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त्यौहारों की प्रासंगिकता


मानव में संवेदनाएँ नैसर्गिक होती हैं। संवेदनाएँ ही मानव को गतिशील बनाती हैं और मानव को विविध क्रिया-प्रतिक्रिया के लिए प्रेरित करती हैं। अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए मानव श्रम करता है, संघर्ष करता है और अपनी, परिवार की और समाज की आवश्यकताएँ पूरी करने की कोशिश करता है। इस प्रक्रिया के दौरान जब-जब उसे सफलता हासिल होती है, तब-तब अपनी खुशी और आनंद की अनुभूति को परिवार और समाज के साथ साँझा करता है। सामूहिक स्तर पर जब इस अनुभूति का आयोजन होता है, तब वह त्यौहार का रूप ग्रहण करता है। हमारे जीवन में त्यौहारों का महत्वपूर्ण स्थान है ; चाहे वह धार्मिक हो, पारंपरिक तथा सांस्कृतिक हो या फिर राष्ट्रीय पर्व हो। सभी त्यौहारों का हमारे जीवन में विशेष स्थान होता है। हर त्यौहार का अपना एक इतिहास होता है। समाज में व्याप्त मिथकों से भी उसका संबंध रहता है। त्यौहारों के माध्यम से व्यक्ति अपनी संस्कृति को ही नहीं जीता, बल्कि सामाजिक संबंधों का भी निर्वाह करता है। त्यौहार मनाते हुए व्यक्ति नैतिक आचरण तो सीखता ही है, इसी क्रम में वह संबंधों को महत्व देना भी सीख जाता है। भारत जैसे विविधता से पूर्ण देश में वैविध्यता को समझने और आत्मसात करने का अवसर त्यौहारों के माध्यम से मिल जाता है। इससे यह अहसास होता है कि हर व्यक्ति महत्वपूर्ण है। हर वह संबंध जो व्यक्ति बनाता है, वह खास होता है। त्यौहार व्यक्ति को यह अवसर भी देता है कि अपनी नीरस दिनचर्या से मुक्त होकर भातृत्व की भावना के साथ त्यौहारों का आनंद लें। परिवार के सदस्य जो भौगोलिक दृष्टि से दूर हो जाते हैं, वे भी त्यौहार के बहाने मिलते हैं। इससे जीवन को उत्साह के साथ जीने की प्रेरणा मिलती है। त्यौहार खुशी मनाने का अवसर मात्र नहीं होता, बल्कि अपनी पहचान और अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने का अवसर भी होता है। इसलिए प्रत्येक समाज में मनाए जाने वाले त्यौहारों की एक परंपरा होती है।

मणिपुरी समाज में वर्ष का आरंभ ही त्यौहार से होता है। मणिपुरी वर्ष में अन्य समाजों के वर्ष की तरह बारह महीने होते हैं - सजिबू , कालेन, इङा, इङेन, थवान ,लाङबन, मेरा, हियाङगै, पोइनू, वाकचिङ, फाइरेन और लमता। सजिबू नोङमा पानबा अर्थात वर्ष का पहला दिन चैराओबा मनाया जाता है।यह प्रायः अंग्रेजी महीने के अप्रिल और मई में पड़ता है। इस दिन गृह देवता सनामही को चावल, विभिन्न प्रकार की हरी सब्जियाँ, फल-फूल चढ़ाया जाता है। फिर उसे पकाकर घर के बाहर पूर्वजों को अर्पित किया जाता है। तत्पश्चात घर के बड़ों से आशीर्वाद के साथ सभी सदस्य एक साथ भोजन करते हैं। इङा-इङेन जो प्रायः मई-जून-जुलाई में पड़ता है, लाइहराओबा का समय होता है। मणिपुरी समाज- जीवन का लाइहराओबा के साथ एक अटूट संबंध रहा है। मणिपुरी कला एवं संस्कृति का उत्स लाइहराओबा को ही माना जाता है। राजा गरीबनिवाज के शासन काल में वैष्णव धर्म को अपनाने के बाद मणिपुर में हिंदू धर्म संबंधी त्यौहारों का आयोजन बड़ी धूम-धाम के साथ होता आ रहा है। इङेन में रथयात्रा, थवान में झूलन, लाङबन में तर्पण, मेरा महीने में दिपावली, गोवर्धन पूजा, लमता में याओशङ अर्थात होली का आयोजन हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। लाङबन में हैक्रूहिदोङ्बा त्यौहार फल विशेषकर आँवले का महत्व प्रतिपादित करता है, वही हियाङगै का निङोल चाक-कौबा मणिपुरी समाज में स्त्री के महत्व को प्रमाणित करने वाला त्यौहार है। इस दिन विवाहित स्त्रियों को मायके में भोज पर बुलाया जाता है और सामर्थ्यानुसार उपहार भी दिया जाता है। वाकचिङ में धन-धान्य की देवी इमोइनू की पूजा होती है। इस तरह सजिबू से लेकर लमता तक त्यौहारों का एक क्रम चलता रहता है।

 यह सही है कि त्यौहार मन-मस्तिष्क को थका देने वाली दिनचर्या से मुक्ति का एक जरिया है। त्यौहार तमाम तनावों से मुक्ति दिलाकर जीवन के प्रति विश्वास और आस्था जगाने वाला अवसर है। त्यौहारों के माध्यम से हम बहुत कुछ अपने बड़ों से सीखते हैं और उसे भावी पीढ़ी को हस्तांतरित भी करते हैं । परन्तु धीरे-धीरे त्यौहारों के स्वरूप में बदलाव आ रहा है। इससे हमारे सामने दो प्रकार के प्रश्न उभरकर आते हैं। एक यह कि वर्ष भर चलने वाले इन त्यौहारों की क्या प्रासंगिकता है और दूसरा यह कि त्यौहारों के स्वरूपों में जो बदलाव आ रहे हैं , उसकी दिशा कहाँ तक सही है । जहाँ तक पहला प्रश्न प्रासंगिकता का है, आज के भूमण्डलीकरण और तकनीकि युग में व्यक्ति संवेदनहीन होता जा रहा है, मशीनों के बीच रहते-रहते आदमी भी मशीन बनता जा रहा है। ऐसी स्थिति में त्यौहारों की प्रासंगिकता स्वयं सिद्ध हो जाती है। त्यौहार मानव को मानव होने का अहसास दिलाता है। संस्कृति तथा धार्मिक भिन्नता को भुला कर भातृत्व की भावना के साथ सब मिलकर त्यौहारों का आनंद ले पाएँ तभी सही मायने में त्यौहारों का उद्देश्य पूरा होता है। इसके साथ ही दूसरा प्रश्न जो कि त्यौहारों के स्वरूपों में आ रहे बदलावों की दशा और दिशा का है, इस संबंध में विचारणीय है कि यदि त्यौहारों के साथ जुड़ी परम्पराएँ रूढ़ि बन गई हैं, तो उसे त्यागने में कोई हर्ज नहीं। प्रगतिशीलता जीवित समाज की निशानी है और परिवर्तन शाश्वत। समय के साथ परिवर्तन का आना स्वाभाविक है। पर प्रगतिशीलता के नाम पर दिखावा, उपहारों की होड़ और हर स्थिति में पश्चिमीकरण या आधुनिकता के नाम पर अंधानुकरण  से बचना चाहिए, तभी  कोई समाज अपनी पहचान और अस्मिता को सुरक्षित रखने में सक्षम हो पाएगा।

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