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शिक्षा एवं शोध का स्वरूप : डॉ. ई. विजय लक्ष्मी


शिक्षा हर उन्नति का मूल है। अतः यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि शिक्षा के माध्यम से ही वैयक्तिक, सामाजिक और वैश्विक स्तर पर बदलाव लाया जा सकता है। शिक्षा की सहायता से उस क्षेत्र में कार्य किया जा सकता है, जो प्रशासनिक आदि क्षेत्रों में रहकर संभव नहीं है। क्योंकि प्रशासन प्रत्यक्ष रूप से शिक्षा से जुड़ा हुआ नहीं है। इसका ध्येय व्यवस्था को चलाना होता है। बहुत हद तक मशीनी है। बने बनाए नियमों के आधार पर कार्य सम्पन्न करते जाना होता है, इसलिए इस क्षेत्र में नए बदलाव की संभावना कम ही नजर आती है।

मनुष्य का जीवन मूल्यों से बनता है। व्यक्तिगत, सामाजिक एवं वैश्विक मूल्यों के आधार पर हमारा सदाचार का स्थान सर्वोपरी है। शिक्षा का उद्देश्य इनको बढ़ावा देना होता है। व्यक्ति मूल्यों से विश्व मूल्यों का रूप निर्धारण करना होता है। इसके रूप निर्धारण के बाद ही विश्व परम्परा को आगे बढ़ाया जा सकता है और शिक्षा से सीधा-सीधा जुड़कर मूल्य संक्रमण में सहायता की जा सकती है। इन सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़कर ही विश्व मूल्यों से सम्पर्क साधा जा सकता है।

शिक्षा का प्राथमिक संबंध उस वर्ग से है, जिसके कंधों पर भावी समाज का भवन खड़ा होता है। उनके निर्माण में शिक्षक को कुम्भकार की भूमिका लेनी होती है, जो मिट्टी को ठोक-पीटकर उचित मात्रा में पानी मिलाकर चाक पर चढ़ाता है और घड़े को गढ़ता है। स्मरणीय है, कबीर का दोहा-

गुरु कुम्हार सिस कुम्भ है, गढ़ी-गढ़ी काढ़े खोट,

अन्तर हाथ सहार दे, बाहर बाहे चोट।।

जिस प्रकार कुंभकार निश्चित रूपाकार देने के लिए मिट्टी को मथता है, ठीक उसी तरह गुरु शिष्य रूप को बनाते हुए भीतर से सहारा देता है, पर बाहर से उसे अनुशासन में बाँधे रखता है। विद्यार्थी की संभावनाओं को पहचानना और उसकी रचनाशीलता को उजागर करना गुरु का कर्तव्य होता है।

आज विश्व भर में जो परिवर्तन हो रहे हैं, ये शिक्षा में तथा शिक्षा के माध्यम से हो रहे हैं। तात्पर्य यह कि नए-नए परिवर्तन तथा जीवन के नए रास्तों की तलाश में शिक्षा सहायक है। शिक्षा के संस्थान चाहे वह विद्यालय हो , महाविद्यालय या विश्वविद्यालय वर्तमान और भविष्य के निर्माण स्थल है। उनसे जुड़ना गौरव का विषय है।

शिक्षा का सीधा-सीधा संबंध व्यक्ति तथा व्यक्तित्व की स्वाधीनता से है। शिक्षा से जुड़कर व्यक्ति को स्वाधीनता का अनुभव होता है। अपने व्यक्तित्व का बोध होता है। शिक्षा को और ज्यादा रुचिकर बनाने के लिए विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक शिक्षण साधनों में भी समयानुसार परिवर्तन किया जाना चाहिए। नए-नए शोधों से प्राप्त तथ्यों की जानकारी शिक्षा के साथ दी जा सकती है अतः शिक्षा और शोध में गहरा संबंध है।

उपलब्ध सामग्री के आधार पर नए सत्य की खोज शोध का उद्देश्य है। शोध में तथ्य, विश्लेषण व निष्कर्ष होता है।तत्पश्चात उन निष्कर्षों की संभाव्यता होती है। शोध में काल्पनिकता नहीं बल्कि व्यवहारिकता तथा तार्किकता देखी जानी चाहिए। शोध का लक्ष्य मानव ज्ञान में नई परंपरा को जोड़ना है, चाहे वह विज्ञान हो, सामाजिक विज्ञान हो या फिर साहित्य और कला हो, अपने- अपने क्षेत्र में मानव ज्ञान में नई कड़ियाँ जोड़ता है। इसके अलावा इसका भी ध्यान रखना चाहिए कि शोध के क्षेत्र में आने वाले व्यक्ति को अपने अध्ययन क्षेत्र का चयन स्वयं करना चाहिए। मनुष्य के संस्कार, शिक्षा, जीवन के उद्देश्य तथा वातावरण उसके अध्ययन क्षेत्र को निश्चित करते हैं। अतः प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक क्षेत्र में न शोध कर सकता है न करा सकता है, इसलिए स्तरीय शोध के लिए जरूरी है, क्षेत्र चयन व उसकी गहराई से अध्ययन कर शोध किया व कराया जाए।

शोध हमेशा निष्कर्षवादी ही हो यह आवश्यक नहीं। शोध हमारे सामने यथार्थ स्थिति को लाने वाला और उस क्षेत्र में आगे बढ़ने की आवश्यकता प्रतिपादित करने वाला भी हो सकता है।शोधार्थी को शोध की प्रविधियों की भी जानकारी होनी चाहिए। शोध में हमेशा मानवता एवं स्तरीयता का ध्यान रखा जाना चाहिए। साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि वर्तमान समय में किस प्रकार के शोध की आवश्यक्ता है। प्रचलित अथवा परम्परागत शोध में केवल एक पक्ष को लिया जाता रहा है। चाहे वह व्यक्तित्व और कृतित्व से जुड़ा हो, सौन्दर्य बोध से जुड़ा हो, भाषा से जुड़ा हो या रचना विशेष से जुड़ा हो, इस प्रकार का शोध एकांगी ही रहा है। आज आवश्यकता इस बात की है कि परम्परागत शोध पद्धति के साथ अन्तर्विषयक या अन्तरानुशासन जुड़ा हो। उदाहरण के लिए साहित्य एवं विज्ञान के संबंधों पर जैसे- किसी भाषा की कविता में वैज्ञानिक प्रयोग, किसी भाषा की कविता में पेड़-पौधे, किसी कवि के काव्य में रंग, साहित्य की किसी विधा में विचारधारा या विचारधाराएँ। इन विषयों पर शोध किया जा सकता है। इसके साथ ही तुलनात्मक शोध की भी आवश्यक है। इसके माध्यम से हिन्दी रचनाकारों का साथ हिन्दी में अन्य भाषा साहित्य पर शोध की संभावना बढ़ जाएगी।  शोध के संबंध में यह मिथ टूट जाना चाहिए कि शोध किसी भाषा में प्राप्त किसी पक्ष पर ही हो सकता है। उदाहरण के लिए यह परम्परा चलती रही है कि हिन्दी में हिन्दी रचनाकारों तथा उनके साहित्य पर ही शोध किया जा सकता है। हिन्दी में भी अन्य भाषा साहित्य पर शोध होना चाहिए, इसी तरह अन्य भाषा साहित्य में हिन्दी कृतियों तथा रचनाकारों पर शोध किया जाना चाहिए।

इस प्रकार सीमाएँ जब टूटेंगी तभी भारतीय साहित्य एवं विश्व साहित्य का रूप सामने आएगा और विभिन्न भाषाओं में आपसी संबंध मजबूत होंगे।अब यह भी जरूरी हो गया है कि विभिन्न भाषाओं में जो अनुवाद हो रहे हैं, उन पर केन्द्रित शोध किया जाए। आज तक विभिन्न भाषाओं में हुए अनुवाद के स्तर को भी परखा जाना चाहिए। एक ही कृति का विभिन्न भाषाओं में हो रहे अनुवाद के स्वरूप को समझा और जाँचा जा सकता है।


सह आचार्य हिंदी विभाग

मणिपुर विश्वविद्यालय

काँचीपुर इम्फाल-795001

मो- 9856138333

email- vningthoukhongjam@gmail.com

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