नागालैंड की लोक कथा पुलिया वाडजे- अत्सुला येम्चुङगर
बहुत पहले कोहिमा के दक्षिण दिशा की एक पहाड़ी पर पुलिए नाम का एक व्यक्ति रहता था । वह बचपन से ही बहुत परिश्रमी तथा ईमानदार था । उस पहाड़ी गाँव की आर्थिक स्थिति तब पूरी तरह कृषि पर आधारित थी । गाँव के लोग सामूहिक रूप से एक दूसरे के कृषि कार्यों में सहयोग देते । पुलिए भी पहाड़ी ढलान के एक छोटे से हिस्से में बनाए गए सीढ़ीदार खेत पर अपनी खेती करता था । काफी परिश्रम के बाद पुलिए ने झाड़ियों को काटकर जमीन को सीढ़ीदार बनाकर इस पहाड़ी ढलान के हिस्से को खेती के लायक बनाया था और पहाड़ी झरने से उस खेत की सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था की। पुलिए ने पहली बार जब खेती शुरू की थी तब खेत की जुताई अपने हाथों से की तथा उसमें धान के बीज डाले । थोड़े दिनों बाद ही खेत में धान के नन्हे - नन्हे पौधे उग आये । पुलिए उन पौधों को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ । कुछ दिनों में धान के पौधे लहलहाने लगे । समय पर वह अपने खेतों की निराई करता जिससे अवांछित पौधे उसके फसलों को क्षति न पहुँचा सकें ।
पुलिए का कठिन परिश्रम आखिर रंग लाया । फसल पककर तैयार हो
गई । फसल काटने का समय आ गया । पुलिए अपनी उपलब्धि पर प्रसन्न था । वह जब भी अपने
खेत के समक्ष होता तो अपनी खेती को देखकर उसे अनेक सुखद स्वप्न दिखाई देते । खेती
को वह अपने अधिकार की संपत्ति समझता था । खेत में आते ही वह परिवार और समाज की
बातें भूलकर स्वप्न में डूब जाता । इस तरह अपने आस - पास की दुनिया को भूलकर अपने
खेतों में खोये रहने की उसे आदत पड़ गई । वह अपने दोस्तों से कहता - " यह
खेती मेरी आत्मा है । ” किशोर एवं
युवावस्था आते - आते पुलिए में खेती के लिए अदम्य आकर्षण हो गया था । इसीलिये दुःख
, विषाद एवं किसी
भी कारण मन अशांत होने पर वह अपने खेत में जाकर शान्ति पाता ।
मानव जीवन में अनेक ऐसी घटनाएँ घटती हैं जिनकी कल्पना भी
मनुष्य नहीं कर पाता । ये घटनाएँ कुछ तो प्राकृतिक होती हैं , कुछ मानव
निर्मित । पुलिए के जीवन में भी ऐसी ही एक दुर्घटना घटी जिसकी कल्पना उसने नहीं की
थी । एक दिन जब वह अपने धान के खेत में गया तो उसने देखा कि किसी जंगलीजीव ने उसके
फसलों को बहुत क्षति पहुँचायी है । काफी प्रयत्न करने के बाद यह पता लगाने में वह
सफल हो गया कि उसकी फसलों को एक विषधर साँप नुकसान पहुँचा रहा है । यह जानकर वह
विषाद से भर गया । दुखी मन लेकर वह गाँव में अपने माता - पिता के पास आया । वह मन
- ही - मन फसल को क्षति पहुँचाने वाले साँप के विषय में सोचने लगा कि किस प्रकार
उसका अंत हो जिससे उसकी फसल को नुकसान न हो । अंततः उसने एक उपाय सोचा और साँप को
मारने की योजना बनाई । अगले दिन वह खेत पर गया और योजना के अनुसार खेत के बाहर एक
बड़ा सा गड्ढा खोदा । शाम ढलने को आई तब वह अपना दाव तथा भाला लेकर उस गड्ढे में
छिपकर बैठ गया तथा साँप के आने की प्रतीक्षा करने लगा । पूर्णिमा की रात थी । चन्द्रमा
अपने शीतल प्रकाश से धरती को प्रकाशित कर रहा था । स्वच्छ चाँदनी में सभी पेड़ , पौधे और आस -
पास के खेतों में खड़ी फसलें साफ दृष्टिगोचर हो रहीं थीं । आकाश तारों से भरा था ।
चाँदनी रात में दृश्य बहुत ही सुहावना था । रह - रह कर कभी - कभी पक्षियों तथा अन्य
जंतुओं की आवाजें भी सुनाई देती थी । धीरे - धीरे आधी रात बीत गई । पुलिए उस गड्ढे
में बैठकर साँप के आने की प्रतीक्षा करता रहा । कुछ देर बाद पुलिए ने अपने खेत में
सरसराने की आवाज सुनी । पुलिए धीरे - धीरे दबे पाँव गड्ढे से बाहर आया । उसने देखा
कि साँप प्रतिदिन की भाँति उसके खेत में धान खा रहा है । पुलिए इस दृश्य को देखकर
क्रोधित हो गया । उसने अपना भाला फेंका और एक ही वार में साँप को मार डाला । तभी
पुलिए ने अद्भुत दृश्य देखा । साँप की आत्मा शरीर से अलग हो चुकी थी। पुलिए जब तक
कुछ समझ पाता , साँप की आत्मा
प्रतिशोध लेने के लिए पुलिए की तरफ बढ़ी और क्षण भर में पुलिए जमीन पर ढेर हो गया
। पुलिए का दुःखद अंत हो गया |
उधर गाँव में पुलिए के माता - पिता शाम को पुलिए के नहीं
लौटने पर चिंता में पड़ गए । ऐसा कभी नहीं हुआ था कि खेतों में काम करके पुलिए शाम
को घर न लौटा हो । पुलिए की मृत्यु के संबंध में गाँव में भी किसी को कोई जानकारी
नहीं थी । पुलिए की कोई खबर न पाकर उसके माता - पिता बहुत बेचैन हो उठे । किसी तरह
रात बीती । गाँव में तरह - तरह की आशंकाएँ व्यक्त की जाने लगीं । गाँव के लोग
पुलिए के घर इकट्ठा होने लगे तथा इस घटना के विषय में विचार - विमर्श करने लगे ।
काफी विचार - विनिमय के बाद सबने यही सोचा कि शायद पुलिए अपने खेतों की रखवाली
करने के लिए ही वहाँ रह गया हो । लेकिन दिन चढ़ने पर भी जब पुलिए घर वापस नहीं आया
तो गाँव के लोग उसकी तलाश में पहाड़ के नीचे उसके खेतों की ओर चल पड़े । वहाँ
पहुँचाने पर उन्हें एक साँप की लाश मिली लेकिन पुलिए का कोई पता नहीं लग सका ।
गाँव वाले तथा उसके माता - पिता ने चिल्ला - चिल्ला कर पुलिए को बुलाना शुरू किया
। पुलिए को जोर - जोर से पुकारने पर अंततः उन लोगों को पुलिए की आवाज सुनाई दी ।
गाँव वाले उस दिशा की ओर बढ़े जिस तरफ से पुलिए की आवाज आयी थी। लेकिन सब कुछ
व्यर्थ साबित हुआ , पुलिए वहाँ
नहीं था । गाँव वाले जैसे - जैसे पुलिए का नाम पुकारते हुए आगे बढ़ते , वैसे - वैसे
पुलिए की आवाज और दूरी पर सुनाई देती । इस प्रकार दूर से आती हुई आवाज के साथ
पुलिए को खोजते - खोजते वे सभी पहाड़ की चोटी पर पहुँच गए , पर पुलिए वहाँ
भी नहीं मिला ।
अंत में गांव वाले और पुलिए के माता - पिता सभी निराश हो गए
और पुलिए के मिलने की आशा छोड़ दी । सबने मिलकर इधर - उधर शिखर पर पत्थरों को
एकत्र कर उसी स्थान पर पुलिए के बैठने के लिए एक चबूतरा बना दिया । उस दिन से आज
तक इस पहाड़ को पुलिए बातजे के नाम से जाना जाता हैं । ऐसा विश्वास किया जाता है
कि पुलिए के परिश्रमी शरीर के अवशेष उस पहाड़ की मिट्टी में मिल जाने के कारण
पुलिए बाद्जे की उर्वरा शक्ति बढ़ गई जिस कारण वहाँ नाना प्रकार के पेड़ पौधों और
सुगन्धित फूलों के वृक्ष पाए जाते हैं । ये पुष्प गुच्छों के आकार में होते
हैं । इस जगह की सुन्दरता और सुगन्धित वातावरण को देखने के लिए आज भी लोग उस पहाड़
पर जाते हैं और पुलिए को याद करते हैं ।
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