ads header

Hello, I am Thanil

Hello, I am Thanil

नवीनतम सूचना

कला और संस्कृति : मणिपुर के विशेष संदर्भ में

शोध सार :

मणिपुर राज्य प्राकृतिक रूप से दो भागों में विभाजित है- समतल भाग और पहाड़ी भाग। राज्य के लगभग 60% आबादी समतल भागों में और लगभग 40% आबादी पहाड़ी भागों में रहते हैं, और क्षेत्रफल की दृष्टि से यह स्थिति बिल्कुल विपरीत है। मैदानी या समतल भाग में मुख्यतः मैतेइ जाति के लोग रहते हैं, जो हिन्दू धर्म ( वैष्णव) का पालन करते हैं,और पहाड़ी क्षेत्र के लोग ईसाई धर्म को मानते हैं। एक ही राज्य में रहने के बावजूद भी समतल भाग और पहाड़ी भाग के लोगों में रहन-सहन, खान-पान और सामाजिक- संस्कृति परंपराओं में अत्यधिक विभिन्नता दिखाई देता है। समतल भाग के लोग हर दृष्टि से पहाड़ी भाग के लोगों से उन्नत और विसकित है।

मणिपुरी लोगों में कला और सौन्दर्य के प्रति प्रेम जन्मजात होता है। मणिपुरी लोग स्वभाव से ही कलात्मक और रचनात्मक होते हैं। हथकरघा और हस्तशिल्प उत्पादन इनके कलात्मक शैली को उजागर करता हैं। मणिपुर में प्रत्येक जातीय समूह की अपनी कुछ  विशिष्ट संस्कृति और परंपरा होती है। यही विशिष्ट संस्कृति और परंपरा उनके नृत्य, संगीत, पारंपरिक प्रथाओं और मनोरंजन में अंतर्निहित होती है।

मूल आलेख :

मणिपुरी संस्कृति भारतीय संस्कृति या आर्य संस्कृति से पूरी तरह भिन्न है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि मणिपुरी लोग मंगोल वंश के है, जिसका मूल निवास स्थान मध्य चीन है, जो बाद में भारत में आकार बस गये। दूसरा मत यह भी है कि मणिपुरी लोग तिब्बती- बर्मी जाति समूह के लोग है। सत्य कुछ भी हो लेकिन सत्य यह है कि मणिपुरी संस्कृति, भाषा, कला- कौशल और परंपरा भारतीय कला- संस्कृति से भिन्न है।

अगर किसी देश या जाति समूह की सभ्यता और संस्कृति को जानना है, और साक्ष्य एवं प्रमाणित रूप में कुछ उपलब्ध न हो तो ऐसी स्थिति में उस देश या जाति समूह की लोक-साहित्य,लोक-नृत्य, लोक-कथाएँ और लौकिक परम्पराएँ का अध्ययन कर उस जाति समूह की सभ्यता और संस्कृति को जान सकते हैं।

मणिपुर के मैतेई जाति के लोग वैष्णव धर्म और वैष्णव जीवन-पद्धति को अपनाने के बाद भी उन्होंने अपने पुराने संस्कृति, रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान में विशेष परिवर्तन नहीं किया। यही स्थिति यहाँ की जनजातियों में भी है। यहाँ की जनजातियाँ ईसाई धर्म को अपनाने के बाद भी अपनी परंपरागत परंपरा को भूली नहीं है। आज भी ये लोग प्रकृति- पूजक हैं। प्रकृति को देवी-देवता मानते हुए आज भी इनकी पुजा करते हैं, भूत- प्रेत में इनका विश्वास आज भी है। “ ये लोग मानव कल्याणकारी और मानव विनाशकारी, रोग देने वाली और रोग से मुक्त करने वाली, अच्छी फसल देने वाली और फसलों को नष्ट करने वाली, जीवन देने वाली और मृत्यु देने वाली अच्छी-बुरी प्राकृतिक शक्तियों के रूप में देवी- देवता और भूत प्रेत-शैतान को खुश करने के लिए पूजा तथा चढ़ावा आदि पर विश्वास करते थे। एक सर्वशक्तिमान सर्वोपरि सत्ता के अस्तित्व में भी इनका विश्वास था।”1 ईसाई धर्म को अपनाने के बाद ये लोग चर्च में जाने लगे और क्रिसमस को अपना सबसे बड़ा त्यौहार मानने लगे लेकिन इनके साथ ही उन्होंने अपनी पुरानी विश्वासों, मान्यताओं, तथा पारंपरिक पुजा-पाठ, पर्व- त्यौहार, रीति-रिवाज, रहन-सहन और खान-पान के तौर- तरीके में कोई परिवर्तन नहीं किया। मैतेई संस्कृति की भी यही स्थिति है।

`अतः यह कहा जा सकता है कि मैतेई जाति वैष्णव धर्म और वैष्णव जीवन पद्धति को अपनाने के बाद भी अपनी पारंपरिक सांस्कृतिक और सामाजिक विशेषताओं को सुरक्षित रखा और यहाँ की जनजातियों ने भी ईसाई धर्म को अपनाने के बाद भी अपने संस्कृति के ऊपर पश्चिमी संस्कृति को हावी होने नहीं दिया। “ मणिपुर की जन-जातीय और मितैई संस्कृति की यह सबसे बड़ी विशेषता मानी जानी चाहिए कि एक ने ईसाईयत के माध्यम से पश्चिमी संस्कृति और पश्चिमी जीवन- पद्धति के दबाव को झेलकर भी अपनी सांस्कृतिक सामाजिक परम्पराओं पर अधिक आँच नहीं आने दी है और दूसरी ने वैष्णव धर्म और जीवन- पद्धति अपनाकर भी अपनी पारंपरिक सांस्कृतिक सामाजिक विशिष्टताओं को काफी हद तक सुरक्षित रखा।”2

          मणिपुरी समाज अपने सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण ही अन्य से श्रेष्ठ प्रतीत होते हैं-

वर्ण और वर्गहीन समाज :-

मणिपुरी समाज में शुरू से ही वर्ण व्यवस्था नहीं थी जिसके कारण मणिपुरी समाज में छुआछूत जैसी समस्या कभी थी ही नहीं। इस समाज में मानवीय दृष्टि सर्वपरि है। भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था प्राचीन काल से चलीआ रही है। भारतीय समाज आज भी इस व्यवस्था से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पाया है। वही मणिपुर की मैतेई और जन-जातीय समाज में वर्ण व्यवस्था कभी रही ही नहीं। “ लगभग पिछले चार सौ वर्षो से निष्ठावान वैष्णव हिन्दू होते हुए भी मणिपुरी समाज शेष भारतीय हिन्दू समाज में व्याप्त जात-पाँत, ऊँच-नीच और छुआ-छूट जैसी सामाजिक बुराइयों से अपने को मुक्त रखा सका है, यह कम गौरव की बात नहीं है।”3 इस समाज में श्रम विभाजन है लेकिन कोई काम छोटा या बड़ा नहीं है। यह भावना इस समाज में कभी उत्पन्न नहीं हुआ। एक ही परिवार के कोई सदस्य बड़ा अधिकारी हो सकता है तो कोई अन्य सदस्य कही का चौकीदार। यहा तो आज भी बड़े प्रोफेसर की पत्नी ईमा बाजार में कपड़ा बेचती दिखाई देती है। एक परिवार में कोई दर्जीगीरी करता है, कोई बढ़ईगीरी करता है, कोई सफाई कर्मचारी है, फिर भी उनके रसोईघर एक ही होते हैं। इस समाज में आर्थिक आधार पर भी वर्ग विभाजन नहीं है। शादी- ब्याह में या अन्य सामाजिक अवसरों पर वर्ग- भेद का कोई प्रभाव दिखाई नहीं देता है।

आत्म- निर्भर और स्वतंत्र नारी समाज :-

भारतीय समाज में नारी का जो स्थान प्राप्त है वह कहने की बात नहीं है। नारी के ऊपर शोषण और अत्याचार के मामले अकसर हमें अखबारों के फ़्रोंत पेज में देखने को मिल जाता है, लेकिन मणिपुर में नारी की स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है। यहाँ नारियों के साथ अमानवीय व्यवहार नहीं होता है।  भारतीय समाज में नारी को पुजा जाता है, और उन्हें देवी का स्थान प्राप्त है, और वास्तव में सच्चाई कुछ और ही है पर, मणिपुरी समाज में नारी परिश्रम की देवी है, जो हर तरह के काम खुद करते हैं। किसी पर निर्भर नहीं रहते। मणिपुरी समाज में चाहे वह मैतेई हो या जन-जातीय समाज नारी का स्थान पुरुषों के समान ही है। उन्हें देवी का स्थान देकर ढोंग नहीं रचता है। नारी भी खुद को एक सामान्य नारी समझती है और पुरुषों के समान ही जीवन के संघर्षों में जुट जाती है, और जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चलती है। “ मणिपुरी नारी का कार्य क्षेत्र घर के चौके बर्तन और करघे पर कपड़ा बुनने से लेकर स्कूल-कॉलेज, कार्यालय, बाजार, खेत-खलियान और पूजा-गृह से नृत्यशाला तक फैला हुआ है। सुबह उठकर घर आँगन की लिपाई-पोताई करने वाले उसके कोमल-कर्मठ हाथ घर के करघे पर तरह-तरह के वस्त्र बुनने में भी उतने ही कुशल हैं जितने राम-मंडप में रासलीला नृत्य की कलात्मक भाव-भंगिमा दिखने में।”4मणिपुर की स्त्रियाँ घनघोर परिश्रमी होती है, और आर्थिक रूप से सम्पन्न होने के लिए हर तरह के काम करने के लिए तैयार रहतें हैं,इसलिए यहाँ की स्त्रियाँ स्वतंत्र और आत्म-निर्भर होती है इसी के कारण वह अपना जीवन साथी चुनने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र होती है। माता- पिता भी उसके निर्णय को सह- स्वीकार कर लेते हैं। नारी की शिक्षा व्यवस्था भी यहाँ अन्ये राज्यों की तुलना में काफी अच्छी है। 

समूह भावना :-

मणिपुरी समाज में सामाजिक सहयोगिता की परंपरा प्राचीन है। विवाह, जन्मोत्सव, श्राद्ध या किसी पर्व त्यौहार के अवसर पर एक- दूसरे को सहज भाव से आर्थिक और शारीरिक सहयोग करना यहाँ की पुरानी प्रथा है।

कला- प्रियता :-

मणिपुरी लोग जन्मजात कलाकार होते हैं। नृत्य, संगीत, नाटक, खेल-कूद, बुनाई-कढ़ाई, वस्तुकला और चित्रकला आदि इनके जीवन का ही एक अंग है, इसलिए यहाँ की लगभग सभी लड़कियां को नृत्यकरना और कपड़ा बुनना आता ही है। यहाँ के लोग रासलीला में अपना  नृत्य प्रदर्शन और डिजाइन वाले वस्त्र बनाकर अपना हाथकरघे का प्रदर्शन करते हैं।

वेश-भूषा और पहनावा :-

मणिपुरी लोग अपनी वेश-भूषा में जितना सहज सुरुचि सम्पन्न है उतना शायद ही भारत के अन्य किसी राज्यों के लोग होंगे। यहाँ के लोग सामाजिक कार्यों कर्मों में अपने पोशाक पर विशेष ध्यान देते हैं। यहाँ की युवा-पीढ़ी हो या पुरानी पीढ़ी सब लोग धार्मिक कार्य-कर्मों में सफ़ेद धोती- कुर्ता ही पहनते हैं। ये लोग अपनी परंपरागत वेश-भूषा को भुला नहीं है, बरातों, श्राद्ध, शवयात्रा आदि जैसे कार्यो में भी सफ़ेद कुर्ता का ही प्रयोग करते हैं। यहाँ की स्त्रियाँ भी पुरुषों की तुलना में कम नहीं है। यहाँ की स्त्रियाँ आज भी अपनी पारंपरिक पोशाक फनैक, ब्लाउज और चाँदर धारण करती है, और यहाँ की  स्त्रियाँ तो मौसम के अनुकूल अलग- अलग रंगों के पोशाक का चुनाव भी करते हैं।

पर्व- त्यौहार और उत्सव :-

यहाँ के लोग उल्लासपूर्ण ढंग से अपने त्यौहार और उत्सव को मानते हैं। वृंदावन के बाद मणिपुर में ही सब से ज्यादा उल्लासपूर्ण ढंग से रंगारंग होली मनायी जाती है। स्थानीय भाषा में होली को याओसंग कहते हैं। वैष्णन धर्म का पालन करने वाले यहाँ के लोग होली को एक त्यौहार या उत्सव नहीं मानते हैं, वह तो होली के माध्यम से राधा- कृष्ण का लीला-गान करते हैं। होली के समय मणिपुर ब्रजभूमि के समान बन जाता है। “वैसे तो सम्पूर्ण मणिपुर के गाँव-गाँव में धूम-धाम के साथ यह होलिकोत्सव मनाया जाता है किन्तु सर्वाधिक भव्य और रंगारंग समारोह राजवाड़ी स्थित श्री गोविंद जी के मंदिर के विशाल मंडप में और विजय गोविंद के मंदिर के प्रांगण में मनाया जाता है। पुरुष लाल, पीले या केसरिया रंग के धोती, कुर्ता और पगड़ी धारण करते हैं और स्त्रियाँ भी केसरिया रंग का फनैक और चादरें धारण करती हैं। एक साथ दर्जनों मृदंग, ढोलक और झाँझ बजाते हैं और सैकड़ों कंठों के फाग के स्वर समवेत रूप से फूटते हैं। रंग की पिचकारियाँ चलती रहती हैं और अबीर-गुलाल उड़ते रहते हैं।”5

याओसंग

होली के बाद मणिपुर में समूह नृत्य धावल चोमबा शुरू हो जाता है। इस समूह नृत्य में युवक-युवतियाँ हाथ से हाथ पकड़ कर रात भर खुले मैदान में नृत्य करते हैं। यह नृत्य लगभग एक माह तक मणिपुर के गाँव- गाँव में टोले- मुहल्ले में चलता रहता है। मणिपुर में लाइहराओबा, चराओबाऔर सनामही की पुजा आदि जैसे उत्सव भी मानए जाते हैं। ये सभी उत्सव यहाँ के परंपरागत त्योहार हैं।

धावल चोमबा

मणिपुरी नृत्य कला :-

आधुनिक भारतीय नृत्य- शैलियों में मणिपुरी नृत्य शैली का एक विशेष स्थान है। भरतनाट्यम, कथकली, कुचीपुरी और ओड़ोसी की तरह मणिपुरी नृत्य शैली भी देश-विदेश में प्रसिद्ध है। मणिपुर में दो प्रकार के नृत्य शैली पाई जाती है, एक शास्त्रीय और दूसरा लोक नृत्य। रासलीला यहाँ की शास्त्रीय नृत्य है, और लोक नृत्य जो लाइहराओबा के दौरान प्रस्तुत किया जाता है। लोक- नृत्य में नर्तक-नर्तकियों की अनूठी वेश-भूषा, सौंदर्यशास्त्र और परंपरागत ढंग ही दर्शकों को आकर्षित करती है।

रासलीला :-

रासलीला वैष्णव धर्म का एक अभिन्न अंग है, इसीलिए मणिपुर में रासलीला इतना अधिक प्रसिद्ध है। मणिपुर में रासलीला महज एक विशिष्ट नृत्य शैली नहीं है बल्कि यह ब्रह्म और जीव का लीला- विलास है। कृष्ण साक्षात ब्रह्म है गोपियाँ,‘जीव’, कृष्ण की मुरली माया और रास चक्र भ्रमणशील विश्वचक्र का प्रतीक है। इस प्रकार यहाँ की रासलीला अपनी सम्पूर्ण आध्यात्मिक रहस्यमयता से पूर्ण विश्वलीला का प्रतीक है। मणिपुर में रासलीला का विकास राजा भाग्यचन्द्र के समय में हुआ था। इसी समय में मणिपुर में रासलीला की एक नई शैली का प्रारम्भ हुआ, और राजा भाग्यचन्द्र के उत्तराधिकारियों ने भी रासलीला के प्रदर्शन में नये-नये रास- नृत्य जोड़ते गये, और सभी रासों की कथावस्तु भी अलग-अलग होती है और इन रासों का आयोजन भी विशेष तिथियों पर ही होता है।

          मणिपुर में मुख्य रूप से चार प्रकार के रास नृत्य होते हैं- महारास, बसंतरास,कुंजरास, नित्यारास। इसके अतिरिक्त दो और रास होते हैं – गोष्ठ रास और ऊखल रास।

रासलीला

महारास :-

           इस रास का आयोजन शरद पुर्णिमा की धवल चाँदनी में होता है। इस रास का मुख्य आधार श्रीमद्भागवत की रास-पंचाध्यायी है। इस रासलीला में कृष्ण राधा से मिलने के लिए वृंदावन में जाती है। कृष्ण की मुरली की तान सुनकर राधा और सभी गोपियाँ नृत्य करने लगती है और कृष्ण के चारों तरफ आवृत्त आकर में नृत्य करने लगती है राधा इस नृत्य में अपना तन-मन की सुध-बुध खो बैठती है, और राधा इस अवसर पर घमंड करने लगती है, तब कृष्ण उस घमंड को तोड़ने के लिए छुप जाता है। तब राधा और गोपियाँ उसे न देखकर व्याकुल हो जाती है और रोती-रोती इधर-उधर ढूंढने लगती है और आँखों से आंसुओं की धारा बहाने लगती है। कृष्ण से मिलन की गुहार लगाती है, तब जीतने गोपियाँ होती है उतने कृष्ण प्रकट होते हैं तब सभी गोपियाँ रास- नृत्य करती है और यह क्रिया रात भर चलती है।

बसन्त रास :-

यह रास चैत पुर्णिमा के दिन आयोजित किया जाता है। इस रास में राधा और अन्य गोपियाँ हृदय में बसन्त का उमंग लिये जब श्रीकृष्ण के पास जाती है, तब कृष्ण चंद्रावली का हाथ पकड़ कर नृत्य करता रहता है। राधा को यह सहन नहीं हुआ और नागिन की तरह फफनाती हुई रास-मंडप छोड़कर चली जाती है। कृष्ण राधा को देखकर सब कुछ समझ जाती है, और राधा को मनाने लगती है और राधा की बाँह पकड़कर रास-मंडप में ले आता है। रंग, अबीर, गुलाल एक दूसरे पर उड़ाते हैं नृत्य करते हैं। इस तरह बसन्त रास समाप्त होता है।

कुंजरास :-

इस रासलीला में कृष्ण- राधा और अन्य गोपियाँ नृत्य करती है और कुंजरास में आराम करती है।

नित्य रास :-

 इस रास का कोई विशेष तिथि नहीं होता है इसमें कृष्ण राधा और गोपियाँ का मिलन प्रेम- क्रीड़ा और सामूहिक नृत्य किया जाता है।

मणिपुर में रासलीला का प्रदर्शन नाट-मंडपों में किया जाता है। इसलिए यहाँ की प्रायः सभी वैष्णव मंदिरों में नाट- मंडप बनाया जाता है। मणिपुर रासलीला में सर्वाधिक आकर्षक होता है नर्तक- नर्तकियों की वेश-भूषा। नर्तक- नर्तकियों की पोशाक रंगीन, सलमा-सितारों से भरी होती है। यही कलात्मक रूप दर्शकों को सबसे ज्यादा आकर्षित करता है।

लाइहराओबा ( लोक नृत्य ) :-

लाइहराओबा मूलतः मणिपुर की परंपरागत लोक नृत्य है। इस नृत्य में धार्मिक विश्वास, आध्यात्मिक चिंतन, जनजातीय कला और संस्कृति के तत्व विद्यमान है। इस लोक नृत्य में लोक कथाओं, मिथक, जनश्रुत्तियों, पौराणिक उपाख्यानों और इतिहास का कलात्मक समन्वय है। मणिपुरी भाषा में लाइ का अर्थ देवता होता है, और हराओबा का अर्थ आनंद का उत्सव होता है। अतः लाइहराओबा का शाब्दिक अर्थ देवी-देवताओं का आनंदोत्सव है। इस लोक नृत्य के तीन अलग- अलग शैलियाँ हैं। जिन्हें कांगलेई ( कड्लै ), मोइरांग और चकपा कहते हैं। वास्तव में ये तीन अलग-अलग शैलियाँ नहीं बल्कि एक नृत्य के ही तीन भाग है। जो मूलतः एक होते हुए भी एक दूसरे से भिन्न है। लाइहराओबा एक लोक नृत्य के साथ एक धार्मिक अनुष्ठान भी है। इस नृत्य में किसी भी उम्र के लोग भाग ले सकते हैं, और उनकी संख्या पाँच से सौ तक भी हो सकती है। इस नृत्य में मायबा ( देवदास) और मायबी ( देवदासी ) की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

लाइहराओबा

नागा लोक नृत्य :-

मणिपुर की प्रमुख जनजातियों में एक नागा जन- जातीय है। जो मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में निवास करते हैं। इनके लिए नृत्य उतना ही महत्व है जितना हमारे लिए वेदों का है। लोक- नृत्य इनके जीवन और संस्कृति का दर्पण है। इनके जीवन में शादी- विवाह का आनंद हो, नई फसल की रोपाई हो या कटाई, दूसरों से युद्ध का आह्वान हो या किसी विशिष्ट अतिथि के स्वागत की तैयारी आदि सभी स्थितियों वाद्य और नृत्य होता ही है। नागा नृत्य में सबसे विशिष्ट इनके पोशाक होते है। नर्तकों के पोशाक में वीररस और नर्तकियों के पोशाक मेंश्रृंगाररस उत्पन्न होता है यही विचित्र वेश-भूषा आकर्षक और मनभावन होता है। “अपने घर के हाथ करघे पर निर्मित तरह-तरह के रंगीन भड़कीले वस्त्रों से सुसज्जित, गले में पत्थरों, मूँगे तथा नकली मोतियों की छाती तक झूलती अनेक चकमक मालाएँ, सिर पर जानवरों के सींगों, पक्षियों के रंगीन पंखों, पशुओं के झबरीले बालों तथा बांस की पतली कमानियों और शीशे अबरक़ के चमकीले टुकड़ों से निर्मित मुकुटनुमा शिरोभूषण तथा हाथों में डाव, हसिया, भाला या बर्छा जैसे हथियारों से युक्त जब नागा नर्तक ढोलक की ताल पर पैरों और हाथों का उद्धत संचालन करते हुए, समूह नृत्य करते हैं तो एक अजीब दृश्य उपस्थित हो जाता है। ऐसा लगता है,श्रृंगारऔर वीररस अपना शास्त्रीय विरोध- भाव भूलकर एक- दूसरे के गले में हाथ डाले नृत्य रात हैं।”6

नागा की ही एक उपजाति कबुई है जिसका परंपरागत लोक नृत्य पोंसलम है। यह नृत्य एक सामूहिक लोक- नृत्य है जिसमें स्त्री- पुरुष अपनी परंपरागत वेश-भूषा धारण कर नृत्य करते हैं। खंबायालिया भी एक लोक नृत्य है यह लोक नृत्य कृषि से संबंधित है। यह नृत्य खेत काटते समय और बीज बोते समय खेत में होता है और खेत में ही सम्पन्न होता है। स्त्री- पुरुष खेतों के कामों से थक जाता है तब  विश्राम और मनोरंजन के लिए इस लोक नृत्य का सहारा लेते हैं। नागा की ही उपजाति जेमी नागा द्वारा इस नृत्य का प्रदर्शन किया जाता है।

नागा लोक नृत्य

 निष्कर्ष :-

भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में से एक छोटा-सा पहाड़ी राज्य मणिपुर न केवल अप्रतिम प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि वह अपने नृत्य, संगीत, कला- कौशल और विशिष्ट संस्कृति के लिए भी पूरे भारत में प्रसिद्ध है। मणिपुर अपनी कला-रूप और सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के कारण पूरे भारत में एक अलग पहचान बनाई हुई है।

संदर्भ –सूची :-

1)     सिंह, जवाहर, मणिपुर साहित्य और संस्कृति, नीलकमल प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण- 1991, पृष्ठ सं. 69.

2)     वही  पृष्ठ सं. 71.

3)     वही              पृष्ठ सं. 71.

4)     वही              पृष्ठ सं. 72.

5)     वही              पृष्ठ सं. 75.

6)     वही              पृष्ठ सं. 110.

कोई टिप्पणी नहीं