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हेन्जुनहा : लाइश्रम शुशांत

बहुत समय पहले मोइराङ में तेलहैबा नामक राजा शासन करता था।  उनके मंत्रियों में याङलैङम्बा नामक एक व्यक्ति था, जो राजा को अत्यंत प्रिय था।  उनकी पत्नी से फवओइबी देवी (धान की देवी) बेटी के रूप में अवतार लेती हैं। उनका नाम ‘लाइरौलेम्बी’ रखा गया।  उनके अवतार से मोइराङ राज्य खुशहाली से भर गया था।  उनकी सुन्दरता पूरे मोइराङ में प्रख्यात थी। फौओइबी देवी का प्रियतम ‘अखोङजाम्बा’ भी मोइराङ के एक गरीब परिवार ‘खोइजूहोम्बा’ के घर अवतार लेता है। उसका नाम ‘हेन्जू’ रखा जाता है। लेकिन बचपन में ही वह अपने पिता से बिछड़ जाता है एवं उसकी विधवा माँ बहुत मुश्किल से उसको पालती है।  कभी मछली पकड़ना, कभी जंगल से लकड़ी काटकर बेचना तो कभी किसी के घर धान कूटकर उसे बड़ा करती है।  इस तरह दोनों लाइरौलेम्बी और हेन्जू बड़े होते हैं एवं  युवावस्था में पहुँचते हैं।

एक दिन लाइरौलेम्बी अपनी सखी पेनू को लेकर लोकताक झील में मछली पकड़ने जाती है।  उनके ‘इल’ (मछली पकड़ने का जाल) में एक बहुत बडी सफ़ेद मछली फँसती है, लेकिन अचानक आने वाली बहुत तेज हवा के कारण वे अपना इल संभाल नहीं पातीं।  ठीक उसी समय हेन्जू भी अपनी माँ की मदद करने लोकताक से कुछ सब्जियाँ तोड़ने पहुँचता है।  एक अत्यंत सुंदरी को परेशानी में देखकर वह बिना कुछ बोले, लाइरौलेम्बी के हाथों से इल ले लेता है और मछली पकड़ कर उसके तुंगोल (मछली डालने की विशेष टोकड़ी) में डाल देता है। दोनों एक दूसरे से बात तो नहीं करते, लेकिन एक ही नजर में दोनों एक दूसरे से प्रेम करने लगते हैं।


इस तरह कुछ महीनों के बाद लमता(मार्च) महिने का पहला थाङज (शनिवार) आता है।  आने वाले शजिबू (मणिपुरी नव वर्ष) देवी देवता को अर्पित करने हेतु लोग बाजार से सामान खरीद रहे थे।  लोग अपने-अपने घरों से लाकर सब्जियाँ भी बेच रहे थे। हेन्जू की माँ भी जंगल से लकड़ी काटकर बेच रही थी। तभी राजा के कुछ सेवक घोषणा करने आते हैं – “सुनो सुनो, इस महिने में पाँच शनीवार आएँगे ।इसलिए देवतागण अत्यंत शक्तिशाली रहेंगे। आज देवतागण आपस में मिलने वाले हैं । तुम सब अपने-अपने बच्चों एवं पालतू जानवरों की रक्षा कर लेना । अँधेरे के बाद कोई घर से बाहर न निकले । सतर्क रहें।” बाजार में सभी लोग अपना-अपना सामान बेचकर और खरीदकर जल्दी घर वापस चले जाते हैं।

हेन्जू की माँ भी वापस आती है।  अपने बेटे को वह आज की रात कहीं भी जाने से मना करती है।  हेन्जू अपनी माँ के सामने हामी भरता है। लेकिन वह तो लाइरौलेम्बी को उसके घर खेले जाने वाले  ‘लिकोन खेल’ में शामिल होने का वादा कर आया था। प्राचीन काल में युवा लड़के लड़कियों के घर रात के समय लिकोन खेल खेला करते थे। उस रात दोनों एक दूसरे को अपने  मन की बात कहने की सोच रहे थे। इस तरफ हेन्जू भी अपनी माँ के सोने का इंतजार कर रहा था, तो दूसरी तरफ लाइरौलेम्बी भी हेन्जू की राह देख रही थी। हेन्जू की माँ अपने फनेक के एक सिरे से अपने बेटे के कपड़े के एक कोने को बाँधकर सो जाती है। जब वह गहरी नींद में सो जाती है तो हेन्जू धीरे से कपड़े की गाँठ को खोलकर दबे पाँव बाहर आता है। दरवाजे पर लटके काङजै को हाथ में थामे लाइरौलेम्बी के घर की तरफ चल पड़ता है।

इस तरह वह रास्ते में आता है तो चौराहे में सफ़ेद कपड़े पहने कुछ लोगों को बैठे देखता है।  वह खुद से कहता है –“अरे मुझे लगा कि बहुत देर हो गई है, लेकिन यहाँ तो बड़े बात कर रहे हैं । चलो थोड़ी देर सुन लिया जाए कि क्या बातें हो रही है।” वे लोग कुछ खा रहे थे। एक एक टुकड़ा लेकर अगले वाले को दे रहे थे। तभी हेन्जू की बारी आई। उसके हाथों में कुछ गिरता है।  जब वह ध्यान से देखता है तो पता चलता है वह चीज और कुछ नहीं बल्कि किसी बच्चे की एक छोटी ऊँगली है। वह समझ जाता है कि सफ़ेद पोशाक पहनने वाले व्यक्ति नहीं भूत प्रेत हैं।  तो वह अपने काङजै को घुमाते हुए दौड़ने लगता है। सभी भूत - प्रेत भी उसके पीछे दौड़ते हैं।  उसके काङजै के कारण वे पास नहीं आ पाते।  वह लाइरौलेम्बी के घर की और दौड़ने लगता है।

जब बहुत देर तक हेन्जू नहीं आता तो लारौलेम्बी राजा की घोषणा के कारण उस दिन तो लिकोन खेल खत्म करने और सभी दोस्तों को जल्दी वापस घर जाने को कहती है।  हेन्जू के न आने के कारण वह भी निराश होकर सोने चली जाती है। एक ओर हेन्जू जब उसके घर पहुँचता है तो लाइरौलेम्बी का बंद ‘कोनथोङ’ (प्रवेश द्वार) को देखता है। मणिपुर में मान्यता है कि ‘कोनथोङ’ को ठीक तरह खोलकर ही अन्दर जाना चाहिए। बिना हटाए नीचे से जाने को अपशगुन माना जाता है। हेन्जू जब लाइरौलेम्बी के बंद ‘कोनथोङ’ को देखता है, तो वह समय बचाने के लिए, नीचे से ही निकल जाता है। भूत प्रेत उसका पीछा करते रहते हैं। जब वह ठीक ड्योढ़ी चढ़ने वाला होता है,  उसका काङजै फँस जाता है और ठीक ड्योढ़ी के नीचे सभी भूत प्रेत हेन्जू को पकड़ लेते हैं और वह अपनी जान से हाथ धो बैठता है।  (मणिपुरी मान्यता है कि ठीक  ड्योढ़ी के नीचे, जिसे ‘चुरी’ कहा जाता है, वहाँ कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि वहाँ बुरी शक्तियों का वास होता है।)

एक तरफ लाइरौलेम्बी के सपने में सभी दृश्य दिखाई देता है।  वह अचानक उठकर अपना दरवाजा खोलती है तो अपने प्रिय के मृत शारीर को आँगन में पाती है।  वह रोने लगती है।  उसके माता-पिता एवं पड़ोसी भी वहाँ पहुँचते हैं।

उस  मार्मिक दृश्य को देखकर सभी के आँखों में आँसू निकल आते हैं।  लाइरौलेम्बी अपने प्रिय की मृत्यु का कारण खुद को समझकर सभी से अपने प्रिय का आखरी क्रियाकर्म करवाने का निवेदन करती है।  सभी उसकी तैयारी में जुट जाते हैं।  तभी वह भी अपने प्रिय के पास अपना जीवन त्याग देती है।

इस तरह प्रत्येक वर्ष लमता महीने के थाङज के दिन हर चौराहे पर पूजा की जाती है।  माना जाता है कि इस दिन सारे देवी - देवता पूरे वर्ष काम करने के बाद आराम करते हैं और उस वर्ष के मृत्यु संबंधी विषयों पर बातें करते हैं। इस दिन बुजुर्ग औरतें मिलकर पूजा करती हैं।  प्रत्येक घर से चावल सब्जी आदि लाया जाता है। सभी औरतें मिलकर देवताओं को अर्पित करने वाला खाद्य को स्वीकार करने और गाँव की रक्षा करने का निवेदन करती हैं। शाम को प्रसाद के रूप में पूजा में अर्पित शीङजू को सभी घरों में थोड़ा थोड़ा पहुँचाया जाता है साथ ही देवता को अर्पित हल्दी भी बाँटी जाती है। ऐसा माना जाता है शीङ्जू शारीरक बीमारियों से मुक्त करता है। हल्दी को घर की चारों और फैलाया जाता है । इससे पूरा घर कीड़ों -मकोड़ों एवं अशुभ शक्तियों से बचाता है।

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संपर्क सूत्र: शोधार्थी, हिंदी विभाग

मणिपुर विश्वविद्यालय

काँचीपुर इम्फाल- 795003

मो- 887394082      

                                        

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