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स्वाधीनता संग्राम में आहूत पूर्वोत्तर की वीरांगनाएँ


इस लेख में भारतीय स्वाधीनता संग्राम में पूर्वोत्तर भारत के वीर योद्धाओं और वीरांगनाओं के योगदान को रेखांकित किया गया है। लेखक ने बताया कि इस क्षेत्र के स्वतंत्रता सेनानियों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष शुरू किया था, जो 1857 के संग्राम से भी पहले था। पूर्वोत्तर के क्रांतिकारी जैसे कनकलता बरुवा, भोगेश्वरी फुकननी और पुष्पलता दास ने महान बलिदान दिया, लेकिन उनकी वीरता को राष्ट्रीय स्तर पर सही पहचान नहीं मिली। इस क्षेत्र का ऐतिहासिक महत्व और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान आम तौर पर नजरअंदाज किया गया। लेख में यह भी कहा गया है कि अब हमें इन वीरों और वीरांगनाओं को याद कर उनका योगदान समाज में स्वीकार करना चाहिए, ताकि उनके संघर्षों और बलिदानों को आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाया जा सके और नारी के योगदान को मान्यता मिल सके।

बीज शब्द

अस्मिता, वीर-प्रसूता वीरांगनाओं, शोर्यगाथाएँ, ऐतिहासिक पुनर्लेखन, राष्ट्रवादी गतिविधियों, उपनिवेश, अकीर्तित, पल्लवित-पुष्पित, शहादत, औपनिवेशिक अधिकारियों, साँस्कृतिक विरासत

विश्व-सभ्यता में अनादिकाल से सत्ता व स्वतंत्रता का संघर्ष विद्यमान रहा है, और आज भी जारी है। इस दृष्टि से भारतीय स्वाधीनता संग्राम एक ऐसा महान् यज्ञ था, जिसमें भारतीय अस्मिता के प्रति समर्पित हर राष्ट्रभक्त ने नि:स्वार्थ भाव से अपने प्राणों की आहुति दी। भारतभूमि का कोई भी भू-भाग आत्मोत्सर्ग के इस पर्व में पीछे नहीं रहा। हमारा पूर्वोत्तर, जिसे आज हम 'अष्टलक्ष्मी' अर्थात् आठ राज्यों के रूप में पहचानते हैं। इसके शूरवीरों ने भी स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, परंतु शेष भारत में प्राय: उनकी चर्चा भी नहीं हुई, फिर तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा लिखे गए दस्तावेजों में उनके ऐतिहासिक ग्रंथों में पूर्वोत्तर के क्रांतिवीरों के नाम ढूँढ़ पाना कैसे संभव होता। अंग्रेजों के दमनचक्र का शिकार बनने के विरोध में पूर्वोत्तर के स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान का वर्णन करने से पूर्व मैं पूर्वोत्तर की चर्चा करना आवश्यक मानता हूँ। हमारा पूर्वोत्तर, जिसका वर्णन रामायण, महाभारत और पुराणों से पूर्ववर्ती वैदिक काल में 'किरात-देश' के नाम से विख्यात है। जो कामरूप और प्रागज्योतिषपुर के नाम से विश्व के प्राचीन साहित्य और यात्रा-वर्णनों में समृद्ध प्रदेश के रूप में अपना स्थान रखता है1 भारत के प्राचीन इतिहास में जिसका विशिष्ट स्थान है, उस ‘अहोम राज्य’ ने 1228 ई. से लेकर सन् 1838 तक पठानों और मुगलों के सत्रह आक्रमणों का मुँहतोड़ जवाब देकर स्वतंत्रतापूर्वक अपनी सत्ता कायम रखी वह शक्ति-संपन्न समृद्ध राज्य के रूप में प्रतिष्ठित रहा है।

इस ऐतिहासिक सत्ता से हम सब परिचित हैं कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद षड्यंत्रों की आधारशिला पर बंगाल में अपनी सत्ता कायम की। पूर्वोत्तर को 'आसाम प्रोविंस' नाम देने से पहले ब्रिटिश राजनैतिक अधिकारी इसे बंगाल का ही भाग मानते थे, इसलिए यह समझना आसान है कि हम भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के स्वाधीनता संग्राम को स्वीकारते हैं, परंतु विदेशी-तंत्र को भारतभूमि से उखाड़ फेंकने का संघर्ष तो पूर्वोत्तर के इस अंचल में एक शताब्दी पूर्व ही आरंभ हो गया था, जब ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सत्य को मन-प्राणों से स्वीकार करने वाली भारतभूमि की हवाओं में फूट डालो और राज करो’ के नकारात्मक मूल्यों को घोलने वाले अंग्रेजों के राजनीतिक प्रतिनिधि डेविड स्कॉट ने 1765 में अपनी चालों में उलझाकर स्वयं को बंगाल का दीवान घोषित कर दिया। किंतु श्रीमन्त शंकरदेव की यह पावन-धरा भारतीय संस्कृति के ख्यात उद्घोष वीरभोग्या वसुन्धरा' को चरितार्थ करती है। पूर्वोत्तर प्रदेश के क्रान्तिकारियों और वीर-प्रसूता वीरांगनाओं ने अपने शौर्य और पराक्रम के बल पर ब्रिटिश सरकार से लोहा लिया। पूर्वोत्तर से ऐसे अनेक वीर योद्धा और वीरांगनाएँ हुईं, जिन्होंने इस देश के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन न्योछावर कर दिया। कितनों ने सीने में गोलियाँ खाईं और कितने ही वीर मातृभूमि की रक्षार्थ फाँसी के तख्ते पर चढ़ गये। किंतु राष्ट्रीय धरातल पर पूर्वोत्तर के ऐसे स्वातंत्र्य वीरों और वीरांगनाओं की कोई खास चर्चा नहीं है और न ही लोग इनके त्याग और बलिदान को पहचानते हैं। केवल राज्य की सीमा तक इनकी शोर्यगाथाएँ सीमित रह गयीं है।2

दुर्भाग्य से एकपक्षीय ऐतिहासिक लेखन ने उनके नामों को भारतीय आम जनमानस तक नहीं जाने दिया और उन्हें विस्मृत कर दिया गया, किन्तु साम्प्रतिक ऐतिहासिक पुनर्लेखन में उन भूली-बिसरी वीरांगनाओं को याद करना अब हम सभी की जिम्मेदारी बन जाती है। पूर्वोत्तर की इस पावन धरा पर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विरोध का बिगुल बजानेवाली वीरांगनाओं में कनकलता बरुवा, भोगेश्वरी फुकननी, पुष्पलता दास, चन्द्रप्रभा शइकीयानी, किरणबाला बरा, गुणेश्वरी देवी और हेलेन लेप्चा जैसी अप्रतिम क्रान्तिकारी वीरांगनाएँ हुई हैं, जिनका भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अपूर्व योगदान रहा है।

भोगेश्वरी फुकननी (पहली महिला शहीद)

भारत की आज़ादी की यात्रा लम्बी और कठिन थी। देशभर से हज़ारों महिलाओं ने विभिन्न क्षमताओं में इसमें अपना योगदान दिया था। लेकिन आज उनके अनेक कार्य और बलिदान न ही व्यापक रूप से प्रसिद्ध हैं और न ही उन पर चर्चा की जाती है। विशेष रूप से यह उन महिलाओं के लिए सत्य है, जो स्वतंत्रता संग्राम में आहूत हुई और देश की आज़ादी के लिए निःस्वार्थ भाव से लड़ी। उनकी उपलब्धियों और बहादुरी के किस्सों को शायद ही कभी याद किया जाता है। यदि महिला स्वतंत्रता सेनानियों का कीर्तिगान किया जाता भी है तो उसमें केवल रानी लक्ष्मीबाई, सरोजिनी नायडू और एनी बेसेंट जैसे कुछ प्रमुख नाम ही शामिल होते हैं। जबकि स्वतंत्रता सेनानियों के कई और नाम और कहानियाँ इतिहास के पन्नों में छिपी हैं, जो उन्हें खोज निकालने की प्रतीक्षा में हैं। ऐसा ही एक अकीर्तित नाम वीरांगना भोगेश्वरी फुकननी का हैं।

भोगेश्वरी फुकननी पूर्वोत्तर की पहली ऐसी महिला शहीद वीरांगना हैं जिसने पूर्वोत्तर के लोगों में स्वाधीनता की अलख जगायी। फुकननी का जन्म सन् 1885 में असम के नगाँव जिले के बरहामपुर में हुआ। 20वीं शताब्दी में नगाँव राष्ट्रवादी गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। फुलगुरी और बरहामपुर जैसी जगहों में, विरोध और प्रदर्शनों के माध्यम से उपनिवेश विरोधी भावनाओं को दृढ़ता से व्यक्त किया गया। फुकननी जो एक साधारण गृहिणी और आठ संतानों की माँ थी, उन्हें राष्ट्रवाद में दृढ़ विश्वास था। इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को भारत की आज़ादी के आंदोलन में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया। 1942 में, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान करने का फैसला किया, तब उनकी आयु साठ साल की थी। यह आंदोलन 20वीं शताब्दी की शुरुआत में हुए दूसरे अन्य आंदोलनों यथा असहयोग और सविनय-अवज्ञा आंदोलनों से भिन्न था। इस आंदोलन में प्रतिभागियों के कार्यों की आधारशिला ‘अहिंसा’ थी।

आंदोलन के दौरान अंग्रेज़ों द्वारा बरहामपुर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यालय को ज़ब्त कर लिया गया। इस घटना से क्रोधित उस क्षेत्र की जनता ने पलटवार किया और सितम्बर 1942 में कार्यालय को पुनः मुक्त करा लिया। उत्साहित जनता ने एक सामुदायिक दावत के साथ अपनी जीत का जश्न मनाने का फैसला किया। वहीं दूसरी ओर, औपनिवेशिक अधिकारियों ने अपनी हार का बदला लेने का दृढ़ संकल्प किया। उन्होंने उत्साही कार्यकर्ताओं को परास्त करने और उन्हें दंडित करने के लिए विश्वसनीय कैप्टन 'फ़िनिश' को भेजा। एक आख्यान के अनुसार, भोगेश्वरी फुकननी ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध लोगों का नेतृत्व किया। कहा जाता है कि जब उस कैप्टन ने फुकननी के साथ सबसे आगे रहने वाली एक अन्य क्रांतिकारी महिला ‘रतनमाला’ के हाथों से राष्ट्रीय ध्वज छीनकर उसका अनादर किया तो फुकननी ने उस पर झण्डे के डंडे से प्रहार किया। फुकननी द्वारा प्रहार किए जाने के अपमान को कैप्टन सहन न कर सका और उन्हें गोलियों से भून दिया। अंततः स्वाधीनता की अमर सैनानी फुकननी कैप्टन से लोहा लेती हुयी स्वाधीनता की ‘यज्ञ-वेदी’ में आहूत हो गयी, लेकिन अपने पीछे बहादुरी और देशभक्ति की एक अमूल्य विरासत छोड़ गयी।3

आज, फुकननी असम में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण पूर्वोत्तर के लोगों के लिए एक प्रेरणा स्रोत है। उन्हें अपने देशवासियों के उत्पीड़कों के विरुद्ध लड़ने में न तो उनकी उम्र रोक सकी और न ही उनकी घरेलू ज़िम्मेदारियाँ। भोगेश्वरी फुकननी और उनके जैसी अन्य कईं वीरांगनाओं ने भारत में अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ते और एक स्वतंत्र देश की स्थापना करते हुये अपने प्राणों की आहुति दी। उनका बलिदान हमें उनके पथ पर चलने और राष्ट्र के भविष्य को मज़बूत बनाने में योगदान देने के लिए प्रेरित करता है।

 कनकलता बरुवा (असम की रानी लक्ष्मीबाई)

कनकलता बरुवा जिन्हें ‘बीरबाला और असम की रानी लक्ष्मीबाई के नाम से भी जाना जाता है। वे एक भारतीय स्वतंत्रता सैनानी और एआईएसएफ (अखिल भारतीय छात्र संघ) की नेता थी। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय ध्वज लहराते हुए उन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ मार्च का नेत्तृत्व किया जहाँ भारतीय शाही पुलिस ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी थी। पूर्वोत्तर के स्वतंत्रता सेनानियों में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान राष्ट्रध्वज फहराने वाली 'कनकलता बरुवा' का योगदान अविस्मरणीय है, जिसने सत्रह वर्ष की अल्पायु में राष्ट्रभक्ति को सर्वोच्च स्थान देते हुये, ब्रिटिश पुलिस की गोलियों को झेला और 20 सितम्बर 1942 को अपना बलिदान देकर मातृभूमि का ऋण चुकाया।

असम के बोरंगबाड़ी गाँव में जन्मी कनकलता बरुवा बचपन में ही अनाथ हो गई थीं। पिता ने दूसरा विवाह किया परन्तु कुछ समय बाद उनकी भी मृत्यु हो गयी। मात्र तेरह वर्ष की अल्पायु में ही कनकलता अनाथ हो गयी, जिसके चलते उनके पालन–पोषण का उत्तर-दायित्व उनकी नानी ने संभाला। इन सब मुश्किलों के बावजूद कनकलता का राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की ओर झुकाव लगातार बढ़ता गया। 

सन 1931 में गमेरी गाँव में एक राष्ट्रीय सभा का आयोजन किया गया। उस वक्त वह केवल सात साल की थीं। संयोग से उस सभा के अध्यक्ष प्रसिद्ध नेता ज्योति प्रसाद अगरवाला थे। ज्योति प्रसाद अगरवाला असम के प्रसिद्ध कवि थे। उनके द्वारा असमिया भाषा में लिखे गये गीत घर–घर में प्रसिद्ध और लोकप्रिय हुये। अगरवाला के गीतों से कनकलता भी प्रभावित और प्रेरित हुयी। कहा जाता हैइन गीतों के माध्यम से कनकलता के बाल–मन पर राष्ट्र–भक्ति का बीज अंकुरित हुआ। फिर वही बीज पल्लवित-पुष्पित होता हुआ त्याग और बलिदान की मिसाल कायम की। यही त्याग और बलिदान कनकलता बरुवा को भारतीय वीरांगनाओं की लम्बी कतार में खड़ा कर देता है।

सन 1942 में मुम्बई के कांग्रेस अधिवेशन में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया गया। ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ अभियान धीरे-धीरे ब्रिटिश शासन के विरुद्ध देश के कोने-कोने में प्रसारित हो गया। इस बीच असम के शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इस घटना के बाद असम में अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन और तेज़ होता चला गया। कनकलता बरुआ भीमृत्युवाहिनी से जुड़ गई। इस वक्त उनकी उम्र 17 वर्ष से भी कम थी। 20 सितंबर, 1942 को एक गुप्त सभा में तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा झंडा फहराने का फैसला किया गया। गहपुर थाने के चारों तरफ, चारों दिशाओं से लोगों का जुलूस शामिल होता चला गया। कनकलता दोनों हाथों से तिरंगा झंडा थामे उस जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं। पुलिस थाने के इंचार्ज रेबती मोहन सोम की आंदोलनकारियों को ‘गोली’ मारने की चेतावनी के बावजूद कारवाँ रुका नहीं, परिणामतः गुस्साये थाना इंचार्ज ने कनकलता और उसके साथियों को गोलियों से छलनी कर दिया। किंतु गोलियों की गड़गड़ाहट कनकलता के साहस और शौर्य को नहीं रोक सके और अंत में झंडा फहराकर ही माँ भारती के चरणों में विलीन हुयी। कनकलता की शहादत सम्पूर्ण राष्ट्र में चेतना का स्वर भर गयी।4

रानी गाईदिन्ल्यू (मणिपुर की रानी गेडाऊ)       

भारत के स्वतंत्रता इतिहास को न जाने कितनी ही ज्ञात-अज्ञात मातृ-शक्तियों ने अपनी अद्भुत वीरता, साहस, पराक्रम व बलिदानों से समृद्ध किया है। रानी दुर्गावती से लेकर झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई तक का एक बड़ा ही समृद्ध व शक्तिशाली विस्तृत इतिहास रहा है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर की रानी गाईदिन्ल्यू का नाम भी बड़ा ही उल्लेखनीय व वंदनीय है। 1915 से 1993 तक की अपनी जीवन यात्रा से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को पूर्वोतर का प्रतिनिधित्व देने वाली नागा-रानी गाईदिन्ल्यू या रानी गेडाऊ अध्यात्म से परिपूर्ण राजनैतिक महिला स्वतंत्रता सेनानी थी। जिसे 1982 में भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से भी सम्मानित किया गया।

रानी गाईदिन्ल्यू का जन्म मणिपुर में हुआ था। मात्र 13 वर्ष की अल्पायु में पूर्वोत्तर के क्रांतिकारी नेता जादोनांग के संपर्क में आने के बाद से ही रानी अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संघर्ष में जुट गयी। जादोनांग द्वारा चलाये जा रहे संघर्ष को वहाँ के लोग हेराका आंदोलन कहा करते थे। हेराका का लक्ष्य प्राचीन नागा धार्मिक मान्यताओं की बहाली और पुनर्जीवन प्रदान करना था। अंग्रेजों द्वारा पूर्वोत्तर में सतत बलपूर्वक कराये जा रहे धर्मांतरण का भी जादोनांग व रानी गेड़ाऊ ने कड़ा विरोध किया। जादोनांग द्वारा चलाए गये इस आंदोलन का स्वरूप आरंभ में धार्मिक था किंतु धीरे-धीरे उसने राजनीतिक स्वरूप ग्रहण करते हुये, अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया तथा मणिपुर और नागा क्षेत्रों से अंग्रेजों को बाहर खदेड़ना शुरू कर दिया।

क्रांतिकारी जादोनांग के बाद रानी गाईदिन्ल्यू स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढाने लगी। रानी ने नागाओं के कबीलों में एकता स्थापित करके अंग्रेज़ों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए कदम उठाये। रानी गाईदिन्ल्यू को जादोनांग के बलिदान से उपजे असंतोष के कारण जनता का बड़ा समर्थन मिला। रानी को वहाँ का जनजातीय समाज उनकी पूज्य देवी चेराचमदिनल्यू का अवतार मानने लगा। अपने दिव्य आभामंडल से मात्र सोलह वर्ष की आयु में इस नन्ही-सी क्रांतिकारी बालिका ने अपने साथ चार हज़ार सशस्त्र नागा सिपाही जोड़ लिये। इन्हीं को लेकर भूमिगत रानी गाईदिन्ल्यू अंग्रेज सेना का संहार करती हुई, गोरिल्ला युद्ध से अंग्रेजों को छकाने लगी। रानी की छवि अंग्रेजी सेना में खूंखार यौद्धा की बन गई और वहीं सामान्य वर्ग उन्हें अपनी देवी व उद्धारक मानने लगा।

रानी गाईदिन्ल्यू ने स्वतंत्रता संघर्ष के अपने कठिनतम समय के अनुभवों को सुनाते हुये बताया कि “मैं (रानी) उनके लिए (अंग्रेजों के लिए) जंगली जानवर के समान थी, इसलिए एक मजबूत रस्सी मेरी कमर से बाँधी गई। दूसरे दिन कोहिमा में मेरे छोटे भाई ख्यूशियांग की भी क्रूरता से पिटाई की गयी और इस प्रकार हम दोनों भाई बहन को तरह-तरह की यातनाएं दी गई। कड़कड़ाती ठंड में हमारे कपड़े छीन कर हमें रातों में ठिठुरने के लिए छोड़ दिया गया, पर मैंने धीरज नहीं खोया था।”5 रानी को इंफाल जेल में रखा गया और उन पर राजद्रोह का इल्ज़ाम लगाकर मुकदमा चलाया गया, जिसमें उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी। अंग्रेज रानी गाईदिन्ल्यू से इतने भयभीत थे कि वायसराय ने रानी की रिहाई के लिए असम की असेंबली में प्रश्न पूछने पर प्रतिबंध लगा दिया। अंग्रेजी शासन उन्हें एक खतरनाक विद्रोही मानता था। स्वतंत्रता के पश्चात भी रानी गाईदिन्ल्यू अपने देश, राज्य व समाज की एकता, अखंडता, समृद्धि उन्नति तथा राष्ट्रवाद के भाव से परिपूर्ण होकर मृत्युपर्यंत देशसेवा में संलग्न रही।

रानी रौपुइलियानी (मिजोरम की अमर वीरांगना)

भारतीय स्वतंत्रता के लिए अपनी संतानों सहित स्वयं का बलिदान देने वाली स्वाभिमानी, दृढ़ प्रतिज्ञ और अमर वीरांगना रानी रौपुइलियानी की देशभक्ति चिरकाल तक सबके हृदय में प्रज्ज्वलित रहेगी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्र की जिन वीरांगनाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनमें पूर्वोत्तर के मिजोरम राज्य की रानी रौपुइलियानी (वर्ष 1825-1895) का नाम अग्रणी है। वह आइजोल के राजा ललसावुड़ा की पुत्री थी। स्वतंत्रता के लिए रानी ने अपनी संतानों सहित स्वयं का बलिदान दे दिया। सन् 1825 को जन्मी रानी रौपुइलियानी का विवाह दक्षिण मिजोरम के राजा रौलुरहुआ के भतीजे वानदुला से हुआ। परन्तु विवाह के पश्चात राज्य प्रवास के दौरान वर्ष 1889 में ही रानी रौपुइलियानी के पति का देहांत हो गया। पर वह किंचित मात्र भी विचलित नहीं हुई और अपने राष्ट्र के प्रति समर्पित रही। आरम्भ से ही रानी का दृष्टिकोण तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की विस्तारवादी नीति के प्रति बहुत ही कठोर और निषेधात्मक रहा। वह कहती थी, “इन फिरंगियों को कोई अधिकार नहीं है जो इस तरह मिजोरम में आकर हमें अपने अधीन करने के लिए राजनीतिक चाल चलें।”6 दरअसल साम्राज्यवादी अंग्रेजों का लक्ष्य तो मिजोरम, बर्मा, असम और आसपास के क्षेत्रों को अपने अधीन कर ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करना था। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ब्रिटिश अधिकारियों ने तत्कालीन कई मिजो राजाओं को अधीन करना आरंभ कर दिया। किंतु मिजोरम की इस सिंहनी ने अंग्रेज सैनिकों का वीरतापूर्वक सामना किया। अंतत: जब वह उनकी कैद में आईं तो उन्होंने मुख्यालय तक पैदल जाने की बात को कठोरता से अस्वीकार कर दिया। अत: रानी को लुङलेई तक पालकी में बिठाकर ले जाया गया और 12 अगस्त, 1893 को रानी को लुङलेई के कारावास में भेज दिया गया।

ब्रिटिश अधिकारियों ने रानी के सामने विकल्प रखा कि यदि वह ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा बनाए गये नियमों को स्वीकार करें और अंग्रेजों से संघर्ष छोड़ दें तो वे उन्हें कैद से आजादी के साथ-साथ उनका राजपाट भी लौटा दिया जाएगा। पर देशप्रेम और स्वाभिमान से भरी इस अमर आत्मा ने प्रस्ताव को ठुकरा दिया और कारागार से ही संघर्ष जारी रखा। 18 अप्रैल, सन् 1894 को चटगाँव (वर्तमान बांग्लादेश) के बंदी गृह में रानी को स्थानांतरित किया गया। इसी बंदी गृह में पाँच महीने पश्चात पेट सम्बंधी बीमारी के कारण जनवरी 1895 को भोर की बेला में स्वाभिमानी, स्वतंत्रता सेनानी और देशभक्त रानी रौपुइलियानी वीरगति को प्राप्त हुई।

किरणबाला बरा (असमिया मुक्ति आंदोलन की प्रणेता)

भारतीय असमिया मुक्ति सेनानी और सामाजिक कार्यकर्ता किरणबाला बरा 1904 से 1993 तक रहीं। वह 1930 के दशक के दौरान सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत आयोजित गतिविधियों में शामिल होने के लिए प्रसिद्ध हैं, जिसने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अपूर्व योगदान दिया। 1920 के दशक में अहिंसक आंदोलन के तहत चलाई जा रही गतिविधियों में भाग लेकर किरणबाला स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुई और अपना सम्पूर्ण समय देश सेवा को दिया। उन्होंने अफीम जैसी मादक दवाओं के उपयोग के साथ-साथ विदेशी वस्तुओं के उपभोग का भी पुरजोर विरोध किया, जो असहयोग आंदोलन के प्रमुख उद्देश्यों में से एक था।7 1930 के दशक में कानून तोड़ने के जुर्म में किरणबाला को कई बार जेल जाना पड़ा और यातनाएँ सहनी पड़ी। उन्होंने अपनी रिहाई के बाद विवाह किया और देश की आजादी के बारे में लोगों को उपदेश दिया। 

भारत में महिलाओं को प्रभावित करने वाले सामाजिक मुद्दों यथा- ‘बाल विवाह, सती प्रथा और स्त्री-शिक्षा के महत्व के बारे में लोगों में जनजागरण कर जागरूकता बढ़ायी तथा स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर बल दिया।8 किरणबाला ने संघर्ष के दौरान अंग्रेजों का पुरजोर विरोध करते हुये, लाठीचार्ज और अन्य पुलिस अत्याचारों को सहा। उनका पूरा जीवन गरीबी में बीता। उन्हें हमेशा खाने पहनने के लिए चिंता करनी पड़ती थी, पर वे कभी कर्तव्य से विमुख नहीं हुई। 9 सिंतबर 1932 के दिन आंदोलन के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और स्वाधीनता प्राप्ति तक जेल में ही रहीं।

चंद्रप्रभा शइकीयानी (सामाजिक स्वतंत्रता सेनानी)

असम के कामरूप जिले में गाँव बुरहा (मुखिया) दाईसिंगारी के घर जन्मी, 20वीं सदी की यह महिला स्वतंत्रता सेनानी चंद्रप्रभा शइकीयानी बहुत ही स्वतंत्र दृष्टिकोण के साथ अपने समय से काफी आगे थी।एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में, उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन महिलाओं को उनका अधिकार दिलाने के लिए समर्पित कर दिया, किन्तु इसके साथ ही, चंद्रप्रभा ने एक उथल-पुथल भरे जीवन का नेतृत्व किया। जिसने उनकी बड़ी लड़ाई को आकार दिया। वह सिर्फ 13 साल की थी जब उसने अकाया गाँव में बालिका स्कूल की स्थापना के लिए कई युवा लड़कियों को अपने विंग में शामिल किया और खुद स्कूल जाने से जो कुछ भी ज्ञान प्राप्त किया, उसे प्रदान किया।

बाद में सन 1921 में, उन्होंने असहयोग आंदोलन में सक्रिय भाग लिया और ऐसा करने के लिए असम की महिलाओं को जुटाना आवश्यक था। आखिरकार, उन्होंने ‘असम-प्रादेशिक महिला समिति’ की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया, जिसे असम के पहले संगठित महिला आंदोलन के रूप में जाना जाता है। 13 मार्च 1972 को चंद्रप्रभा शइकीयानी का निधन हो गया। वह एक ऐसी स्वाधीनता सेनानी थी, जो अपने समय से बहुत आगे थी, उन्होंने अपना पूरा जीवन समाज कल्याण और सामाजिक कुरीतियों से महिलाओं को मुक्त करने एवं सशक्त बनाने में बिता दिया।

स्वाधीनता संग्राम में आहूत पूर्वोत्तर भारत की उक्त वीरांगनाओं के अलावा भी ऐसी अनेक विस्मृत वीरांगनाएं है जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र की उन्नति के लिये होम कर दिया। किन्तु शब्दों की संक्षिप्त मर्यादा और सीमित स्थान की रूपरेखा को ध्यान में रखते हुये, यहाँ सभी आहूत वीरांगनाओं का वर्णन कर पाना कठिन है। फिर भी न तो हम उनके त्याग को महत्व दे पा रहे है और न ही बलिदान के गुणों को। अमलप्रभा दास, पुष्पलता दास, अवंति बाई, मातंगिनी हजारा, गुणेश्वरी देवी, शहीद मालती, द्वारिकी दासी, बुध्देश्वरी शइकीया आदि ऐसी प्रमुख वीरांगनाएं है जिनके बलिदान को देश ने समय के साथ भुला दिया है। हम इनके बलिदान को तब समझ पायेंगे जब हमारा उदार ह्रदय इनके प्रति पूर्ण सहानुभूति रखते हुये समरसता की भावना जागृत करेगा।

निष्कर्ष स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में, महिलाओं ने अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए अथक संघर्ष किया है। हमारी समृद्ध साँस्कृतिक विरासत और विविधता से भरे देश में, महिला पथप्रदर्शकों ने स्वतंत्रता और समानता के लिए देश के संघर्ष पर अमिट छाप छोड़ी है। ये महिलाएं सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने, उत्पीड़न के खिलाफ उठने और अपने विश्वास के लिए खड़े होने से डरती नहीं थीं। औपनिवेशिक शासन के खिलाफ सशस्त्र प्रतिरोध से लेकर सामाजिक न्याय के लिए बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन करने तक, भारत की महिला स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी बहादुरी से कई पीढ़ियों को प्रेरित किया है। तप, त्याग और अटूट भावना उनके बलिदान और बहादुरी की कहानियाँ मानवीय भावना की ताकत और महिलाओं की अपनी और अपने समुदायों की नियति को आकार देने की शक्ति का प्रमाण है। नमक मार्च से लेकर युद्ध के मैदान तक, इन महिलाओं ने भारत के समृद्ध इतिहास और संस्कृति पर एक अमिट छाप छोड़ी है। जिनकी विरासत आज भी हमें प्रेरित और सशक्त बनाती है।9

अब समय आ गया है कि स्वाधीनता के यज्ञ में आहूत होने वाली इन क्रांतिकारी वीरांगनाओं को जिनका सम्पूर्ण जीवन राष्ट्रभक्ति और देशप्रेम की बलिवेदी पर समाज के कल्याण हेतु होम हो गया, उनको बिना किसी भेद-भाव के समाज की मुख्यधारा में लाकर राष्ट्र के प्रति नैतिक मूल्यों को स्थापित करना होगा। तभी हम देश के प्रति वास्तविक स्वतंत्रता और नारी-जाति के बहुमूल्य योगदान को अपनी भावी-पीढ़ी को बता पाएंगे।

संदर्भ ग्रंथ

1.   आचार्य, श्रीराम शर्मा, भारत की महान वीरांगनाएं, (2013), युग निर्माण योजना ट्रस्ट प्रकाशन, मथुरा, पृष्ठ 03

2.   भारतीय धरोहर पत्रिका, अंक-04, मई–जून- 2019

3.   स्याल, शांति कुमार, गौरवशाली भारतीय वीरांगनाएं, (2007), राजपाल एंड संस्, नई दिल्ली, पृष्ठ, 47

4.   साहित्य अमृत पत्रिका, अंक-01, अगस्त-2016, पृष्ठ 138

5.   वही, पृष्ठ 140

6.   आचार्य, श्रीराम शर्मा, भारत की महान वीरांगनाएं, (2013), युग निर्माण योजना ट्रस्ट प्रकाशन, मथुरा, पृष्ठ 37

7.   स्याल, शांति कुमार, गौरवशाली भारतीय वीरांगनाएं, (2007), राजपाल एंड संस्, नई दिल्ली, पृष्ठ, 110

8.   वाचस्पति, इन्द्रविद्या, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास, (2019), सस्ता साहित्य मंडल, पृष्ठ 119

9.   भारतीय धरोहर पत्रिका, अंक-04, मई–जून- 2019


यह लेख डॉ. रमेश चंद सैनी द्वारा kangla.in के लिए लिखा गया है। लेखक सहायक आचार्य (अतिथि प्रवक्ता) हैं। उनसे rameshsaini11211@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। दूरभाष/मोबाइल: 9001166242 पता: ग्राम/पोस्ट – रजलावता, तहसील नैनवाँ, जिला बून्दी (राजस्थान) – 323801                             

 

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