संत साहित्य में नवजागरण के तत्व
भक्ति का विकास मानव के विकास
के साथ होता रहा है, लेकिन भक्ति पल्लवित मध्यकाल में भक्ति आंदोलन के
साथ हुई। भक्ति भज्धातु से बना है, जिसका अर्थ है
भजना। एक तरह से यदि हम कहे तो लीन हो जाना या रम जाना ही भक्ति है। क्योंकि भक्ति
में रमना या लीन होना एक तरह से आवश्यक है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘श्रद्धाभक्ति’ नामक निबंध में भक्ति के स्वरूप को विश्लेषित करते
हुए कहा है कि श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है। तथा जब प्रेम का सामाजीकरण
हो जाता है तो उसे भक्ति कहते हैं। भारत वर्ष में भक्ति आंदोलन का प्रारम्भ दक्षिण
भारत से माना जाता है। लेकिन इसका विकसित रूप उत्तर भारत में दिखाई देता है। भक्ति
आंदोलन की उत्पत्ति के सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं, “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में
गौरव, गर्व और उत्साह के लिए अवकाश न रह गया। उसके सामने
ही उसके देव मंदिर गिराये जाते थे, देवमूर्तियाँ तोड़ी
जाती थी और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा
में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और नही बिना लज्जित हुए सुन सकते थे।
आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र
राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी राजनीतिक उलट फेर के पीछे हिन्दू जन समुदाय पर बहुत
दिनों तक उदासी सी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा
की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?”1 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल उत्तर भारत में फैली भक्ति
आंदोलन की स्थिति की चर्चा करते हैं। लेकिन वे यह भी मानते हैं कि भक्ति आंदोलन का
विकास दक्षिण से हुआ। आचार्य शुक्ल कहते हैं, “भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण
शून्य पड़ते हुए जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला।”2 वहीं विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी भक्ति
आंदोलन के संदर्भ में कहते हैंकि , “भक्ति आन्दोलन
भारतीय चिंता-धारा का स्वाभाविक विकास है।”3 इस तरह भक्ति आन्दोलन के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों
ने भिन्न-भिन्न मत दिए हैं। भक्ति आंदोलन इतना व्यापक था कि
अपने अंदर सभी वर्गों, धर्मों को समाहित कर लिया। इस समय हिन्दी साहित्य
के भक्ति काल का था। भक्ति काल को देखे तो दो भागों में बांटा गया है- (1) सगुण भक्ति (2) निर्गुण भक्ति। इन दो भागों को क्रमश: दो उपभागों में विभाजित किया गया है :-
1. सगुण भक्ति- क. राम भक्ति शाखा, ख. कृष्ण भक्ति शाखा।
2. निर्गुण भक्ति- क. ज्ञानाश्रयीशाखा, ख. प्रेमाश्रयीशाखा।
निर्गुण और
सगुण भक्ति में मुख्य अंतर अवतारवाद को लेकर है। आगे प्रस्तुत आलेख में निर्गुण भक्ति
के अंतर्गत संत काव्य पर विचार किया जाएगा। संत काव्य में ईश्वर की उपासना निराकार
रूप में की गयी है, वे ईश्वर का वास हर जगह मानते हैं। निर्गुण संतों
के राम भी भक्तों के कष्ट को दूर करते हैं, भक्त से संबंध स्थापित करते हैं, लेकिन अवतार को
ग्रहण नहीं करते हैं। वे प्रेम की अपेक्षा ज्ञान पर अधिक बल देते है। संत कवि अधिकांशतः
अवर्ण थे । उन्होंने वर्ण –व्यवस्था की पीड़ा सही है। इसलिए उनके काव्य में वर्ण-व्यवस्था पर तीव्र आक्रमण करने का भाव दिखाई पड़ता है। निर्गुण धारा के ज्ञानाश्रयी
शाखा के प्रमुख कवियों में कबीर दास, रैदास, नानक, दादू, रज्ज्ब, सुंदरदास, मलूकदास, पीपा आदि है। संत साहित्य पर अपना मत व्यक्त करते हुए राम विलास शर्मा लिखते
हैं, "संत- साहित्य का सामाजिक
आधार क्या है? इसका सामाजिक आधार जुलाहों, कारीगरों, किसानों और व्यापारियों का भौतिक जीवन है। संत-साहित्य भारतीय संस्कृति की आकस्मिक धारा नहीं है। यह देश की विशेष सामाजिक
परिस्थितियों में उत्पन्न हुई थी। इसलिए यह एक भाषा या एक प्रदेश तक सीमित नहीं रही।
उसका प्रसार श्रीनगर से कन्याकुमारी तक, गुजरात से बंगाल
तक हुआ था। यह इस देश का सबसे विराट सांस्कृतिक आंदोलन था जिसकी जड़े दूर-दूर गांवों तक पहुँची हुई थी।"4
निर्गुण भक्ति
आंदोलन की परंपरा संत नामदेव से प्रारम्भ होती है, लेकिन सबसे विकसित रूप कबीर में दिखलाई देती है। संतसाहित्य में नवजागरण के
तत्त्वों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। नवजागरण एक ऐसा आंदोलन है जो समाज
में नवीन चेतना और जागृति लाने का प्रयास करती है। मानवतावाद, सामंतवाद और धार्मिकसत्ता का विरोध, समाज सुधार, समानता, वाह्यडंबरों का
विरोध, जाति-प्रथा का विरोध, नारी महत्ता, नवीन संस्कृति, नवीन जीवन शैली आदि ये सभी नवजागरण के तत्त्व संत साहित्य में विद्यमान है।
परलोक की दृष्टि से मुक्त हो कर इहलोक की ओर अग्रसर होना नवजागरण की विशेषता है और
इसी ओर संतों का सम्पूर्ण ध्यान था। भाषा गत नवजागरण भी संत साहित्य में परिलक्षित
हुआ है। इसी का परिणाम है कि संतों का झुकाव लोक भाषा एवं देशज भाषा की तरफ था। भक्त
कवियों ने साहित्य को राज दरबारों से निकाल कर जनता के बीच स्थापित किया। भाषा के क्षेत्र
में संस्कृत, अपभ्रंश को छोड़कर लोक भाषा हिंदी को स्थान दिया। विद्वान
भक्ति आंदोलन को दूसरा नवजागरण मानते हैं। जबकि “पहला नवजागरण महात्मा गौतम बुद्ध के आविर्भाव के साथ आया। बुद्ध ने पुरानी
जड़ वादी परम्पराओं को तोड़कर मनुष्य-मनुष्य बीच भेद-भाव मिटाने का प्रयास किया। उन्होंने संस्कृत भाषा के स्थान पर जन भाषा पालि
में उपदेश देना प्रारम्भ किया। दूसरा नवजागरण भक्ति काल में दिखाई पड़ता है। उत्तर भारत
में देशी भाषाओं के उदय का समय यही है। इस आंदोलन का मूलाधार भी धर्म है, यद्यपि निर्गुण पंथियों ने धर्म की जाति वादी संकीर्णताओं और बह्याडंबरों पर
गहरा प्रहार किया। इसके प्रचार –प्रसार में व्यापारिक
पूंजीवाद ने भी सहायता पहुंचायी। तीसरा नवजागरण 19वीं शती के उत्तरार्ध में आया। इस समय अंग्रेजी राजस्थापित हो चुका था।"5 आधुनिक काल के नवजागरण युग में व्यक्ति स्वातंत्र्य, मनुष्य की महत्ता, धर्मनिरपेक्षता
और मानवतावाद का पथ प्रशस्त हुआ तथा धार्मिक भेद-भाव, ऊंच-नीच, छुआछूत, बाह्याडंबर, जाति-पाति आदि का जमकर विरोध किया गया। संत काव्य में नवजागरण
के लगभग सारे तत्त्व विद्यमान है। ज्ञान मार्गी शाखा में नामदेव सबसे पहले आते हैं, जिन्होंने धार्मिक एकता पर बल दियाहै-
“हिन्दू पूजै देहरा, मुसलमान मसीद।
नामा सोई से वियाजहँ देहरान मसीद।।”6
संत कबीर
दास की वाणी में वाह्यडंबरों का विरोध है। मूर्ति पूजा का खंडन, धार्मिक झगड़ों का विरोध, धर्म के नाम पर
दिखावा करने वालों को भी फटकारा गया है। सामाजिक बुराइयों के प्रति पूरी तरह से सचेत
रहते हैं। कबीर नारी की निंदा भी करते हैं, दूसरे तरफ परमात्मा से नारी रूप में संबंध स्थापित करते दिखते
हैं। कबीरदास ने अपनी कविताओं में समाज में व्याप्त कुरीतियों और धार्मिक पाखंड के
विरुद्ध आवाज उठाई। इस तरह कबीर दास एक समाज सुधारक के रूप में सामने आते हैं।
“दिन भर रोजा रहत हैं राति हनत हैं गाय।
यह तो खून वह बंदगी, कैसे खुसी खुदाय॥
अपनी देखि करत
नहिं अहमक, कहत हमारे बड़न किया।
उसका खून तुम्हारी
गरदन, जिन तुमको उपदेश दिया॥
बकरी पाती खाति
है ताको काढ़ी खाल।
जो नर बकरी खात
हैं तिनका कौन हवाल॥”7
गुरुनानक
देव ने भी सामाजिक एकता स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने अपनी कविताओं में धार्मिक
सुधार और एकेश्वरवाद का संदेश दिया। नानकदेव लौकिक धरातल पर नारी की महत्ता स्वीकार
करते हैं। नारी-पुरुष के साथ सहभागनी बन सदैव साथ रहती है, उसके बिना पुरुष अधूरा है।
“भंडजमीऔभंडिनिमीऔभंडमंगणबीआहु।
भंडहुहोवैदोस्तीभंडहुचलैराहु।।”7
गुरुनानकदेव ने विदेशी आक्रमणकारियों
के विरुद्ध आवाज उठाई। आक्रमण के समय होने वाले कष्टों को समझा, उस दर्द को महसूस किया। एक उदाहरण द्रष्टव्य है:-
“खुरसानखसमान की आहिंदुस्तान डराइया।
आपैदोसनदेईकरताजपुकरिमुगलचढ़ाइया।।
एतीमारपुईकुरलाणैतैकीदरदुणआइया।।”8
इन्हीं संत कवियों में रैदास भी हुए जो निर्गुण और
निराकार में विश्वास रखते थे। उन्होंने भी समाज में व्याप्त जात-पात, रूढ़ियों एवं कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठाई। रैदास
ने कबीर की भाँति ब्राह्मणवादी धर्म पर तीखे प्रहार तो नहीं किए लेकिन जिन मधुर व्यंग्यों
का उन्होंने आश्रय लिया वे संभवतः कबीर के आक्रामक प्रहारों से भी अधिक घातक सिद्ध
हुए। संत रैदास कहते हैं:-
दूधतबछरैथनहुविटरिओ
फूलुभवरिजलुमीनिबिगारिओ।
माईगोविन्दपूजाकहालैचरावउ
अवरूनफूलुअनूपनपावउरहाउ॥
इस प्रका ररैदास ने पूजा की औपचारिकता का कितना सहज और स्वाभाविक विरोध कर
पुजारी को सचेत किया है कि औपचारिकताओं का नहीं मूल भाव का महत्व है। जैसे भगवान पवित्र
है वैसे ही पवित्र ह्रदय की भक्ति के माध्यम से उन्होंने बिना किसी औपचारिकता के आधार
पर समाज में चेतना जागृत करने का प्रयास किया।
संत कवि सामान्य
जन के बीच से आए हुये थे। उनकी वेदना को स्वयं महसूस किया था। इसलिए इन आडंबरों का
संत कवियों ने विरोध किया। संत कवि एक ऐसे धर्म और समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें मानवता के कल्याण की भावना हो। इस तरह भक्ति कालीन संत साहित्य के नवजागरण
का विकसित रूप हमें आधुनिक काल के नवजागरण में दिखायी पड़ता है।
निष्कर्षतः
संत साहित्य में नवजागरण के तत्त्वों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। संत कवियों
ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में नवीन चेतना और जागृति लाने का प्रयास किया और
धार्मिक सुधार, शिक्षा और सामाजिक न्याय के लिए आवाज उठाई। उनकी कविताएं
हमें आज भी समाज में साकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए प्रेरित करती है। अतः संत साहित्य
भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक भावना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
1. हिन्दीसाहित्यकाइतिहास, आचार्यरामचन्द्रशुक्ल, अशोकप्रकाशन, दिल्ली, 2014, पृ. स. 35.
2. वहीं, पृ. स. 36.
3. हिन्दीसाहित्यकासरलइतिहास, विश्वनाथत्रिपाठी, ओरियंटब्लैकस्वॉनप्राइवेटलिमिटेड, नईदिल्ली, 2016, पृ. स. 13.
4. परम्पराकामूल्यांकन, रामविलासशर्मा, राजकमलप्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. स. 45-46.
5. हिन्दीआलोचनाकीपारिभाषिकशब्दावली, डॉ. अमरनाथ, राजकमलप्रकाशन, दिल्ली, 2015, पृ. स. 398.
6. हिन्दीसाहित्यकाइतिहास, आचार्यरामचन्द्रशुक्ल, अशोकप्रकाशन, दिल्ली, 2014, पृ. स. 46.
7. वही, पृ.स. 46.
8. हिन्दीसाहित्यकादूसराइतिहास, बच्चनसिंह, राधाकृष्णप्रकाशन, दिल्ली, 2023, पृ. स. 94.
9. वहीं, पृ. स. 94.
यह लेख स्मिता साह द्वारा kangla.in के लिए लिखा गया है। लेखिका शोधार्थी, हिन्दी विभाग, मणिपुर विश्वविद्यालय हैं। उनसे smitasah15@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

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