तो यह है कि सभी भारतीय समाज में थर्ड जेंडर अभिशाप नहीं माने जाते। पूर्वोत्तर भारत के अधिकांश समाज में किन्नर समान रूप से स्कूल, कॉलेजों में शिक्षा ग्रहण करते हुए देखे जाते हैं। इतना ही नहीं विभिन्न संस्थानों में काम करते, व्यापार-व्यवसाय संचालन करते, फैशन डिजाइनिंग, कला आदि के क्षेत्र में सक्रिय देखे जा सकते हैं। कहानी की श्यामली परिवार द्वारा परित्यक्त किन्नर पात्र है। न चाहते हुए भी उसे किन्नर समुदाय में शामिल होना पड़ा। पेट के लिए ताली बजानी पड़ी। लेखिका के सकारात्मक दृष्टिकोण एवं स्नेह से उसे नया जीवन मिल गया। यह कहानी किन्नर समुदाय के प्रति समाज को संवेदनशील बनने एवं सकारात्मक दृष्टिकोण रखने की पहल के साथ-साथ समाज की दारुण मनस्थिति पर प्रहार करती है। यह समाज को सोचने के लिए मजबूर करती है आखिर मानव-मानव में भेद क्यों है?

      दंगा कहानी पाठकों को कई सवालों के घेरे में छोड़ती है। आज हम आए दिन कहीं न कहीं दंगों से साक्षात्कार करते हैं। खौफ़नाक घटनाएँ समाचार के हेडलाइंस बने हुए देख सकते  हैं। यह मानवता के लिए बहुत बड़ा खतरा है। मनुष्य के बुद्धि-विवेक के ह्रास की त्रासदी दंगा है। दंगा स्वयं नहीं होता, इसके पीछे स्वार्थी लोगों की स्वार्थी मनोवृत्ति सुनियोजित ढंग से काम करती है और इसमें बलि बनने वाले एवं बनाने वाले दोनों साधारण नागरिक होते हैं। हर गाँव में मंगल जैसा समझदार युवक नहीं होता। अपने पड़ोसी गाँव के लोगों के ऊपर उसकी शंका नाज़ायज नहीं थी। अमावस्या की रात उसकी शंका यथार्थ में बदल जाती है जब रमेन के पिता स्वयं ही दंगाइयों के साथ मिलकर उसकी बस्ती को आग के हवाले कर देते हैं। झोपड़ियों के अंदर से आने वाली करुण चीखें, दंगाइयों की भूखी तलवारों की धार से घास की तरह कटते मानव शरीर जैसी क्रूरतम घटनाएँ पाठकों को एक भयावह मंजर से साक्षात्कार कराती हैं। यह कहानी मानवता के निरंतर हो रहे ह्रास एवं उसमें झुलसत मानव जीवन के प्रति कई सवालिया निशान छोड़ जाती है।

      रिश्ता कहानी समाज में स्वयं को इज्ज़तदार, खानदानी या बिरादरी के रखवाले मानने वाले परिवार में पीसती हुई एक युवती के विद्रोह एवं साहसिक आत्म निर्णय की गाथा है। अनु लंबे समय तक माँ के फैसलों पर स्वयं को चलाती रही। उसके कई रिश्ते बनते-बनते बिगड़ गए। उसके विवाह के लिए जाति-बिरादरी वाले रिश्ते बराबर देखे जा रहे हैं, कहीं बात नहीं बन पा रही है। वह 28 की हो गई है। उसे अपने भविष्य की चिंता है, साथ ही तमाम असफल होते प्रयासों से अंदर ही अंदर टूट रही है। वह स्वयं को हीन मानने लगी है। ऐसे में उसे अपने कॉलेज के सहपाठी सुदीप्त का प्रस्ताव मिलता है। अच्छा लड़का होने के कारण अनु उसके साथ विवाह करने का निश्चय करती है। परिवार के मना करने पर वह उसके साथ कोर्ट मैरिज कर लेती है। इसमें अंत में माँ को अपने किए पर पछतावा होता है और वह अपना सब कुछ अनु के नाम कर तीर्थ यात्रा पर निकल जाती है। उनका हृदय परिवर्तन कराकर लेखिका ने अपने बच्चों के भविष्य को दाँव पर लगाने वाले माता-पिता के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश दिया है।

      थैला कटु परिस्थिति से डटकर मुकाबला करती हुई मरमी बा (दिदी) के संघर्ष की कहानी है। पति के अशक्त हो जाने के बाद पारिवारिक जिम्मेदारी उसके कंधे पर आ पड़ी। देवर-देवरानी, सास एक-एक कर किनारे हो गए। रोगी पति का इलाज, बच्चों की पढ़ाई एवं घर चलाने के लिए उसने सामान का थैला उठाया और घर-घर जाकर उन्हें बेचने का धंधा शुरु किया। उसने कटु परिस्थिति से विचलित हुए बिना एक पत्नी एवं माँ होने का दायित्व निर्वहन किया। वह परिस्थिति की मारी है पर संघर्ष से कभी न हारी है। यही मरमी के स्त्रीत्व का सशक्त पहलु है।

      आशीर्वाद, सोरेन, सबिया, पाषाण हृदय नई सुबहकहानी संग्रह में संकलित अन्य कहानियाँ हैं। सर्जना की अधिकतर कहानियों में स्त्री जीवन के विविध आयाम के दर्शन मिलते हैं। लेखिका स्वयं एक पात्र के रूप में एक प्रमुख चरित्र का निर्वहन करती हैं। यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि एकाध को छोड़कर शेष पुरुष सत्ता द्वारा प्रताड़ित स्त्रियाँ नहीं हैं। न ही अपने स्वार्थ में अंधी होकर पुरुषों से विद्रोह करती हुई, अपना कर्तव्य या दायित्व भूलती हुई स्त्रियाँ। यहाँ स्वतंत्रता व स्वच्छंदता का प्रश्न दिखाई नहीं देता। न ही पुरुषों को गाली या दोष देती स्त्रियाँ। वह परिवार में सम्मानित है और प्रमुख भूमिका निर्वहन करती है। संघर्ष से नहीं घबराती और न ही पारिवारिक जिम्मेदारी को अपनी स्वतंत्रता का बाधक मानती है। वह किसी भी परिस्थिति से विचलित नहीं होती, न टूटती है। जटिल परिस्थिति से निपटने के लिए एक के बाद एक उपाय खोजती है पर अपना धैर्य नहीं खोती। नई सुबह की मनोरमा हो या आशीर्वाद की शालिनी, अलविदा की शालू हो या थैला की मरमी, जीवन की कटुतम परिस्थिति से घबराकर आत्महत्या का सहारा नहीं लेती। ये स्त्रियाँ ठोकरें खाती हैं, जूझती हैं पर हार नहीं मानती और न ही अपने दायित्व से पलायन करती हैं। सर्जना के स्त्री पात्रों की यही विशेषता है। पूर्वोत्तर भारत की निवासी होने के नाते लेखिका ने अपनी कहानियों के पात्रों का गठन पूर्वोत्तर भारत की सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप ही किया है।

      कहानियों में दो प्रकार के पुरुष पात्र हैं-भ्रष्ट आचरण से युक्त और सहयोगी। एकाध को छोड़कर शेष पुरुष पात्रों में पुरुष सत्ता का वाहक होने का दंभ नहीं है। दुष्ट पुरुष पात्रों की दुष्टता अधिक समय तक नहीं टिकती है। अंत में उनका हृदय परिवर्तन हो जाता है।

      रीता सिंह सर्जना की कहानियाँ पाठकों को असम के परिवेश से साक्षात्कार कराती हैं। गीता नगर, रूप नगर, गुवाहाटी, फैंसी बाजार, बिरूबारी, गुवाहाटी क्लब, कॉटन कॉलेज, शिलांग, तेजपुर, नर्थ गुवाहाटी जैसे स्थान और मिसेज डेका, मरमी बा, हेमंत बरुआ जैसे पात्र कहानियों को स्थानीयता के रंग से सराबोर कर देते हैं। भंटी, किबा लबा ने कि(बहन कुछ लोगी क्या) जैसे असमिया भाषा के उद्गारों से असम का परिवेश जीवंत हो उठा है।

निष्कर्ष : नई सुबह कहानी संग्रह में संकलित सभी कहानियाँ लेखिका के लंबे सामाजिक, पारिवारिक एवं साहित्यिक जीवन के अनुभव का परिणाम है। हर कहानियों का कथ्य पाठक को एक नया अनुभव प्रदान करने में सक्षम है। असम में लिखित एवं मौखिक साहित्य का भंडार होने के बावजूद भी मूल हिंदी में इसकी संख्या न्यून है। वर्तमान में अनुवाद के माध्यम से हिंदी पाठक इससे परिचित हो रहे हैं। एक अहिंदी भाषी होने के बावजूद भी हिंदी में अभिव्यक्ति देना यह लेखिका के हिंदी प्रेम का परिचायक है। भाषा में कहीं-कहीं व्याकरणगत त्रुटियाँ देखने को मिलती हैं मुद्रण एवं संपादन दोष को दर्शाती हैं। इस बात पर विश्वस्त हूँ कि आगामी संस्करण में इसमें सुधार अवश्य किया जाएगा। सर्जना की यह मौलिक रचना पूर्वोत्तर भारत में सृजित हिंदी साहित्य रूपी भवन की एक ईंट के रूप में सामने आई है अत: इसका विशेष साहित्यिक महत्व है।                            

संदर्भ

1. नई सुबह, रीतासिंह सर्जना, बुक्स क्लिनिक, विलासपुर, छत्तीसगढ़, 2021

2. लेखिका के साथ व्यक्तिगत संपर्क।

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यह लेख डॉ. गोमा देवी शर्मा द्वारा kangla.in के लिए लिखा गया है। लेखिका तेज़पुर विश्वविद्यालय, असम में सहायक प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। शैक्षणिक अथवा अन्य विषयों पर उनसे फ़ोन के माध्यम से संपर्क किया जा सकता है: 📞 +91 8638505492


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