विस्मृति के गर्भ से
मणिपुरी साहित्य के मुर्धन्य साहित्यकार जी.सी. तोङब्रा (तोङब्रम गीतचन्द्र- 1916–1996) नाटककार, कवि, व्यंग्यकार और साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध थे। उन्होंने मणिपुरी साहित्य में आधुनिक नाटक और सामाजिक व्यंग्य की परंपरा को मज़बूत दिशा दी। उनकी रचनाएँ समाज, राजनीति और शिक्षा-व्यवस्था पर तीखे व्यंग्य और यथार्थवादी दृष्टि के लिए जानी जाती हैं।उनकी प्रमुख नाट्य-कृतियों में ‘मणि ममौ’, ‘मैट्रिक पास’ आदि शामिल हैं। साहित्य और रंगमंच में मूल्यवान योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री (1975) तथा साहित्य अकादेमी पुरस्कार (1978) से सम्मानित किया गया। वे मणिपुरी आधुनिक नाटक के प्रमुख स्तंभ एवं समाज के प्रति संवेदनशील चिंतक के रूप में याद किए जाते हैं। उनकी संस्मरणात्मक रचना- ‘निङसिङलगा ईबा’ का प्रस्तुत है हिंदी में अनुवाद।
इंसान कुछ
अपेक्षाएँ रखता
है, तो भगवान कुछ और देता है। बाबूजी
मुझे पढ़ाई लिखाई के क्षेत्र में आगे बढ़ता
देखना चाहते हैं, परंतु मैं, कंचे खेलना, स्टापू खेलना इत्यादि में माहिर
निकला। बाबूजी के जमाने में अंग्रेजी का अध्ययन
निषेध था, इस कारण
वे अंग्रेजी नहीं सीख पाये। बाद में उन्हें पछताना
पड़ा। इस वजह से वे मुझे ढंग से पढ़ने-
लिखने के लिए जोर देते हैं। बाबूजी मुझे स्वादिष्ट भोजन, अच्छे कपड़े एवं बढ़िया जूते दिलाते हैं ताकि पढ़ाई-लिखाई
में कोई चूक न हो
जाय । अभ्यास में कोई कमी न रह
जाए, इसलिए बाबूजी हमेशा निगरानी रखते
हैं। बदमाशी करने पर पिटाई भी
होती है। पिटाई के लिए एक डंडा भी तैयार रखा रहता है। जब पिताजी
मुझे घर में पढ़ाते थे तब मैं एक कुशल विद्यार्थी रहा करता था। पढ़ाई में मन लगता
था। विद्यालय जाने में बड़ा आनंद आता था। जब चौथी और
पांचवी कक्षा में पहुचा तो बंग्ला माध्यम से पढ़ाई होने लगी, तब से
पढ़ाई लिखाई में कई मुश्किलें
झेलनी पड़ी।
इतिहास और भूगोल जैसे विषयों का बंग्ला भाषा में रट्टा लगाना
बच्चों के लिए एक खड़ी पहाड़ पर चढ़ने के
बराबर था। जो
भी ढ़ंग से रट्टा नहीं मारता
उनकी बुरी
तरह से पिटाई तय होती।
मास्टरजी झाड़ियों की टहनी तौड़
कर, बच्चों
की आँखें
नम होने तक उनकी पिटाई
करते हैं। 'चाहे जो भी हो जाय, स्कूल प्रतिदिन जाना
अनिवार्य है, कोई भी दिखावा नहीं चलेगा। पेट में दर्द
होने की नौटंकी भी नहीं चलेगी। एक-दो दिन की बात है, बेटा', दीवार पर लटका डंडा हर वक्त मेरा इन्तजार करता
रहता। स्कूल में भी कम परेशानी नहीं
है। पाठ बिना याद किये स्कूल आने का मतलब मार खाना। बाकी विषय की चिंता कम रहती है ,
परंतु इतिहास और भूगोल के
पाठ यदि ढ़ंग से नहीं रटा,
तो अपने नेत्रों से प्रेम की धाराएँ बहाने
के लिए प्रचूर मात्रा में जल ग्रहण कर विद्यालय में उपस्थित होने का संकेत बंगाली हाईस्कूल के चारों ओर लगी झाड़ियाँ
दिया करती। बच्चों की पिटाई
के लिए मास्टरजी द्वारा झाड़ियों
की टहनियों को अनेक बार तौड़े जाने पर ऐसा प्रतीत होता कि ये झाड़ियाँ मास्टरजी के प्रति निराश होकर बैठी
हैं। पूरे वर्ष
में एक बार भी ढंग से नहीं खिल पातीं।
अनेक बार टहनियों को तोड़ते वक्त
मास्टरजी के हाथों में झाड़ियो के काटों से चोट लगती, परंतु वे बच्चों को दंड देने से कभी भी पीछे नहीं रहे। घर में भी पढ़ाई में मन न लगने के
कारण अनेक बार डंडे का सामना करना पड़ा, तब भी कुछ सुधार न हो सका। काटों की
विनती ठुकराकर,
झाड़ियो की निंदा
को नजरअंदाज
कर निर्दय मास्टरजी बुरे तरीके से हमारी
पिटाई करते थे। कोई छिप-छिपकर आँसू
बहाता तो कोई बुक्का फाड़कर रोता,
परंतु मास्टरजी की आंखो में हमारे लिए दया की भावना
कभी दिखाई न देती। लगातार डंडा लिए रहने वाले
पिताजी और मास्टरजी को
बच्चों को मारने की आदत
पड़ गई थी, उनके हृदय में दया की भावना न के बराबर रह गई और हम अधिकांश बच्चों को भी मार खाने की आदद सी
पड़ने लगी। सहन करने की ताकत आ गई। सजा होने का भय भी धीरे धीरे जाता रहा।
सजा भुगतने की आदत पड़ते के बाद
भी पिटाई का सुख
कौन लेना चाहता है? अत:
प्रत्येक विद्यार्थी दंड से बचने का उपाय खोजते रहते। पिताजी के दबाव में
चल रही पढ़ाई-लिखाई
त्याग कर स्वयं की इच्छानुसार अन्य कोई विद्या ग्रहण करने का विचार मेरे
मन में जागृत हो उठा। उन दिनों बच्चों के बीच कंचे खेलना प्रचलित था। सही निशाना लगाने वाले को लोग
अलग ही भाव देते थे। इससे भी अधिक रुचि मुझे स्टाप्पू और धाक्का[1]
खेलने में आता था, जिसके कारण
खेलते समय हर वक्त मैं अपने निशाने
पर केंद्रित करता रहता। बच्चे विद्यालय में
अंतराल के समय पर या घर में पढ़ाई लिखाई होने के बाद अपने खाली समय में कंचे खेलते हैं, इसमें किसी का कोई अवरोधन नहीं है। मना तो धाक्का खेलने में है। इसे लोगों
की नजरों से बचकर खेलना होता है।
स्कूल के बाद चीङा-पिशुम के खेतों-मैदानों में, जहाँ जान पहचान
वाला कोई न दिखे,
वहाँ हम जी भर कर
धाक्का खेलते । पत्थर के एक छोटे टुकड़े
से दिए गए लक्ष्य पर निशाना लगाने में सभी अपनी-अपनी
कुशलता दिखाते। महीने के पंद्रह दिन पिताजी के डर से विद्यालय में मार खाने जाता और शेष पंद्रह दिन स्कून में
न पहुँचकर कहीं
और जाकर मन पसंद धाक्का खेल, अपने निशाने को ओर बहतर बनाने में
लगा रहता।
पढ़ाई-लिखाई के मुकाबले निशानेबाजी में मेरी ज्यादा रुचि थी
। मनचाही विद्या की यह विशेषता है कि इसमें
अभ्यास करते ही शीघ्र ही निपुण
हो जाते हैं। बड़ो का मानना
है कि धाक्का खेलना जुए के मार्ग में
प्रवेश की प्रथम सीढ़ी है, इसलिए जहाँ भी यह खेल दिखे मार-पीट शुरू होने लगती।
सभी की नजरों से बच कर खेलने में ऐसे आनंद का
अनुभव होता है,
मानो मजे से छुप्पन-
छुप्पाई
खेल रहे हों।
जटिल स्थान पर निशाना लगाने में जो मजा आता है, उसका अलग ही आनंद है। 'नाय केप ऑल नाथिंग' कहकर गड्ढे के किनारे लगे कंचे पर निशाना
लगाने में जो संतुष्टि मिलती है, पिताजी और मास्टरजी क्या जाने उसका आनंद।
यदि वे बच्चों की
रुचि थोड़ा भी समझ सकते
तो शिक्षण प्रक्रिया को भी कुछ हद तक सुधार कर अधिक सरल बनाते
और पढ़े-लिखे लोगों
की संख्या भी ज्यादा होती। पाठ्य पुस्तक में पड़े ज्ञान को
ग्रहण करने से अधिक निशानेबाजी की कला सीखने में मन प्रसन्न होता । एक सजा काटने की भाँति कड़वा
है तो दूसरा जलेबी की तरह मीठा। इस बात
को पढ़ाने वाले तथा पढ़ने वाले दोनों को
ध्यान में रखकर विचार करना चाहिए।
कक्षा छोड़कर धाक्का
खेलना, कंचे खेलने का अभ्यास करने में अलग किस्म का मजा तो आता ही है किंतु लंबे समय
तक कोई इसमें
मजा नहीं ले सकता। क्योंकि घरवाले और
मास्टरजी ऐसी हरकतों को पकड़े जाने पर अक्सर पिटाई करते हैं। आज जो हम घर से सुबह जल्दी खाना खाकर
पाठशाला जाने का नाटक करके कहीं ओर जाकर खेल रहे हैं, कहीं पिताजी को पता चला तो क्या होगा ? यदि
पिताजी स्कूल पर मुझे मिलने आये और वहाँ मैं अनुपस्थित रहा, तो क्या वे मुझे आसानी से छोड़ेंगे
?
क्या वे मुझे घर में रहने देंगे ? और
यदि स्कूल से मेरे निरंतर अनुपस्थित
होने पर जाँच करने के लिए घर पर मास्टरजी आ गए तब मेरा क्या होगा ? अनेक बार झूठी कारण बता कर छुट्टी
ली थी।
अब तो छुट्टी लेने
के लिए उच्चित कारण भी नहीं बचा । एक बार तो छुट्टी
के आवेदन पत्र पर
अपनी नानी के कर्णवेध संस्कार बताकर छुट्टी भी ली
थी। इस प्रकार बच्चे कक्षा छूटने के
लिए अवकाश पत्र लिखते लिखते छोटी
मोटी कहानिया लिखना सीख लेती है। स्कूल
में बताने के लिए सच्ची घटना जैसे लगने वाले कहानी, घर वालो
को सुनाने के लिए छोटी-छोटी
कहानियाँ तैयार करना सरल कार्य तो नहीं है। और यदि रची गई कहानी में कुछ गड़बड़
हुआ, तो समझो बारिश सी जमकर पिटाई होनी ही होनी है। कल
हमारे पड़ोस में रहने वाली माधबी नामक एक युवती ने
देश सेवा के सिलसिले में सन्यास ले लिया और जंगल की ओर चली गई। कल
पूरे दिन उन्हें ढूंढने में लगे रहने के कारण विद्यालय में उपस्थिन न हो सका।
कृप्या एक दिन का आवकाश प्रदान करे। इस बात को सुनकर कितने शिक्षक छूट्टी के लिए हा कहेंगे।
विद्यार्थियों के बीच में ऐसे धुरंधर भी है जिनकी
कल्पना शक्ति की कोई सीमा नहीं है। ऐसे बच्चे अपनी
झूठी कहानियों को भी इस प्रकार पेशा करता
है, जिसे सुनकर सामने वाले को यकीन न
होने का सवाल
ही नहीं उठता। अपनी
इस खुबी का लाभ उठाते हुए वह अनेक बार
कक्षा से छूटकारा पा लेता
है। लोगों का मानना है कि इस तरह के बच्चे बहुत शातिर होते
हैं,
कहानियाँ बनाने में उनसे मुकाबला करना किसी के बस की बात नहीं है। हाँ,जी मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ। मन लगाकर प्रयास करने
से तो लोग कुछ भी सीख लेते
हैं। कहानी लेखन के क्षेत्र में पहला कदम कक्षा से छुटकारा
पाने के लिए बनी बनाए कहानी रचने से आरंभ होता है। वास्तविकता
की भाव प्रदान कराने वाले कहानियों की रचना करना
ज्यादा कठिन होता है,
अत: अधिक परिश्रम लगता है। यदि मास्टरजी को थोड़ा सा भी
संदेह हुआ तो घोर संकट में पड़ने की
संभावना रहती है।
इसी बात को ध्यान में रखते हुए बच्चे बड़े सावधानी से कहानियाँ
तैयार करते हैं। इस तरह की
हरकते ज्यादातर शरारती बच्चे ही करते हैं।
शनिवार के दोपहर को
विद्यालय से घर लौटते वक्त अगले दिन की छुट्टी
को लेकर जो मन में खुशी होती थी, वह शब्दों से वयान करने में
कम ही पड़ जाएगा। दूसरी ओर रविवार की
शाम को सूर्यास्त होते होते अगले दिन के ख्याल
में हमारे मन की चिंता धीरे धीरे बढ़ जाती थी। आज भी उसी क्षण को
याद करके दुखी होता हूँ। शीत ऋतु के आगमन के दौरान
एक सोमवार को पीताजी ने
मुझे स्कूल न जाकर मामा जी के साथ खेत में गाय चराने के लिए आदेश दिया। मुझे आज
अहसास हुआ कि वह दिन अपने जीवन के सबसे
बहुमूल्य दिन है। पीछले दिन यानी रविवार को मैं अपनी
कल्पना
के घोड़े बिना लगाम के स्वेच्छा
से सवार कर खेलता था। उस खेल को पूरा होने से पहले अगले दिन के इतिहास और भूगोल की चिंता ने कल्पना के घोड़े पर
बिठाये कई सारे ख्वाब उसी क्षण गायब हो जाते थे। परंतु उस सोमवार पीताजी द्वारा
कहे गए काम से ऐसा प्रतीत हुआ
कि मुझे अपने अधूरे खेल को पूरा करने में सहयोग दे रहा है। मुझे आज भी वह उल्लास
से भरा दिन सदैव याद रहेगा जब पिताजी ने मुझे
पूरी आजादी के साथ खेत में भेजा था। सुबह सूर्य की धूप सैंकते सैंकते मामाजी और मैं
ने पान-ईरोम्बा[2]
और ङाटोन-ङारेल[3]
की सब्जी का सेवन किया। चावल पिछली रात का बनाया हुआ होने पर भी
बहुत स्वादिष्ट था। जब शरीर
स्वस्थ और मन खुश हो, तो सभी
प्रकार के भोजन स्वादिस्त लगता
है। इस तरह दस-ग्यारह गाय को संभालते संभालते गौरसिंह, खोङनाङ खोङ नामक एक स्थान पर
पहुँचा और वहाँ गायों को खेतों की ओर छोड़कर मनमरजी से घास चरने
दिया। मामा जी और मैं एक छोटे
से नहर की
धारा को बीच में रोक कर बाँध बनाया और वहाँ से पानी निकाल कर कई प्रकार की मच्छलियों को पकड़ा। पर्याप्त होने
पर इन्हें इकट्ठा किया और सूखी
घास एवं गोबर में आग जलाकर इन्हे पकाया और भरपेट सेवन किया। मामा जी सिगरेट पीकर
खेत के पगडंडी पर चादर बिछाकर विश्राम करने लगे और में पोरोंङ खोजने में लगा
रहा। मैं अकेला दाये बाये करके कुश्ती खेलता रहा, सीटी बजाता रहा, कभी गाता रहा तो कभी जोर-जोर से चिल्लाकर ध्वनियों की गूँज सुनता रहा।
पगडंडी को तकिया बनाकर उस पर लेटा और आसमान में
उड़ते वर्ड्सवर्थ के बादल और
शेली की पक्षी को देखा। कई सारे काल्पित कहानियाँ मन में स्वयं बनने लगे, आपस में युद्ध करने लगे। बाधाओं से मुक्त,उल्लास
भरा मन के साथ शाम की
बहती हवा का
आनंद लेना, ढ़लते
सूर्य का दर्शन करना ,
गाय को घास चरते देखना , राह चलते लोगों को देखकर मन में उन से संबंधित कई
सारे खयाल आने लगते हैं
। जब राजा पृथ्वीराज चौहान को अपने संजुक्ता स्वयंवर सभा से उठा कर अपने देश ले
आने में जो आनंद आया होगा, वही आनंद अनुभव हुआ। वर्ड्सवर्थ की ' वेकेन्ट माईन्द ' यानि शून्यचित
मन की उपस्थिति में ही खूबसूरत
एवं आनंदायक विचार उभरकर आते है। बाधाओं से भरे
जीवन में भेद-भाव रहित साहित्य का बीज उगना असंभव
है। रचनाएँ रचने के लिए मन की बोझ से
मुक्ति पाना जरूरी है। यदि एक बार लत लग जाय, तो कविता
बाजार के चौखत पर बैठ कर भी लिख पाओगे। युवावस्था में मन को नियंत्रित करना भी मक्खी
पकड़ने जैसा बहुत कठिन होता है। सही अवसर न मिलने पर असुविधाओं का सामना जो करता
वही व्यक्त कर रहा हूँ। उस दिन मन को एक अलग प्रकार का
राहत मिला था। सभी चिंता से मुक्त। उस
दिन न मैं कक्षा छोड़ कर खेलने आया था और न घर से बिना
बताए। इसलिए न पिटाई होने का भय न डाँट सुनने की
परवाह। ऐसी अवस्था में रचनाएँ लिखना कितनी उत्पादक होती है। इस
से हमें यह सीख मिलती है कि कविता या कहानी रचने के लिए मन को शांत रखने वाले पर्यावरण की
आवश्यकता है।
एक बार मैंने अपने पुराने घर
के उपर लगे गंदे तने वाले अमरूद के वृक्ष पर कुछ पक्के अमरूद का फल जो मुठ्ठी के आकार का है, छिप कर लगा पाया। अश्चर्य की बात है, इतने दिनों से मुझे दिखाई
क्यों नहीं दे रहा था। कई दिनों
से मेरी निगाहों से बचकर वे पक सकते हैं, इसी बात को लेकर अमरूद हँस रहा था । शरद ऋतु के साफ सुथरे आसमान पर
सफेद बादल बिना संकोच के खेल रहे हैं, खमब्राङचाक[4]
पक्षी अपने इच्छापुर्वक जैतून की
तटनियों पर बैठ कर चहक रहे हैं। दुर्गा पूजा की छुट्टियों से हर्षित हुआ, मैं इन अमरूद से भेंट होने का तात्पर्य यह था कि भविष्य में मुझे रविन्द्रनाथ , कीट्स, कालिदास आदि पढ़ने का अवसर भी
मिलेगा। इतना स्वादिष्ट फल मैंने कभी नहीं चखा, न बाद
में खाने का अवसर मिलेगा
और न ही उम्मीद है। हर व्यक्ति सही मौके पर इस तरह के काव्य या गद्यों के तत्व से
परिचित होता है। प्रत्येक व्यक्ति के उपर कभी न कभी कवित्व जाग्रित होता है। इस
जागरण को कायम रखना ही उस के अंदर की
कवि को जीवित रखने के बराबर है। कोई भी
जन्म से कवि नहीं होता।
चालिस वर्ष पहले हमारे तालाब में लाल रंग के कई सारे कमल के फूल इस प्रकार खिला करते कि इसे देखने के लिए कई सारे लोग अनेक जगहों से आते थे, खरीदते थे। ऐसा लगता था कि उन दिनों पूरे मणिपुर में इसी तालाब पर ही कमल खिलते है, बाकी किसी तालाब या झील में नहीं। उसी कमल के फूलों को बेचने के लिए बाजार की ओर ले जाया करता। इन्हें खरीदने के लिए भीड़ लगती थी। अक्सर बाजार पहुँचने से पहले रास्ते में ही बिक जाते थे। जो फूल पूरी तरह खिला हुआ होता, वह एक पैसे का बिकता और जो अधखिला होता, वह आधे पैसे में बिकता । उन पैसों को मैं ने गुल्लक में डाल कर इकट्ठा किया, मुस्किल से एक दो बार खर्च किया। इतनी मेहनत से कमाए हुए पैसे किसी और पर नहीं बल्कि धाक्का और काङ खेलने में, बाजी लगाने में ही खोया। "बीस मारे, दान्ति कातो" बीच वाले को काटो, गड्ढे के पास वाले को काटो! यह कहकर दूर से निशाना लगाकर काटने पर ," मत छू! " चिल्लाते हुए नाचने से खुद को रोक नहीं पाता। इस का मजा भी कुछ ओर होता है। निशाना चूकने पर कई बार पैसों का नुकसान होने के बाद भी केवल एक बार काटने पर जो आनंद मिलता है, वह चालिस वर्ष तक याद रहता है। मेरा निशाना लगाने का तरीका, किस तरह मैं निशाने की ओर देखता, काटने के उपरांत मेरी अदाएँ, मेरा स्वभाव। काङ खेलने में भी वही प्रक्रिया, चालिस बार निशाना चूकता है, फिर भी याद नहीं रहता, बस एक बार निशाना लगने पर लोगों द्वारा चारों ओर प्रशंसा गूँजने लगते। सामने वाली बहनजी भी मेरी तरफ पान बढ़ाने लगी। उस दिन मैं खुशी से फूला न समाया, खुद पर विश्वास नहीं हो रहा था। धाक्का और काङ खेलने में गवाये पैसे ओर समय, वही पिटाई, हारा हुआ बाजी, मैला हुआ पोषाक कक्षा से बेवजह ली हुई छुट्टी वास्तव में कुछ मायने नहीं रखता। जबकि मैंने धाक्का , कंचे, और काङ के निशाने बाजी में जो विजय प्राप्त की, वही मेरे लिए बहुमूल्य है। जितना प्रयास निशाने बाजी में सफल होने के लिए किया गया, उतना प्रयास हर किसी को अपने कार्य के ऊपर किया जाना चाहिए। जीवन में अनुभव की गई असफलताओं को भुला कर सफलताओं को ध्यान में रखकर सफलताओं को प्राप्त करने का जितना प्रयास किया, वही प्रयास हर एक कार्य के लिए लागू हो जाए तो स्वयं के साथ साथ सभी का लाभ होगा।
वाह! क्या नजारा है, सूर्यास्त का समय था, इबेमचा की जुल्फों में तखेलै नाचोम [5](पुष्प स्तबक)। कितनी शांत और सुशील, चाँद से मुखड़े का शर्माते हुए नीचे की ओर झूक कर कमर पर कलश को कसकर धीरे धीरे तालाब की ओर पानी लेने हेतु कदम बढ़ाना, हम तीनो लड़कों का उन्हें देखकर आगे बढ़ना तक भूल जाना, एकाएक रुक कर तीनों में से एक पूछ बैठा, " आपने नाचोम कितने रुपए में लिये है? क्या में इसे खरीद सकता हूँ?" मुस्कराते हुए जवाब दिया, " बेच ने क न जी"। उनकी मुस्कराहट में इतना आकर्षण है मानो आसमान पर बादलो के बीच बिजली चमक उठी है। सवाल कुछ अनुचित सा मालूम पड़ा इसलिए मैंने फिर कहा " खरीदना नहीं है जी, माँगना है जी। चलेगा?", " बहुत महरबानी होगी"! बात पूरी होने से पहले ही उन्होंने अपना बाये हाथ से नाचोम निकाला और दाये हाथ से मेरी ओर सौंप कर कहा "न माँगने से भी मैं अपनी मरजी से देती हूँ"। उसी क्षण ऐसा प्रतीत हुआ मानो भुक्कम्प आ गया है,धरती हिल रही है, सृष्टि का पुनः निर्माण हो रहा है। थोड़ा हँसी मजाक करने के बाद यही सोचकर आ रहा था कि इबेमचा ने किस तरह की पहेली मेरे सामने रख दी है। वास्तव में दुनिया पहेलियों से समाहित है। और उन पहेलियों को सुलझाना हर एक युवा की जिन्मदारी है। कभी पहेलियाँ सरल होती हैं तो कभी कठिन। पहेलियों को सुलझाने में असमर्थ होने वाले कोई हिमालय पर्वत पर चढ़ता है, तो कोई गहरे सागर के भीतर डूब जाता है, कोई देश-विदेश भ्रमण करके शिक्षा ग्रहण करता है, धन कमाता है। कोई खूबसूरत पुष्प ढूँढ़कर पुष्प माला बनाता है, नाचोम बनाकर पैसा कमाता है। परिश्रम, सफलता, पराजय, ठोकर खाना, लक्ष्य प्राप्ति तक अधिक परिश्रम करना, ये सभी जीवन के अपरिहार्य अंश है।
जीवन का वास्तविक आनंद कुशलता पूर्वक क्रीड़ा करने में है। नई पहेलियों का निर्माण और उसे सुलझाने की समस्या। लाभदायक एवं रोचक घटनाओं का अनुभव करना,अपनी असफलताओं को सीढ़ी बनाकर सफलता की ओर आगे बढ़ना, अपने अनुभवो से सीखना तथा इसे प्रयोग में लाना। ग्रहण किए ज्ञान को पुनः प्रयोग करने में कोई हानि नहीं, अपितु हमारा हित ही होता है। यदि इस में सफल हुआ तो अच्छी बात है और न हुआ तो भी ठीक है। दोनों ही स्वयं और लोगों के लिए बहुमूल्य सीख एवं मनोरंजक तत्व बन सकता है। हर व्यक्ति को अपने जीवन के अनेक मोड़ों पर दूसरों से भिन्न कई सारी घटनाओं से परिचित होना होता है। इन घटनाओं को लोगों के समक्ष कविता, कहानी, नाटक आदि के रूप में दर्शाकर कभी लोगों का मनोरंजण करना, तो कभी उनको जीवन के दुःख- पीड़ा से अवगत कराना साहित्य का काम है। यदि दर्शक, श्रोता एवं पाठक की संख्या अधिक हो तो रचने वालों की संख्या तथा पदार्थ का भी कम होना असंभव है।
[2] मणिपुरी का एक विशेष भोजन
[3] मछली की सब्जी
[4] किसी एक प्रकार के पक्षी।
[5] नाचोम - विषेश कर स्त्री सजावट के रूप में
कानो या बालों के बीच लगे फूल
यह लेख थाङजम शीतलजित सिंह द्वारा kangla.in के लिए लिखा गया है। लेखक एक हिंदी ग्रेजुएट टीचर हैं। उनसे shitaljit@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। पता: कोङपाल मुतुम लैकाइ, इम्फाल ईस्ट, मणिपुर।

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