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Hello, I am Thanil

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विस्मृति के गर्भ से

मणिपुरी साहित्य के मुर्धन्य साहित्यकार जी.सी. तोङब्रा (तोङब्रम गीतचन्द्र- 1916–1996) नाटककार, कवि, व्यंग्यकार और साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध थे। उन्होंने मणिपुरी साहित्य में आधुनिक नाटक और सामाजिक व्यंग्य की परंपरा को मज़बूत दिशा दी। उनकी रचनाएँ समाज, राजनीति और शिक्षा-व्यवस्था पर तीखे व्यंग्य और यथार्थवादी दृष्टि के लिए जानी जाती हैं।उनकी प्रमुख नाट्य-कृतियों में मणि ममौ’, ‘मैट्रिक पासआदि शामिल हैं। साहित्य और रंगमंच में मूल्यवान योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री (1975) तथा साहित्य अकादेमी पुरस्कार (1978) से सम्मानित किया गया। वे मणिपुरी आधुनिक नाटक के प्रमुख स्तंभ एवं समाज के प्रति संवेदनशील चिंतक के रूप में याद किए जाते हैं। उनकी संस्मरणात्मक रचना- निङसिङलगा ईबा का प्रस्तुत है हिंदी में अनुवाद।

 अविवाहित पुरुष या स्त्री के अलावा सभी अच्छी तरह जानते हैं कि खेती-बाड़ी के मुकाबले में घर बसाना अत्यधिक कठिन कामहै। कुछ भाग्यवान लोगों के अलावा अधिकांश लोग भाग्य के मारा और लाचार होते हैं, जिनके मन की बाते सुनने वाले बहुत कम होते हैं। ' सुनने के लिए तैयार हूँ, सुनाइए अपन मन की बाते, पढ़ने के लिए उत्सुक हूँ, लिखिए अपने दिल की बातें इस तरह कोई कहे तो सौभाग्य की बात होगी। अपने जीवन में अनुभूत हताशाए, दुख भरी घटनाए, पश्चाताप को व्यक्त कर कुछ क्षणों के लिए खुद को इन जंज़ीरों से मुक्त हो जा ? मुझसे नफरत करने वाले, मुझ पर जरा सा भी ध्यान न देने वाले, अंगारो पर पैर रखने वाले, जिन्हें मैंने अपन दुश्मन समझा, उन लोगो को ताना मार कर या डां‌‌ट कर मन को संतुष्ट कर लूँ ? क्या लोगों को इसे पढ़कर अच्छा लगेग? जिन लोगो ने लिखने की कला पर महार हासिल कर ली है, वे अपने निजी जीवन की घटनाओ के बारे में लिखकर भी पाठक क मनोरंजन कर सकते हैं और जो लखन क विषय में अल्पज्ञ हो, उसे भी अपने जीवन की बाते इस प्रकार व्यक्त करने का प्रयास करना चाहिए जिसे पढ़कर कम से कम मनोरंजन हो जाए। अतीत की यादों पर आधारित रचना को ही रोचक समझना गलत होगा। कभी-कभी अपन कल्पना-शक्ति द्वारा की गई रचनाए साहित्य का मूल्य और भी बढ़ा देते हैं। इस लेख को पढ़कर अपना अनुभव साझा करे एवं अपन विचार व्यक्त करे

इंसान कुछ अपेक्षाएँ है, तो भगवान कुछ और देता है। बाबूजी मुझे पढ़ाई लिखाई के क्षेत्र में आगे बढ़ता देखना चाहते हैं, परंतु मैं, कंचे खेलना, स्टापू खेलना इत्यादि में माहिर निकला। बाबूजी के जमाने में अंग्रेजी का अध्ययन  निषेध था, इस कारण वे अंग्रेजी नहीं सीख पाये। बाद में उन्हें पताना पड़ा। इस वजह से वे मुझे ढंग से पढ़ने- लिखने के लिए जोर देते हैं। बाबूजी मुझे स्वादिष्ट भोजन, अच्छे कपड़े एवं बढ़िया जूते दिलाते हैं ताकि पढ़ाई-लिखा में कोई चूक न ह जाय । अभ्यास में को कमी न रह जाए, इसलिए बाबूजी हमेशा निगरानी रखते हैं। बदमाशी करने पर पिटाई भी होती है। पिटाई के लिए एक डंडा भी तैयार रखा रहता है। जब पिताजी मुझे घर में पढ़ाते थे तब मैं एक कुशल विद्यार्थी रहा करता था। पढ़ाई में मन लगता था। विद्यालय जाने में बड़ाआनंद आता था। जब चौथी और पांचवी कक्षा में पह तो बंग्ला माध्यम से पढ़ाई होने लगी, तब से पढ़ाई लिखाई में कई मुश्किलें झेलन पड़। इतिहास और भूगोल जैसे विषयों का बंग्ला भाषा में रट्टा लगाना बच्चों के लिए एक खड़ी पहाड़ पर चढ़ने क बराबर थाजो भी ढ़ंग से रट्टा नहीं मारता उनकरी तरह से पिटाई तय होती। मास्टरजी झाड़ियों क टहनी तौड़ कर, बच्चो कीखें नम होने तक उनकिटाई करते हैं। 'चाहे जो भी हो जाय, स्कूल प्रतिदिन जाना अनिवार्य है, कोई भी दिखावा नहीं चलेगा। पेट में दर्द होने क नौटंकी भी नहीं चलेग। एक-दो दिन की बात है, बेटा', दीवार पर लटक डंडा हर वक्त मेरा इन्तजार करता रहता। स्कूल में भी कम परेशानी नहीं है। पाठ बिना याद किये स्कूल आने का मतलब मार खाना। बाकी विषय क चिंता कम रहती है , परंतु इतिहास और भूगोल क पाठ यदि ढ़ंग से नहीं रटा, तो अपने नेत्रों से प्रेम की धाराएबहाने के लिए प्रचूर मात्रा में जल ग्रहण कर विद्यालय में उपस्थित होने का संकेत बंगाली हाईस्कूल के चारों ओर लग झाड़ियािया करती। बच्चों की पिटाई के लिए मास्टरजी द्वारा झाड़ियों क टहनियों को अनेक बार तौड़े जाने पर ऐसा प्रतीत होता कि ये झाड़िया मास्टरजी के प्रति निराश होकर बैठ हैं। पूरे र्ष में एक बार भी ढंग से नहीं खिल पातींअनेक बार टहनियों को तोड़ते वक्त मास्टरजी के हाथो में झाड़ियो के काटों से चोट लगती, परंतु वे बच्चों को दंड देने से कभी भी पीछे नहीं रहे। घर में भी पढ़ाई में मन न लगने के कारण अनेक बार डंड का सामना करना पड़ा, तब भी कुछ सुधार न हो सका। काटों क विनती ठुकराकर, झाड़ियो क निंदा को नजरअंदा कर निर्दय मास्टरजी बुरे तरीके से हमार पिटाई करते थे। कोई छि-छिपकरसू बहात तो कोई बुक्का फाड़कर रोता, परंतु मास्टरजी क आंखो में हमारे लिए दया की भावना कभी दिखाई न देती। लगातार डंडा लिए रहने वाले पिताजी और मास्टरजी को बच्चों को मारने क आद पड़ गई थी, उनके हृदय में दया क भावना न के बराबर रह ग और हम अधिकांश बच्चों को भी मार खाने क आदद सी पड़ने लगी। सहन करने की ताकत आ गई। सजा होने का भय भी धीरे धीरे जाता रहा

सजा भुगतने की आद पड़ते के बाद भी पिटाई का सुख कौन लेना चाहता है? अत: प्रत्येक विद्यार्थी दंड से बचने का उपाय खोजते रहते। पिताजी के दबाव में चल रही पढ़ाई-लिखाई त्याग कर स्वयं क इच्छानुसार अन्य कोई विद्या ग्रहण करने क विचार मेरे मन में जागृत हो उठा। उन दिनों बच्चों के बीच कंचे खेलना प्रचलित था। सही निशान लगाने वाले को लोग अलग ही भाव देते थे। इससे भी अधिक रुचि मुझे स्टाप्पू और धाक्का[1] खेलने में आता था,िसके कारण खेलते समय हर वक्त मैं अपने निशान पर केंद्रित करता रहता। बच्चे विद्यालय में अंतराल के समय पर या घर में पढ़ाई लिखाई होने के बाद अपने खाली समय में कंचे खेलते हैं, इसमें किसी का कोई अवरोधन नहीं है। मना तो धाक्का खेलने में है। इसे लोगो नजरों से बचकर खेलना होता है। स्कूल के बाद चीङा-पिशुम के खेतों-मैदानों में, जहाँ जान पहचावाला कोई न दिखे, वहाँ हम जी भर क  धाक्का खेलते । पत्थर के एक छोटे टकड़े से दिए गए लक्ष्य पर निशाना लगाने में सभी पनी-अपनशलता दिखाते। महीने के पंद्रह दिन पिताजी के डर से विद्यालय में मार खाने जाता और शेष पंद्रह दिन स्कून में न पहुँचकर कहीं और जाकर मन पसंद धाक्का खेल, अपने निशाने को ओर बहतर बनाने में लग रहता। पढ़ाई-लिखाई के मुकाबले निशानेबाजी में मेरी ज्यादा रुचि थी । मनचाह विद्या की यह विशेषता है कि इसमें अभ्यास करते ही शीघ्र ही निपण हो जाते है। बड़ो का मानना है कि धाक्का खेलना जुए के मार्ग में प्रवेश क प्रथम सीढ़ी है, इसलिए जहाँ भी यह खेल दिखे मार-पीट शु होने लगत। सभी क नजरों से बच कर खेलने में ऐस आनंद क अनुभव होता है, मानो मजे से छप्पन-प्पाई खेल रहों। जटिल स्थान पर निशाना लगाने में जो मजा आता है, उसका अलग ही आनंद है। 'नाय केप ऑल नाथिंग' कहकर गड्ढे के किनारे लगे कंचे पर निशाना लगाने में जो संतुष्टि मिलत है, िताजी और मास्टरजी क्या जाने उसका आनंद। यदि वे बच्चों क रुचि थोड़ा भी  समझ सकते तो शिक्षण प्रक्रिया को भी कुछ हद तक सुधार कर अधिक सरल बनात और पढ़े-लिखे लोगो संख्या भी ज्यादा होत। पाठ्य पुस्तक में पड़े ज्ञान को ग्रहण करने से अधिक निशानेबाजी की कला सीखने में मन प्रसन्न होता । एक सजा काटने क भाँति कड़वा है तो दूसरा जलेबी की तरह मीठा। इस बात को पढ़ाने वाले तथा पढ़ने वाले दोनों को ध्यान में रखकर विचार करना चाहिए

कक्षा छोड़कर धाक्का खेलना, कंचे खेलने का अभ्यास करने में अलग किस्म क मजा तो आता ही है किंतु लंबे समय तक कोई इसमे मज नहीं ले सकता। क्योंकि घरवाले और मास्टरजी ऐस हरकतों को पकड़े जाने पर अक्सर पिटाई  करते हैं। आज जो हम घर से सुबह जल्दी खाना खाकर पाठशाला जाने का नाटक करके कही ओर जाकर खेल रहे हैं, कहीं पिताजी को पता चला तो क्या होगा ? यदि पिताजी स्कूल पर मुझे मिलने आये और वहाँ मैं अनुपस्थित रहा, तो क्या वे मुझे आसानी से छोड़ेंगे ? क्या वे मुझे घर में रहने देंगे ? और यदि स्कूल से मेरे निरंतर अनुपस्थित होने पर जाँ करने के लिए घर पर मास्टरजी आए तब मेरा क्या होगा ? अनेक बार झूठी कारण बता कर छट्टी ल। अब तो छट्टी लेने के लिए उच्चित कारण भी नहीं बचा । एक बार तो छट्टी क आवेदन पत्र पर अपनी नानी क कर्णवेध संस्कार बताकर छट्टी भी ल। इस प्रकार बच्चे कक्षा छूटने के लिए अवकाश पत्र लिखते लिखते छोट मोट कहानिया लिखना सीख लेती है। स्कूल में बताने के लिए सच्ची घटना जैसे लगने वाले कहानी, घर वालो को सुनाने के लिए छोटी-छोटी कहानियाँ तैयार करना सरल कार्य तो नहीं है। और यदि रची गई कहानी में कुछ गड़ड़ हुआ, तो समझो बारिश सी जमकर पिटाई होनी ही होनी है। कल हमारे पड़ोस में रहने वाली माधबी नामक एक युवती ने देश सेवा के सिलसिले में  सन्यास ले लिया और जंगल की ओर चली गई। कल पूरे दिन उन्हें ढूंढने में लगे रहने के कारण विद्यालय में उपस्थिन न हो सका। कृप्या एक दिन का आवकाश प्रदान करे। इस बात को सुनकर  कितने शिक्षक छूट्टी के लिए हा कहेंगे। विद्यार्थियों के बीच में ऐसे धुरंधर भी है जिनक कल्पना शक्ति क कोई सीमा नहीं है। ऐसे बच्चे अपनी झूठी कहानियों को भी इस प्रकार पेशा करता है, जिसे सुनकर सामने वाले को यकीन न होने का सवालही नहीं उठता। अपन इस खुबी का लाभ उठाते हुए वह अनेक बार कक्षा से छूटकारा पा लेता है। लोगों का मानना है कि इस तरह के बच्चे बहुत शातिर होत है, कहानियाँ बनाने में उनसे मुकाबला करना किसी के बस क बात नहीं है। हाँ,जी मैं मजाक नही कर रहा हूँ। मन लगाकर प्रयास करने से तो लोग कुछ भी सीख लेत हैं। कहानी लेखन के क्षेत्र में पहला कदम कक्षा से छटकारा पाने के लिए बनी बनाए कहानी रचने से आरंभ होता है। वास्तविकता की भाव प्रदान कराने वाले कहानियों की रचना करना ज्यादा कठिन होत है, अत: अधिक परिश्रम लगत है। यदि मास्टरजी को थोड़ा सा भी संदेह हुआ तो घोर संकट में पड़ने क संभावना रहती है इसी बात को ध्यान में रखते हुए बच्चे बड़े सावधानी से कहानियाँ तैयार करते हैं। इस तरह क हरकते ज्यादातर शरारती बच्चे ही करते है

निवार के दोपहर को विद्यालय से घर लौटते वक्त अगले दिन की छट्टी को लेकर जो मन में खुशी होती थी, वह शब्दों से वयान करने में कम ही पड़ जाएगा। दूसरी ओर रविवार क शाम को सूर्यास्त होते होते अगले दिन के खयाल में हमारे मन की चिंता धरे धरे बढ़ जाती थी। आज भी उसी क्षण को याद करके दुखी होता हूँ। शीत ऋतु के आगमन के दौरान एक सोमवार को पीताजी ने मुझे स्कूल न जाकर मामा जी के साथ खेत में गाय चराने के लिए आदेश दिया। मुझे आज अहसास हुआ कि  वह दिन अपने जीवन के सबसे बहुमूल्य दिन है। पीछले दिन यानी रविवार को मैं अपन कल्पना के घोड़े बिना लगाम के स्वेच्छा से सवार कर खेलता था। उस खेल को पूरा होने से पहले अगले दिन के इतिहास और भूगोल क चिंता ने कल्पना के घोड़े पर बिठाये कई सारे ख्वाब उसी क्षण गायब हो जाते थे। परंतु उस सोमवार पीताजी द्वारा कहे गए काम से सा प्रतीत हुआ कि मुझे अपने अधूरे खेल को पूरा करने में सहयोग दे रहा है। मुझे आज भी वह उल्लास से भरा दिन सदव याद रहेगा जब पिताजी ने मुझे पूर आजादी के साथ खेत में भेजा था। सुबह सूर्य क धूप सैंकते सैंकते मामाजी और मैं ने पान-ईरोम्बा[2] और ङाटोन-ङारेल[3] सब्जी का सेवन किया। चावल पिछली रात का बनाया हुआ होने पर भी बहुत स्वादिष्ट था। जब रीर स्वस्थ और मन खुश हो, तो सभी प्रकार के भोजन स्वादिस्त लगता है। इस तरह दस-ग्यारह गाय को संभालते संभालते गौरसिंह,  खोङनाङ खोङ नामक एक स्थान पर पहुँचा और वहाँ गायों को खेतों क ओर छोड़कर मनमरजी से घास चरने दिया। मामा जी और मैं एक छोट नहर क धारा को बीच में रोक कर बाँध बनाया और वहाँ से पानी निकाल कर कई प्रकार क मच्छलियों को पकड़ा। पर्याप्त होने पर इन्हें इकट्ठा किया और सखी घास एवं गोबर में आग जलाकर इन्हे पकाया और भरपेट सेवन किया। मामा जी सिगरेट पीकर खेत के पगडंडी पर चाबिछाकर विश्राम करने लगे और में पोरों खोजने में लग रह। मैं अकेला दाये बाये करके कुश्ती खेलता रहा, सीटी बजाता रहा, कभी गाता रहा तो कभी जोर-जोर से चिल्लाकर ध्वनियों क गूँज सुनता रहा। पगडंडी को किया बनाकर उस पर लेटा और आसमान में उड़ते वर्ड्सवर्थ क बादल और शेली की पक्षी को देखा। कई सारे काल्पित कहानियाँ मन में स्वयं बनने लगे, आपस में युद्ध करने लगे। बाधाओं से मुक्त,‌उल्लास भरा मन के साथ शाम क बहती हवा काआनंद लेना, ढ़लते सूर्य का दर्शन करना , गाय को घास चरते देखना , राह चलते लोगो को देखकर मन में उन से संबंधित कई सारे खयाल ने लगते है । जब राजा पृथ्वीराज चौहान को अपने संजुक्ता स्वयंवर सभा से उठा कर अपने देश ले आने में जो आनंद आया होगा, वही आनंद अनुभ हुआ। वर्ड्सवर्थ की ' वेकेन्ट माईन्द ' यानि शून्यचित मन क उपस्थिति में ही खबसरत एवं आनंदायक विचार उभरकर आते है। बाधाओं से भर जीवन में भेद-भाव रहित साहित्य का बीज उगना असंभव है। रचनाएँ रचने के लिए मन की बो से मुक्ति पाना जरूरी है। यदि एक बार लत लगजाय, तो कविता बाजार के चौखत पर बैठ कर भी लिख पाओगे। युवावस्था में मन को नियंत्रित करना भी मक्खी पकड़ने जैसा बहुत कठिन होता है। सही अवसर न मिलने पर असुविधाओं का सामना जो करता वही व्यक्त कर रहा हूँ। उस दिन मन को एक अलग प्रकार क राहत मिला था। सभी चिंता से मुक्त। उस दिन न मैं कक्षा छोड़ कर खेलने आया था और न घर से बिना बताए। इसलिए न पिटाई होने का भय न डाँट सुनने क परवाह। ऐस अवस्था में रचनाए लिखना कितनी उत्पादक होती है। इस से हमें यह सीख मिलती है कि कविता या कहानी रचने के लिए मन को शांत रखने वाल पर्यावरण क आवश्यकता है।

एक बार मैंने अपने पुराने घर के उपर लगे गंदे तने वाले अमरूद के वृक्ष पर कुछ पक्के अमरूद का फल जो मुठ्ठी क आकार का है,िप कर लग पाया। अश्चर्य की बात है, इतने दिनों से मुझे  दिखाई क्यों नहीं दे रहा था। कई दिनो से मेर निगाहों से बचकर वे पक सकते हैं, इसी बात को लेकर अमरूद हँस रहा था । शरद ऋतु के साफ सुथरे आसमान पर सफेद बादल बिना संकोच के खेल रहे हैं, खमब्राङचाक[4] पक्षी अपने इच्छापुर्वक जैतून कनियों पर बैठ कर चहक रहे है। दुर्गा पूजा क छुट्टियों से हर्षित हुआ, मैं इन अमरूद से भेट होने का तात्पर्य  यह था कि भविष्य में मुझे रविन्द्रनाथ , कीट, कालिदास आदि पढ़ने का अवसर भी मिलेगा। इतन स्वदिष्ट फल मैंने कभी नहीं खा, न बाद में खाने का अवसर मिलेगा और न ही उम्मीद है। हर व्यक्ति सही मौके पर इस तरह के काव्य या गद्यों के तत्व से परिचित होता है। प्रत्येक व्यक्ति के उपर कभी न कभी कवित्व जाग्रित होता है। इस जागण को कायम रखना ही उस के अंदर की कवि को जीवित रखने के बराबर है। कोई भी जन्म से कवि नहीं होता।

चालिस वर्ष पहले हमारे तालाब में लाल रंग के कई सारे कमल क फूल इस प्रकार खिला करत कि इसे देखने के लिए कई सारे लोग अनेक जगहों से आते थे, खरीदते थे। ऐसा लगता था कि उन दिनों पूरे मणिपुर में इसी तालाब पर ही कमल खिलते है, बाकी किसी तालाब या झील में नहीं। उसी कमल क फूलों को बेचने के लिए बाजार की ओर ले जया करता। इन्हे खरीदने के लिए भीड़ लगत। अक्सर बाजार पहुँचने से पहले रास्ते में ही बिक जात। जो फूल पूरी तरह खिला हुआ होता, वह एक पैस का बिकता और जो अधखिला होता, वह आधे पैसे में बिकता उन पैसों को मैं ने गुल्लक में डाल कर कट्ठा किया, मुस्किल से एक दो बार खर्च किया। इतनहनत से कमा हु पैसे किसी और पर नहीं बल्कि धाक्का और काङ खेलने में, बाजी लगाने में ही खोया। "बीस मारे, दान्ति कातो" बीच वाले को काटो, ड्ढे के पास वाले को काटो! यह कहकर दूर से निशान लगाकर काटने पर ," मत छू! " चिल्लाते हुए नाचने से खुद को रोक नहीं पाता। इस का मजा भी कुछ ओर होता है। निशान चूकने पर कई बार पैसों का नकसान होने के बाद भी केवल एक बार काटने पर जो आनंद मिलता है, वह चालिस वर्ष तक याद रहता है।  मेरा निशाना लगाने का तरीका, किस तरह मैं निशाने की ओर देखता, काटने के उपरांत मेर अदाएँ, मेरा स्वभाव। काङ खेलने में भी वही प्रक्रिया, चालिस बार निशान चूकत है, फिर भी याद नहीं रहत, बस एक बार निशान लगने पर लोगों द्वारा चारो ओर प्रशंसा गूँजने लगते। सामने वाल बहनजी भी मेरी तरफ पान बढ़ाने लगी। उस दिन मैं खुशी से फूला न समाया, खुद पर विश्वास नहीं हो रहा था। धाक्का और काङ खेलने में गवाये पैसे ओर समय, वही पिटाई, हारा‌‌ हुआ बाजी, मैला हुआ पोषाक कक्षा से बेवजह ली हुईट्टी वास्तव में कुछ मायने नही रखता। जबकि मैने धाक्का , कंचे, और काङ के निशाने बाजी में जो विज प्राप्त की, वही मेरे लिए बहुमूल्य है। जितना प्रयास निशाने बाजी में सफल होनेके लिए किया गया, उतना प्रयास हर किसी को अपने कार्य के पर किया जाना चाहिए। जीवन में अनुभव क असफलताओं को भुला कर सफलताओं को ध्यान में रखकर सफलताओं को प्राप्त करने का जितन प्रयास किया, वही प्रयास हर एक कार्य के लिए लागू हो जाए तो स्वयं के साथ साथ सभी का लाभ होगा।

वाह! क्या नजारा है, सूर्यास्त का समय था, इबेमचा की जुलफों में तखेलै नाचोम [5](पुष्प स्तबक)कितनी शांत और सुशील, चाँद स मुखड़ का शर्माते हुए नीचे की ओर झूक क कमर पर कल को कसकर धीरे धीरे तालाब की ओर पानी लेने हेतु कदम बढ़ाना, हम तीनो लड़कों का उन्हे देखकर आगे बढ़ना तक भूल जाना, एकाएक रुक कर तीनों में से एक पूछ बैठा, " आपने नाचोम कितने रुप में लिये है? क्या में इसे खरीद सकता हूँ?"  मुस्कराते हुए जवाब दिया, " बेच ने क न जी"। उनकी मुस्कराह में इतन आकर्षण है मानो आसमान पर बादलो के बीच बिजली चमकउठी है। सवाल कुछ अनुचित सामालूम पड़ा इसलिए मैंने फिर कहा " खरीदना नहीं है जी, माँगना है जी। चलेगा?", " बहुत महरबानी होग"! बात पूर होने से पहले ही उन्होंने अपना बाये हाथ से नाचोम निकाला और दाये हाथ से मेरी ओर सौंप कर कहा "न माँगने से भी मैं अपनी मरजी से देती हूँ"। उसी क्षण ऐसा प्रतीत हुआ मानो भुक्कम्प आ गया है,धरती हिल रही है, सृष्टि का पनः निर्माण हो रहा है। थोड़ा हँसी मजाक करने के बाद यही सोचकर आ रहा था कि इबेमचा ने किस तरह क पहेली मेरे सामने रख दी है। वास्तव में दुनिया पहेलियों से समाहिहै। और उन पहेलियों को सलझाना हर एक युवा क जिन्मदारी है। कभी पहेलियाँ सरल होत है तो कभी कठिन।  पहेलियों को सुलझाने में असमर्थ होने वाले कोई हिमालय पर्वत पर चढ़त है, तो कोई गहर सागर के भीतर डूब जात है, कोई देश-विदेश भ्रमण करके शिक्षा ग्रहण करत है, धन कमात है। कोई खबसरत पुष्प ढूँढकर पुष्प माला बनात है, नाचोम बनाकर  पैसा कमात है। परिश्रम, सफलता, पराजय, ठोकर खाना, लक्ष्य प्राप्ति तक अधिक परिश्रम करना, ये सभी जीवन के अपरिहार्य अंश है।

जीवन क वास्तविक आनंद कुशलता पर्वक क्रीड़ा करने में है। न पहेलियों का निर्माण और उसे सुलझाने क समस्या। लाभदायक एवं रोचक घटनाओं का अनुभव करना,अपनी असफलताओं को सीढ़ी बनाकर सफलता की ओर आगे बढ़ना, अपने अनुभवो से सीखना तथा इसे प्रयोग में लाना। ग्रहण किए ज्ञान को पुनः प्रयोग करने में कोई हानि नहीं,  अपितु हमारा हित ही होता है। यदि इस में सफल हुआ तो अच्छी बात है और न हुआ तो भी ठीक है। दोनो ही स्वयं और लोगो के लिए बहुमूल्य सीख एवं मनोरंजक तत्व बन सकत है। हर व्यक्ति को अपने जीवन के अनेक मोड़ों पर दूसरों से भिन्न कई सार घटनाओं से परिचित होना होता है। इन घटनाओं को लोगो के समक्ष कविता, कहानी, नाटक आदि के रूप में दर्शाकर कभी लोगो का मनोरंजण करना, तो कभी उनको जीवन के दुः- पीड़ा से अवगत कराना साहित्य का काम है। यदि दर्शक, श्रोता एवं पाठक की संख्या अधिक हो तो रचने वालों की संख्या तथा पदार्थ का भी कम होना असंभव है।


[1] निशाने बाजी का एक बिषेश खेल जो सिक्के को फेंक कर खेला जाता है।

[2] मणिपुरी का एक विशेष भोजन

[3] मछली की सब्जी

[4] किसी एक प्रकार के पक्षी।

[5]   नाचोम - विषेश कर स्त्री सजावट के रूप में कानो या बालों के बीच लगे फूल


यह लेख थाङजम शीतलजित सिंह द्वारा kangla.in के लिए लिखा गया है। लेखक एक हिंदी ग्रेजुएट टीचर हैं। उनसे shitaljit@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। पता: कोङपाल मुतुम लैकाइ, इम्फाल ईस्ट, मणिपुर।

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