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“सुमाङ लीला में मणिपुरी समकालीन समाज”

सुमाङ लीला मणिपुर का लोकप्रिय पारंपरिक रंगमंच है, जिसमें पुरुष कलाकार महिला भूमिकाएँ निभाते हैं और महिला समूहों में पुरुष पात्र महिलाएँ निभाती हैं। यह खुले मैदान में प्रस्तुत होता है। इसकी उत्पत्ति तंगखुल नुराबी लुटाबासे मानी जाती है। इसमें हास्य, मूकाभिनय, गायन, नृत्य व कहावतें शामिल हैं। इसका विकास चार कालखंडों में हुआ।

बीजशब्द:

मणिपुर समाज, लोकप्रिय, रंगमंच, पारंपरिक, सामाजिक-राजनैतिक, आर्थिक, लोकभावना, धार्मिक, मानवीयकरण, जवाबी कार्यवाई, राष्ट्रवाद।

 

मूल आलेख  :

सुमाङ लीला मणिपुर के एक लोक प्रिय रंगमंच का पारंपरिक रूप है। इसमें महिला पात्र की भूमिका पुरुषों द्वारा निभाया जाता है और महिला थिएटर समूह में पुरुष पात्र का मंचन महिला कलाकारों द्वारा किया जाता है। यह रंगमंच खुले मैदान में प्रदर्शन किया जाता है और चारों ओर से देखा जाता हैं। सुमाङ लीला का उत्पत्ति 400 ईसा पूर्व या आज से 2400 साल पहले माना जा सकता है क्योंकि इसकी उत्पत्ति लाई हराओबा के अंतिम दिन में प्रदर्शित “तंगखुल नुराबी लुटाबा” से माना जा सकता है। ठोस ऐतिहासिक साक्ष्यों के अभाव के बावजूद इस बात से सभी विद्वान इस बात से सहमत है क्योंकि परवर्ती समय के मणिपुरी नाटकों में सुमाङ लीला के सभी तत्व है जैसे— हास्य, मूकाभिनय तत्व, संस्कारों के सरल और सार्थक संवादों, पारंपरिक कहावतें, पहेलियां, गायन, और नृत्य।

 

आम तौर पर सुमाङ लीला का काल खण्ड 4 भागों में बांटा जा सकता है—

  • चंद्रकीर्ति महाराज (1851–1886) के शासन काल (विषेश रूप से 1867 से, जिला दरबार के वापसी के बाद) से चुराचंद महाराज (1891–1941) के अंतिम शासन काल तक।
  • 1942ई० (मणिपुर में द्वितीय विश्वयुद्ध के आरंभ) से 1955 ई० तक।
  • 1956 ई० से सातवें दशक तक।
  • 20वीं सदी से अब तक।

चंद्रकीर्ति महाराज (1850–1886) के शासन काल के दौरान फागी लीला की शुरुआत हुई। इसमें उस समय के हास्य कलाकारों जैसे अबुजंबा साइतोन और खरीबम लाइशुबा को महल में बुलाया जाता था और उनसे दरबारियों विशेषकर शाही महिलाओं के मनोरंजन के लिए प्रदर्शन कराया जाता था। बाद में लैथाङबा, उरीत महुम, हैनिंगमरू   आदि हास्य कलाकार लोक प्रिय कलाकार बन गए। फागीलीला का मंचन दुर्गापूजा उत्सव के दौरान भी किया जाता था। यह पूरी तरह से कॉमेडी थी, जिसमें दर्शकों का मनोरंजन करने के लिए मौके पर ही बेतुकी कहानियां गढ़ी जाती थी।


चुड़ाचांद महाराज (1891–1941) के शासन काल के दौरान मोइराङ पर्व, मंडाव लीला और फागी लीला जैसे फदीबी पला और काबुली पला लोकप्रिय थे। वर्तमान समकालीन सुमाङ लीला को मांडव लीला और फागी लीला से जन्मे संयोजन के रूप में माना जा सकता है क्योंकि उन में मौजूद सभी तत्व सुमाङ लीला में मौजूद है। कोंगपाल मोइराङ पर्व भी लोकप्रिय नाटक थे। ये बिना किसी लिखित लिपि के थे और मौखिक लोक कथाओं और गीतों से लिए गए थे। शुरुआती सुमाङ लीला प्रदर्शनों में हरिश्चंद्र(1918), साबित्री सत्यवान, मेराबाचरण, थोक लीला आदि का उल्लेख किया जा सकता है। इसीकाल में चुङखाम इबोहल नमक एक प्रतिभाशाली कलाकार उनकी मंडली ने एक प्रदर्शन किया— इंफाल नदी का उपयोग करने वाले लोगों पर लगाए गाये जल कर के खिलाफ़ व्यंग्यात्मक नाटक (the water tax levied on people using Imphal River)। यह सुनकर, राजा ने उसे गिरफ्तार कर लिया।


मणिपुर में 1942 ई० से 1945 ई० तक द्वितीय विश्व युद्ध का असर पड़ा। मणिपुर के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक रूपों में काफी बदलाव आया। इसका असर सुमाङ लीला की परंपरा पर भी पड़ा। 1950 ई० में बोधचंद्र महाराज के शासन काल में पहला स्क्रिप्टेड नाटक शुरू हुआ। “पुयामई थाबा” वही पहला स्क्रिप्टेड नाटक था जो एक ऐतिहासिक नाटक था। यह नाटक निङोम्बम अड़ौतोन द्वारा लिखा गया है। इसके बाद “बी ए मपा लम्बोइबा” जो कोंगब्राईलत्पम नोङमाइजिंङ शर्मा द्वारा लिखा गया है, का प्रदर्शन हुआ। यह एक सामाजिक नाटक है। इस नाटक से मणिपुरी सुमाङ लीला परंपरा में धार्मिक ,सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक स्थिति आदि पर ध्यान केंद्रित करना शुरू हुआ। इस काल अवधी में राष्ट्रवाद और लोक भावना के बीच टकराव, ठेकेदारों का बढ़ना, एक तरफ अर्थव्यवस्था में अचानक वृद्धि और दूसरी तरफ गरीबों की हालत और बिगड़ना और साथ ही व्यंगात्मक नाटकों में केंद्रित किया गया। यह 1955 ई० तक चलता रहा।


तीसरे कालखंड (1956 ई० से 70वीं दशक तक) में सुमाङ लीला के साहित्यिक परंपरा, अभिनय, नाटकीय, वेष भूषा, संवाद आदि में काफी बेहेतर बदलाव आया। नाट्य लेखक, निर्देशक आदि की सांख्या बढ़ गई। रेडियो, टेलीविजन, फिल्म और थिएटर का प्रभाव सुमाङ लीला पर पड़ा। सामाजिक परिस्थितियों को दिखाने और समाज सुधार के लिए सुमाङ लीला का प्रयोग किया गया। तीसरे काल खंड में सुमाङ लीला का एक नया रूप उभरा –इपॉम लीला। यह एक ऐसी नाटक विधा है जिसकी कोई लिखित रुप नहीं होता। इसमें अभिनेता अपने अनुभवों से अपने शब्दों में बोली जाती है और एक दूसरे से बातों का आदान-प्रदान करता है। यह ज्यादातर स्वांग होता है और दो तीन लोगों के बीच इंप्रोवाइज किया जाता है। इसके प्रसिद्ध कलाकार मयाङइंफाल तोम्बी, ओईनाम बाबू, तखेल्लमबम चाओबा है। इसी बीच कुछ नाटकीय संस्थान जैसे थियेटर सेंटर मणिपुर, मणिपुर स्टेट कला अकादमी और मणिपुर सरकार के प्रचार विभाग ने सुमाङ लीला का समर्थन किया। लगभग सन् 1973 से मणिपुर स्टेट कला अकादमी ने सुमाङ लीला फेस्टिवल का अयोजन करना शुरू किया। इससे सुमाङ लीला का विशेष रूप से उन्नति प्राप्त हुई।


चौथे काल खंड में सुमाङ लीला का विषय देश विद्रोह, जवाबी कार्यवाई, अमानवीकरण, मानव अधिकार छीनना, अत्याचार आदि पर केंद्रित किया गया है। शुरू से समाज सुधार तथा लोगों को शिक्षित करना और समाज में बढ़ रही बुराइयों को लोगों तक पहुंचाना इस नाट्य परंपरा का एक मुख्य उद्देश्य रहा है। इसी दौरान सुमाङ लीला के परम्परा में “ईसै लीला” का विकास हुआ। इस प्रकार के सुमांग लीला में गीत शामिल होती है। प्लेबैक गायक के मदद से कलाकार स्टेज में अपना मुंह हिलाकर गाने का अभिनय करता है।


सामाजिक परिस्थिति, समाज में जीवित लोगों की स्थिति, लोगों का डर, इच्छा, सपने आदि को एक साथ बांधकर सुमाङ लीला की कथा वस्तु अग्रसित होती है। इस प्रकार यह नाट्य के रूप में कला को एक महत्वपूर्ण योगदान है। सिर्फ मणिपुर के समाजिक समस्याएं ही नहीं बल्कि विश्व के स्तर की समस्याओं पर भी केंद्रित किया गया है। जैसे बीन लादेन जैसे रूढ़िगत व्यक्ति के कुकर्मों को “वर्ल्ड ट्रेड सेंटर” नमक सुमाङ लीला में देखा जा सकता है। यह रंजित निङ्थौजा द्वारा लिखा गया है, बिरजित ङाङोम्बा के निर्देशन में सना लैपाक नाचोम आर्टिस्ट ग्रूप द्वारा प्रदर्शन किया गया नाटक है। इसके साथ “लिडिसी गी गुलाब” (लिडीसी का गुलाब), रेस्टाफेन आदि सुमाङ लीलाएँ भी उल्लेखनीय है।


समकालीन मणिपुरी समाज की ओर देखा जाए तो हम “21stसेंचुरी गी कुंती” (भाग1–7तक) उल्लेखनीय है। इसमें समकालीन मणिपुरी समाज को बहुत अच्छे से दर्शाया गया है। समकालीन मणिपुरी समाज, देश आदि सब कुछ बहुत संयोजित ढंग से दर्शाया गया है। यह नाटक एक स्त्री की और उसके परिवार की है जो पढ़ाई के लिए मणिपुर के बाहर दूसरे देश में जाती है और वह एक पंजाबी लड़का (जिसका परिवार मणिपुर में रहता था) के साथ नाजायज़ संबंध रखती है और अपना बेटा वही छोड़ आती है। मणिपुर आकार वह एक एम सी एस ऑफसर से शादी कर लेती है जो बहुत सीधा और उस से बहुत प्रेम करने वाला था। वह उनके साथ दो बेटे की मां बन गई थी और वह अपनी विवाहित जीवन बड़ी सुख-शांति से जी रही थी तब उसका पहला पति उसकी तलाश में मणिपुर पहुंचा और उसने वापस लौटने के लिए कहता है लेकिन वह राजी नहीं होती और आपने पहला पति और बेटे से अंतिम विदाई दे कर घर वापस लौटी है।लेकिन उनके पति को सब जान पड़ता है और तलाक देता है। ऐसे कर के इसकी अंतिम भाग तक उन के बच्चों के बीच तकरार, तनाव, देश की समस्या, राजनीतिक आतंक वादी आदि की समस्याएं दिखाई देता है। यह नाटक काफी लोकप्रिय है। यह सुमाङ लीला बिरजीत ङाङोम्बा के निर्देशन में मनाओबी एम.एम. द्वारा लिखा गया है। इसके साथ कुछ उल्लेखनीय सुमाङ लीला इस प्रकार है –

सनागी ङा, मंदिर दा मौ आहुम, मेमसाहेब की साड़ी ,निङोलचाकौबा, पिज़्ज़ा, मौअहूम निंगोल अमा, निपाल सूबा मापोक आदि।


निष्कर्ष : आज सुमाङ लीला लोगों को मनोरंजन करने के साथ सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक स्थिति और बढ़ती हुई भावों की गरीबी को लोगों तक पहुँचाता है। आज के समकालीन सुमाङ लीला समाज को विकसित करने का एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। समकालीन मणिपुरी समाज को सुमाङ लीला के माध्यम से बहुत आसानी से समझ सकते है।



यह लेख दयापति अथोकपम द्वारा kangla.in के लिए लिखा गया है। लेखिका शोधार्थी, हिंदी विभाग, मणिपुर विश्वविद्यालय, कांचीपुर हैं। उनसे संपर्क किया जा सकता है।

 

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