ads header

Hello, I am Thanil

Hello, I am Thanil

नवीनतम सूचना

प्रथम भारतीय गोर्खा शहीद सुबेदार निरंजन सिंह छेत्री (1851-1891): सन्तोष लुईंटेल


भारत पूर्वकाल से ही साहित्य, संगीत, इतिहास, कला, व्यापार, उत्पादन के साथ- साथ विभिन्न क्षेत्रों में विकास के कारण संपूर्ण विश्व को आकर्षित करता आ रहा है । इसी आकर्षण के कारण लंबी यात्रा करके विदेशों से कई शासक यहाँ आए । इस दौरान भारतीय शासकों ने उन से बड़े शौर्य के साथ युद्ध किया और कई सारे विदेशी आक्रमणकारियों को अपने बल पर युद्ध के मैदान में धुल चटाए । स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तो भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने दुश्मन के छक्के छुड़ाए थे । इस दौरान भारतियों ने जात, धर्म, भाषा, संस्कृति, परंपरा आदि की भिन्नता की भावना को छोड़कर एक मुष्ठ होकर अपनी एकता और अखंडता का परिचय दिया । इस दौरान अपने देश में ऐसे भी सेनानी हुए जिन्होंने अपनी जिन्दगी कर्मभाव के बल पर जन्मभूमि से कहीं दूर कर्मभूमि को ही अपना सर्वस्व समझकर अपना संपूर्ण बलिदान कर दिया । इसी श्रेणी में शहीद निरंजन सिंह छेत्री भी एक हैं, जिन्होंने अपनी जन्मभूमि से दूर मणिपुर को अपना कर्मभूमि बनाया और उसकी रक्षा के लिए अपना जीवन समर्पण कर दिया ।        

शहीद निरंजन सिंह छेत्री का जन्म सन् 1851 को भारत के हरदोई जिले (उत्तर प्रदेश) निवासी गोर्खा परिवार दरिया सिंह छेत्री के घर में हुआ था । उनका बालपन कैसे बीता यह तो बताना मुश्किल है किन्तु उनके जीवनकाल को समझने पर यह जरूर बता सकते हैं कि वे बड़े शूरवीर और त्यागी किस्म के व्यक्तित्व के धनी थे । जीवन के आरंभिक समय में छेत्री 34 वीं ब्रिटिश मूल नेटिव इन्फैंट्री में  सिपाही के तौर पर कछार में तैनात थे । बाद में उनका रेजिमेंट अंबाला की ओर बढ़ा और वहां विघटित हो गया । अपने रेजिमेंट के विघटन के बाद निरंजन अपने घर लौट आए, जहाँ वे चार - पाँच वर्षों  तक रहे । कुछ वर्ष घर में रहने के बाद उन्होंने बर्मा (वर्तमान म्यांमार) जाने का निश्चय किया । वे कलकत्ता के रास्ते बर्मा की राजधानी रंगून गए । वहाँ उनकी मुलाकात अपने एक मित्र से हुई और उन्ही के साथ वे मणिपुर आए ।

मणिपुर में उनकी मुलाकात युवराज टिकेंद्रजीत से हुई जिन्हें कोईरेङ के नाम से भी जाना जाता है। छेत्री ने अपने परिचय में युवराज को ब्रिटिश सेना में की गई सेवा की पूरी कहानी सुनाई तथा इन्फेन्ट्री विघटन और बर्मा में भ्रमण संबंधित सारा वृत्तान्त भी कह सुनाया । टिकेंद्रजीत निरंजन के सैन्य स्वभाव और अनुभव, मजबूत शरीर एवं उत्साही मन तथा उन के विचारों से प्रभावित हुए और उन्होंने निरंजन से मणिपुर की स्थानीय सेना में सेवा करने का आग्रह किया । निरंजन ने भी टिकेंद्रजीत के अनुरोध को सहज ही स्वीकार कर लिया और वे सूबेदार के पद पर नियुक्त हुए । लगभग साढ़े तीन साल तक उन्होंने मणिपुर की देशी सेना में समर्पण भाव से सूबेदार पद को संभाला । उनका काम स्थानीय सैनिक को ड्रिल प्रशिक्षण कराना तथा राजमहल की सुरक्षा करना था । उस दौरान मणिपुर स्वतंत्र रियासत हुआ करता था ।

इस्वी सन्  1600  में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के बाद सन् 1757 में जब उसने भारत में अपना व्यवसाय स्थापित करना शुरू किया तब थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद वह भारत की रियासतों के शासकों की आदतों और शिष्टाचार को समझने लगे । तत्पश्चात् उसने भारतीय शासकों की भूमि को हड़पना शुरू कर दिया । बाद में भारत की संप्रभुता और आर्थिक समृद्धि पर ब्रिटिश ललचाने लगा और ईस्ट इंडिया कंपनी के सभी ताकतों पर हस्तक्षेप करते हुए उस की बागडौर अपने हाथ में लेली । फिर भारत की राजनीति के साथ-साथ सभी क्षेत्रों में दखल देने लगा । स्थानीय रियासतों के शासकों को अपने नियंत्रण में करने के लिए अनेक कानून बनाकर जोर-जबरदस्ती से उसे लागू किया जाने लगा । दुर्भाग्य से मणिपुर की आंतरिक राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति की जड़ को पकड़कर अपना लाभ उठाते हुए अंग्रेजों ने राज्य में प्रवेश किया।

1886 में मणिपुर के महाराजा चंद्रकीर्ती की मृत्यु के बाद मणिपुर का सिंहासन उनके सबसे बड़े पुत्र सुरचंद्र के अधीन आ गया । यह मणिपुर के इतिहास में सबसे खराब और विनाशकारी युग बन गया । सुरचंद्र को मणिपुर का राजा बनाया गया था, लेकिन महाराज चंद्रकीर्ती की दो पत्नियों से पैदा हुए पुत्र आपस में वैचारिक एकता नहीं ला सके इससे वे दो गुटों में बंट गए । इसके बावजूद महाराजा सुरचंद्र के भाई पकासना और उसकी सौतेली माँ के बेटे टिकेंद्रजीत में बहुत प्यार भी था ।

21 सितंबर 1890 में टिकेंद्रजीत के समर्थक राजकुमार जिलाङम्बा और अङौसना ने अचानक महाराजा सुरचंद्र के खिलाफ विद्रोह कर दिया । इस विद्रोह ने मणिपुर की राजनीति में भारी असंतुलन पैदा किया, जिसके परिणामस्वरूप सुरचंद्र सिंहासन को खाली छोड़कर अर्थात मणिपुर छोड़कर भाग गए और मणिपुर के तत्कालीन ब्रिटिश एजेंट ग्रिमवुड के निवास पर पहुंच गए । कुछ दिनों तक वहाँ रहने के बाद वे वृंदावन चले गए । सुरचंद्र के भाग जाने के बाद राज्य चलाने के लिए उनके भाई कुलचंद्र को मणिपुर के राजा के रूप में तथा 

टिकेंद्रजीत को युवराज के रूप में नियुक्त किया गया । वृंदावन से सुरचंद्र भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता गए । कलकत्ता में वे ब्रिटिश सरकार से मदद लेकर मणिपुर के राजशाह में खुद को फिर से स्थापित करने की मनसा लेकर गए थे । इससे अवसरवादी ब्रिटिश के लिए मणिपुर की राजशाह में दखल देना आसान हो गया और वक्त जाया न करते हुए सुरचंद्र को लेकर तुरंत मणिपुर की ओर चल पड़ा ।

ब्रिटिश सरकार ने लॉर्ड लैंडाउन, भारत के ब्रिटिश वायसराय और असम के तत्कालीन मुख्य आयुक्त जेम्स वैलेंस क्विंटन को 400 शक्तिशाली सैनिकों के साथ मणिपुर भेजा । मणिपुर में उनके आगमन की खबर मिलते ही थंगाल जनरल उनका स्वागत एवं सुरक्षा के लिए 700 सैनिकों के साथ माओ पुलिस थाने पर पहुंचे । 22 मार्च 1891 को सुबह 10:00 बजे वे इम्फाल पहुंचे और दोपहर में दरबार लगने की सूचना महाराजा कुलचंद्र को दी । ब्रिटिश सरकार का विचार सुरचंद्र को फिर से मणिपुर का शाशक बनाना था लेकिन वे स्पष्ट रूप से जानते थे कि मणिपुर की राजनीति में युवराज टिकेंद्रजीत की मजबूत पकड़ है और वे यह भी जान चुके थे कि  टिकेंद्रजीत ब्रिटिश अधिकारियों के विचार को कभी स्वीकार नहीं करेंगे । इस तरह ब्रिटिश अधिकारियों ने सुरचंद्र को सिंहासन पर पुनर्स्थापित करने तथा युवराज टिकेंद्रजीत को उसके शासन से हटाने के लिए युवराज टिकेंद्रजीत को गिरफ्तार करने की योजना बनाई । टिकेंद्रजीत को ब्रिटिश अधिकारियों की योजना की भनक लग गयी थी और वे बीमार हो जाने के बहाने अदालत में पेश ही नहीं हुए । इसने ब्रिटिश सरकार की योजना को विफल कर दिया । बाद में ब्रिटिश सरकार की इच्छा को मणिपुर कोर्ट ने भी खारिज कर दिया । 

अपनी योजना को विफल होते देख हताश ब्रिटिश बौखला गए और 24 मार्च 1891 को सुबह 3:30 बजे ब्रिटिश सेना ने राजभवन परिसर के दक्षिण और पश्चिम द्वार तथा युवराज टिकेन्द्रजीत के भवन को तीन दिशाओं से पर हमला कर दिया । हमले के दौरान निरंजन मणिपुर की सेना के सैन्य कमान पर थे। चोङथामिया और निरंजन ने ब्रिटिश सेना के खिलाफ एक उग्र लड़ाई लड़ी और अपने सैनिकों का मनोबल भी बढ़ाया । वे दिन भर स्थिर रहे और शाम के समय तक मजबूत ब्रिटिश सेनाओं को हताहत करने में कामयाब रहे । अपने महल और किलों का बचाव करते हुए उन्होंने पांच ब्रिटिश सैनिकों को मारने में कामयाबी हासिल की । इस अपमानजनक हार ने ब्रिटिश शासन को हिला दिया और यह खबर ब्रिटिश शासन के केंद्र तक पहुँच गई । इसके बाद ब्रिटिश के केंद्रीय बल ने तुरंत मणिपुर पर कोहीमा, सिलचर और तमू (म्यानमार) तीन तरफ से आक्रमण किया । चोंङथामिया तमू से आक्रमण करने वाली ब्रिटिश सेना का मुकाबला करने के लिए चले गए । अपनी पूरी शक्ति और ताकत के साथ उन्होंने अंग्रेजों को हराया और बहुत सारे हथियारों के साथ वापस लौट आए । उनकी बहादुरी को सम्मानित करते हुए उन्हें मेजर के पद पर पदोन्नत किया गया । यह मणिपुरी सेना की बहादुरी का द्योतक है । चूंकि टिकेंद्रजीत की सुरक्षा अधिक महत्वपूर्ण थी इसलिए उस दौरान निरंजन हर क्षण टिकेंद्रजीत के साथ रहे और युद्ध के बारे में भी सभी प्रकार की जानकारी देते रहे ।

 

23 अप्रैल को मणिपुर की सेना और ब्रिटिश सेना, जो आधुनिक हथियार के साथ लौटे, के बीच एक भयंकर लड़ाई खोंगजोम में हुई । उस युद्ध में बहुत बड़ी संख्या में मणिपुरी सेना मातृभूमि का बचाव करते हुए शहीद  हो गए । इस युद्ध को भारतीय इतिहास में एङ्ग्लो - मणिपुरी युद्ध भी कहा जाता है । इसलिए मणिपुर में इस दिन को खोंगजोम दिवस के रूप में जाना जाने लगा और हर साल इस दिन वीर शहीदों की वीरता और शौर्य को याद करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है । निरंजन सिंह छेत्री और अन्य सैनिक लंबे समय तक आंतरिक रूप से अपनी जमीन की रक्षा के लिए लड़ते रहे । लडाई इतनी भयंकर थी कि स्थानीय शैनिकों को खाने-पीने में बहुत मुश्किल होती थी और अधिक्तर वे खाली पेट भी लड़ते रहे । अंत में पूरे मणिपुर में भय और आतंक फैलाते हुए अंग्रेजों ने 24 मार्च को सभी दिशाओं से इसे घेर लिया और 27 अप्रैल 1891 को पूर्ण रूप से कब्जा कर लिया । पूरी शक्ति और बल का प्रयोग करते हुए मणिपुर में ब्रिटिश शासन लागू कर दिया गया । शासन हस्तक्षेप करने और मणिपुर को नियंत्रण में लेने के बाद कुछ बहादुर सैनिकों को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया तो कुछ को कालापानी जेल में कड़ी यातनाएं दी गईं ।

निरंजन छेत्री और चोंगथामिया को एक ही आरोप के तहत पेश किया गया और मणिपुर फील्ड फोर्स के मुख्य राजनीतिक अधिकारी मैक्सवेल की अदालत में पेश किया गया । दोनों को पहले और दूसरे आरोपी के रूप में जाना जाता था । 5 मई 1891 को दोनों को अदालत में पेश किया गया और सुबेदार निरंजन सिंह छेत्री पर अंग्रेजों का विरोध करने, स्थानीय सैनिकों को पूरे दिन अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रोत्साहित करने और भारी अंग्रेजी सैन्य बल को हताहत करने के आरोप में फाँसी की एलान करते हुए 8 जून 1891 को कङ्ला के पश्चिमी द्वार पर लटका दिया गया । इस प्रकार 39 वर्ष का सार्थक जीवन जीते हुए निरंजन शहिद हो गए । चोङथामिया को फांसी नहीं हुई लेकिन उन्हें जीवन भर के लिए अपने देश मणिपुर से निर्वासित कर दिया गया । उस दौरान मणिपुरी के कई बहादुर सैनिकों को अंग्रेजों ने फाँसी की सजा दी थी । उन के नाम इस प्रकार हैं -

1. काजाओ सिंह जमादार          15 मई 1891

2. सुबेदार निरंजन सिंह छेत्री    08 जून 1891

3. युबराज टिकेंद्रजीत                13 अगस्त 1891

4. थंगल जनरल              13 अगस्त 1891

5. चिरई नागा                 13 अक्टूबर 1891

 

मणिपुर स्टेट आर्काइब्स द्वारा सन् 1990 में मणिपुरी अंग्रेजी युद्ध का शत वार्षिकी के प्रवेश के उपलक्ष्य में Manipur Who is Who – 1891 पुस्तक के पृष्ठ संख्या 13 में निरंजन सिंह छेत्री के विषय में इस प्रकार वर्णन मिलता है

Niranjan Subedar

Niranjan Subedar was a Gorkha who was in service of British Army. Niranjan Subedar was the son of Daria Singh Chetri aged 39 years of village Tikuamoh. He was an Ex-army (sepahi) of the 34th Native infantry. He left the Britishers and joined the native force of Manipur and later appointed as Subedar by the Tikendrajit Jubaraj. He was tried by the Chief political officer, Manipur Field force and was sentenced to be hanged by the neck for assisting the Manipuris against British. The sentence was confirmed by the officer commanding Manipur Field Force and Government of India . He was hanged on 8th June 1891.

इस प्रकार साहसी, निडर, आत्मनिर्भर और देशभक्त छेत्री अपनी अंतिम सांस तक दुश्मनों से मणिपुर का बचाव करते रहे और इस मिट्टी में अपना जीवन समर्पण के साथ प्रथम भारतीय गोर्खा निरंजन सिंह छेत्री शहिद हो गए । उस समय उन की आयु केवल उनत्तिस साल की थी । देश की आजादी के बाद राज्य में से हर साल इस दिन यानी 13 अगस्त को इन शहिदों को श्रद्धांजलि दी जाती है । निरंजन को फाँसी देने के बाद इससे संबंधित विषय पर भारत के ब्रिटिस बाएसराय और चीफ पोलिटिकल अफसर मणिपुर के बीच टेलिग्राफ द्वारा समाचार का आदान प्रदान निम्न रूप में हुआ था ।

“Telegram No. 1166E, Dated, the 4th June 1891.

From ….. The Viceroy Simla.

To …. The Secretary of State, London Foreign, Manipur.

We have confirmed sentence of death passed on Niranjan Subedar, Ex Sepoy of our Army and a British subject who was convicted of active participation in attack upon residency. We have commuted to transportation for life sentence of death passes on Mia Singh, Manipuri a prominent Adherent of Senapati, who was convicted of taking a leading part in revolt and subsequent resistance to advance of our troops.

(Simla Report 1, 1891 Foreign Department secret – E. Progs June 1891 No. 147)

Telegram No. 228, dated Manipur, the 8th June 1891.

From – Chief Political Officer, Manipur.

To, Secretary to the chief commissioner, Assam.

Niranjan Subedar hanged this morning.

Trial Senapati closed.

Counsel addresses court this afternoon.

Trial Regent commences tomorrow. I have secured many valuable books of royal liberty.

(Assam Secretariat foreign – A September, 1891 No. 356) 

इस दिन (शहिद दिवस के दिन) देश के प्रति बलिदान की उच्च भावना को याद किया जाता है ।  इन शहिदों को याद करने से हर देशवासियों के मन में देशभक्ति सहित कर्तव्य की भावना जागृत होती है । अपने पूर्वजों और देश के प्रति बलिदान देनेवाले शहिदों को सदा याद करते हुए सम्मान  सहित नमन करना हर देशवासी का कर्तव्य है । 

इस कर्तव्य की भावना एवं उत्तरदायित्वको निभाने के लिए मणिपुर में विभन्न क्षेत्रों में काम कर रहे समाज सेवी गोर्खा जातिय संगठन शहिद निरंजन छेत्री विषय पर विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं और शहिदों के बलिदान पर गर्वांवित होते हुए प्रतिवर्ष 8 जून को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं । इस में स्थानीय सरकार का भी महत्वपूर्ण योगदान देखने को मिलता है । बोर्ड आफ सेकेंडरी एजुकेसन मणिपुर के दसवीं कक्षा के नेपाली विषय पर शहिद निरंजन सिंह छेत्री विषय पर एक पाठ को पाठ्यक्रम में स्थान देकर मणिपुर सरकार ने विद्यार्थियों को शहिद छेत्री के विषय में जानने का सुवासर प्रदान किया है ।  

अखिल मणिपुर गोर्खा विद्यार्थी संगठन शहिद निरंजन को लोगों के घरों तक पहुँचाने के उद्देश्य से घर-घर निरंजन नामक अभियान के तहत विद्यार्थियों के बीच निबंध लेखन प्रतियोगित, चित्र अंकन प्रतियोगिता तथा प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिताएँ आदि अनेक प्रकार के कार्यक्रम आयोजित करता है । भारतीय गोर्खा परिसंघ, मणिपुर शाखा भी ऐसे सुकर्मों से निरंजन के बलिदान को याद करने में पीछे नहीं है । इस कड़ी में भारतीय गोर्खा परिसंघ, मणिपुर शाखा ने सन् 2021 में इम्फाल जिला अंतर्गत काङलातोङ्बी ग्राम में सहिद निरंजन सिंह की प्रतिमा स्थापित कर सम्माननीय मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह के करकमल द्वारा गत 8 मार्च 2021, सोमवार के दिन लोकार्पण कर शहिद को श्रद्धांजली दी । इस दौरान शहिद निरंजन सिंह विषय पर पुस्तक भी प्रकाशित किया गया तथा पत्र-पत्रिकाएँ भी वितरित की गई । प्रतिमा के लोकार्पण पर लोगों के चहेरे पर जो रौनक देखने को मिला उसी से अनुमान लगाया जा सकता था कि निरंजन का बलिदान कितना अहमियत रखता है । 

हमारे देश में कई सारे युद्ध हुए जिस में अनेकों वीर योद्धाओं को वीरगति प्राप्त हुआ । देश के कई ऐसे वीर शहिद जिन्होंने अपना पूरा जीवन अनेक युद्ध में समर्पण कर दिए पर आज भी वे हम लोगों से अंजान हैं या हमारे खोज से कहीं दूर हैं । इतिहास के पन्नों को बारीकी से पलटते हुए उन अंजान शहिदों के विषयों में खोज निकालना तथा उनकी वीर गाथाओं को समाज बीच प्रस्तूत करना हमारा दायित्व है । उन वीर शहिदों को इससे बड़ी श्रद्धांजलि शायद ही और कुछ हो सकता है ।     

*******************

                            

संदर्भ ग्रंथ

1.    CHAITHAROL KUMBABA, 4th Edition – 2012 Edition, Page No. 498,  Published by Manipuri Sahitya Parishad, Imphal. 

2.   MEITEI NINGTHOUROL by Sarangthem Barmani Singh, Page No. – 342, Published on January 2011.

3.   MANIPUR “WHO IS WHO” 1891, Edited by Smt. Kh. Sarojini Devi, Deputy Director (Archives), Published by Manipur State Archives, Directorate of Art and Culture, Government of Manipur.

4.   CHINGKHEI HUNBA – Volume - 6, Issue -1, Page – 18, Published on 16 April 1998.

5.   CHAITHAROL KUMPAPA – Royal Chronicle of Manipur, 33 A.D – 1984 A.D, Page- 661, Transcripted and Edited by Brahmacharimayum Kulachandra Sharma, Published by Manipuri Sahitya Parishad, Assam.

6.    आँखिझ्याल भीत्र मणिपुरश्री भवानी अधिकारी, प्रकाशक नेपाली साहित्य परिषद, मणिपुर ।

7.   स्रष्टा - भारतीय नेपाली शहिद विशेषांक पश्चिम सिक्किम साहित्य प्रकाशन, गेजिंग विशेषांक वर्ष 21, अंक 47, मार्च अप्रैल 2000.

WHO IS WHO OF GORKHA MARTYRS OF INDIA (Period 1891 -2020 ), Vol. 1 by Dr. Purushottam Bhandari Published in 2021.


पीडीएफ संस्करण डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें

कोई टिप्पणी नहीं