मणिपुर की अकादमिक यात्रा का लेखकीय साक्ष्य : प्रो. यशवंत सिंह
दरअसल
मणिपुर विश्वविद्यालय, इम्फाल के हिंदी विभाग में अगस्त 2010 के अंतिम दिनों में
‘पूर्वोत्तर भारत की भाषाएँ (मणिपुरी व असमिया) विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित
हुई थी। तत्कालीन विभागाध्यक्ष के बुलावे पर प्रेमकुमारजी ने इस दो-दिवसीय
संगोष्ठी में सहभागिता की तथा इस दौरान लगभग एक सप्ताह तक उनका मणिपुर
विश्वविद्यालय,काँचीपूर
परिसर में प्रवास रहा। विदित है कि काँचीपूर मध्यकाल में मणिपुरी रासलीला की
जन्मभूमि एवं लीला भूमि तथा आधुनिक काल में मणिपुरी नवजागरण के रचनाकार डॉ. कमल की
जन्म एवं कर्मभूमि है। प्रेमकुमारजी ने अपने मणिपुर प्रवास के दौरान विश्वविद्यालय
के प्राध्यापकों एवं स्थानीय निवासियों से वार्तालाप किया तथा कुछ स्थानीय दर्शनीय
स्थलों यथा- इम्फाल शहर का वृहद् महिला बाजार ( स्थानीय इमा कैथेल) आदि का भ्रमण
किया। इन सबसे प्राप्त अनुभवों को उन्होंने अपने इस यात्रावृत्तांत की विषयवस्तु
बनाया, जिसमें उनके निज अनुभवों-विचारों की भी महती भूमिका है।
30
अगस्त,2010
को प्रातः संगोष्ठी का उद्घाटन सत्र प्रारभ हुआ, इसमें लेखक ने किंचित सहमते से
जल्दी-जल्दी लेकिन काव्यमयी भाषा में अपना वक्तव्य पढ़ा। इस व्यक्तव्य में उन्होंने
मणिपुर को ‘पूरब का स्विट्ज़रलैंड’ ‘अटारी पर स्थित फूल’ और अलंकारों-मणियों की
भूमि कहा तथा यहाँ की प्रकृति संस्कृति की प्रशंसा करते हुए भाषा के जोड़ने-मिलाने
के वैशिष्ट्य को रेखांकित किया। लेखक के अनुसार इस संगोष्ठी
की व्यवस्था में संलग्न हिंदी विभाग की मणिपुरी छात्राओं के हिंदी बोलने के ढंग,
उच्चारण और उनके अधिकार एवं उत्साह भाव ने सभी आगंतुक अतिथियों को प्रभावित किया। हिंदी
बोलने के उनके अंदाज की लगभग सभी ने मुक्तकंठ से सराहना की थी। यही पर लेखक
मणिपुरी खानपान की चर्चा करते हुए मछली की सब्जी, मणिपुरी चावल, बेसन के पकोड़े,
फीका पेठा, काले चावल की खीर का उलेख भी करते हैं। लेकिन दोपहर के खाने में
चपातियों का अभाव उन्हें आधा पेट भूखा रह जाने को बाध्य कर देता है।
विश्वविद्यालय
अतिथि गृह के कमरे में रात्रि विश्राम के समय लेखक की सर्वहारा वर्ग के प्रति
चिंतान्ग्रस्त पीड़ा अभिव्यक्त होती है – ‘ये गेस्ट हाउस, ये विश्वविद्यालय ही
क्या, हमारे कितने ही शहर महानगर हमारे प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री,
अफसरों के आवास वहाँ के किन मूल निवासियों आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन को
हथिया-कब्जाकर बने हैं। ’ अगले दिन सुबह अतिथि गृह से बाहर सड़क पर निकलते ही असम
राइफल्स के गश्ती जवानों को देखकर लेखक के मन में भय का मुन्ना सा भाव अन्दर बुलबुला
कसमसा उठता है । उन्हें विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार पर बड़ी तादाद में असम
राइफल्स की तैनाती पर भी डर-सिहरन महसूस होती है । यहाँ पर वास्तविक तथ्यों से
अनजान लेखक अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं से कुछ ज्यादा ही बंधा नजर आता है। क्योंकि
मणिपुर विश्वविद्यालय परिसर के लिए जिन किसानों की भूमि अधिगृहित की गयी थी, उनको
पर्याप्त मुआवजा राशि भुगतान करने के साथ ही, उनके परिवार के किसी एक सदस्य को भी
विश्वविद्यालय ने नौकरी में रखा हुआ है । राष्ट्रीय संगोष्ठी के आयोजक हिंदी विभाग
में कार्यलय सहायक के रूप में कार्यरत एस. ब्रोजेंद्रो सिंह, इसके प्रत्यक्ष
लाभार्थी हैं। बल्कि इसके लिए विश्वविद्यालय ने अपने सुरक्षार्थी नियुक्त कर रखे
हैं, जो रोजी रोजगार का माध्यम है तथा इसमें पुरुषों के साथ महिला सुरक्षा
कर्मियों की भी पर्याप्त सहभागिता है।
लेखक
द्वारा ‘कुछ खाने की तलाश’ का उपक्रम उनकी मानवीय संवेदनशीलता को उजागर करता है। इसी
क्रम में उनकी भेंट विश्वविद्यालय गेट के पास ही घर में होटल चला रहे एक ऐसे
नवयुवक एवं उसकी माँ से होती है,
जो लेखक की कुछ खाने की इच्छा पूरी करते हैं। साथ ही लेखक बातों-बातों में ही उस
परिवार से आत्मीय रूप से जुड़कर उनके सुख-दुःख से क्षणिक सहभागी बन जाते हैं । यहीं
पर लेखक को अलीगढ़ के रामलीला मैदान के विनोद चाय वाले का स्मरण हो आता है, जहाँ पर
वे अपने बेरोजगारी के दिनों में बरसों-बरस भूख मिटने जाते थे । लेखक के अनुसार –
‘मुझे लगा कि जैसे मैं अपने कॉलेज में, अपने शहर में हूँ और जैसे कि अपने घर बैठा
हूँ। मेरे सामने बैठा यह युवक जैसे मेरा बेरोजगार बेटा है । ’ राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन के दौरान लेखक की मुलाकात
पद्मश्री झलजीत सिंह से हुई,
जो विभाग के एक बुलावे पर अपनी साइकिल स्वयं चलाकर निर्धारित समय से पहले ही
कार्यक्रम स्थल पर पहुँच गए थे । लेखक उनके व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित होकर
लिखते हैं- ‘रोम-रोम से प्रकट सादगी। देवदार-सी काया । सम्राटों की तरह लम्बे हाथ
और ऊँचे मजबूत स्कंध । संगोष्ठी के समापन सत्र में उनके उद्बोधन का पहला वाक्य था –
“आज में हिंदी बोलना चाहता हूँ। ” आगे, अब भारत स्वतंत्र है,..............मणिपुर
उनका अभिन्न अंग है । ..............हिंदी के बिना भारत गूंगा है............सो हम
हिंदी को मानते हैं । मणिपुरी साहित्य के मर्मग्य अध्येता का यह उद्बोधन निश्चय ही
भारतीयता एवं हिंदी के प्रति उनका अगाध प्रेम को अभिव्यक्त करता है।
संगोष्ठी
समापन के अगले दिन लेखक अतिथियों के साथ विश्वविद्यालय के सहायक वित्त-अधिकारी
श्री बसंता के आवास में चाय पार्टी हेतु आमंत्रित होते हैं। जिसकी मधुर स्मृतियों
का उल्लेख करना वे नहीं भूलते –‘पति-पत्नी
दोनों चाय, खाद्य पदार्थ की प्लेट्स लेन में जुट गए। अतिथियों को पलंग स्टूल चटाई
आदि में बिठाया गया था। इस बीच बातचीत लगातार जारी थी, लोग हिंदी में ही बातचीत कर
रहें थे। उस घर की सादगी, ईमानदारी और आत्मीय भाव ने हम सबका ध्यान खींचा । वर्ना
आज तो छोटी सी नौकरी वाले लाखों के फ्लैट्स में रहते हैं और रहने से पहले उसकी
साज-सज्जा में लाखों लाख खर्च कर देते हैं। लेखक का मन मणिपुर की आयरन लेडी इरोम शर्मीला से मिलकर बातचीत करने को
था। लेकिन बहुत कोशिशों के बाद भी जब उनसे संपर्क नहीं साध पाये,तो
लेखक ने अंग्रेजी विभाग के प्राध्यापक एवं पूर्व में मणिपुर विश्वविद्यालय के
छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके डॉ. गंभीर सिंह के साथ बैठकर इत्मिनान से बातचीत
करना उचित समझा। बातचीत के सिलसिले में डॉ. गंभीरजी ने बताया कि – ‘नार्थ-ईस्ट में
मैन प्रॉब्लम के केंद्र में गरीबी है या नहीं? गरीबी से यहाँ कोई नहीं मर रहा, ऐसे
मरने वाले बहुत कम हैं। यहाँ पर हर व्यक्ति को लगता है कि मेनस्ट्रीम इंडिया ने
नेगलेक्ट किया है। ’ आगे गंभीरजी कहते हैं - यह सब हमारे अनजानपन के कारण है । हमारे
क्षेत्रीय लीडर भी इसके कारण हो सकते हैं, क्योंकि वो जनता को ठीक से समझा बता
नहीं रहे हैं। मणिपुर में हिंदी भाषा की स्थिति में उनके अनुसार – ‘इंडिया में
रहना है तो हिंदी को जानना होगा, इसमें बुरा क्या है? हिंदी फॉर मार्केटिंग, हिंदी
फॉर डे-टू-डे कम्युनिकेशन्स, टूरिज्म, व्यापार की भाषा बनती जा रही है। ’ सच तो यह
है कि मणिपुर का युवा वर्ग हिंदी के प्रति दिनों-दिन आकर्षित हो रहा है । उनका ऐसा
मानना है कि यदि मणिपुर से बाहर जाना है,
तो हिंदी को सीखना जनना होगा। इसके लिए वह हिंदी फिल्मी-गानों, हिंदी फिल्मों व्
धारावाहिकों का सहारा ले रहा है। मणिपुर के इम्फाल शहर में ‘हिंदी कोचिंग सेंटर’
का खुलना उनके लिए उपयोगी सिद्ध हो रहा है। जहाँ जाकर वे स्वाध्याय से हिंदी सिख
रहें हैं।
हिंदी
विभाग में लेखक की मुलाकात विभाग के तीन छात्राओं एवं पूर्व छात्र गुणेश्वर से
होती है । उनसे वार्तालाप के क्रम में इरोम शर्मीला के प्रति भारत की सरकार की
बेरुखी का दर्द गुणेश्वर के कथन में झलकता है –‘एक
और बात-बात बहुत इम्पोर्टेन्ट बात। एक महिला दस साल से भूख-हड़तालकर रही है। पी.ऍम
को सोनिया को सब को पता है। सब जगह जाते है-यहाँ कोई नहीं आया, उसे देखने। हाँ,
संसद में बैठकर कड़े से कड़े कानून बनाने का जरूर सोच रहें हैं।’
लेखक जब गुणेश्वर से आगे का पूछते हैं तो उनका जवाब होता है –‘क्या
हम सोचेगा और क्या हमारे सोचने से कुछ हो जाएगा? पर यह जरुर है कि अगर सरकार जल्दी
नहीं सोचेगी –चेतेगी तो हालत और ज्यादा बिगड़ जाएगा । यहाँ का यंग और ज्यादा हथियार
खरीदेगा और ज्यादा मिलिटेंट बनेगा। लेकिन हमारा एक रिक्वेस्ट है सर !’
यह कहकर वह चुप हो गया । लेखक के कहने पर वह पुनः बोलने लगा- ‘सर
आप दिल्ली जाकर पी.एम. को होम मिनिस्टर को यहाँ की सही सही बात बताना। मिलकर बताना
या लिखकर पर बताना जरूर। उन्हें बताना कि जब सेंट्रल गवर्मेंट पंजाब-कश्मीर यहाँ
तक पाकिस्तान के मिलिटेंट से बात कर सकती है, उनसे सौदा समझौता कर सकती है हमारी
इरोम शर्मीला से बातें नहीं कर सकती ? वो तो कभी वायलेंस की? लेने देने की बात भी
कभी नहीं किया – तो फिर......।’लेखक
और गुणेश्वर की ये बातें तत्कालीन सरकार की संवेदनशीलता का परिचायक है।विदित हो कि
मणिपुर में सुरक्षा बल को प्राप्त विशेष सशस्त्र बल अधिनियम को बंद करने की माँग
को लेकर इरोम शर्मीला जी ने अनशन प्रारंभ किया था,
जो 16 वर्षों
के बाद 11
नवम्बर,2018
में बगैर किसी नतीजे के समाप्त हो गया था । अब इरोम शर्मीला जी सामान्य दाम्पत्य
जीवन व्यतीत कर रही हैं। वे21वीं सदी के प्रारंभिक दो दशकों
में युवा संघर्ष का प्रतिक बन गयीं।
मणिपुर
प्रवास से वापस अलीगढ़ जाने से पहले एक दिन लेखक मेरे (यशवंत) आवास पर रात्रि के
भोजन के लिए आमंत्रित होते हैं। लेकिन यहाँ पर भी लेखक को गेहूँ के आते की चपातियाँ
भोजन में न मिलने का मलाल बना रहता है। अकसर रोजी-रोजगार की तलाश में व्यक्ति को
जहाँ आश्रय मिलता है,
वह वहीं के माहौल में ढल जाता है, वहीं का हो जाता है। लेकिन बाहर से आए आगंतुक के
लिए कुछ कष्टों का होना लाजमी हो जाता है। लेकिन अब स्थिति तेजी से बदल रही है। गेहूँ
का पैकेट बंद आटा तथा उपभोग की अन्य वस्तुएँ भी आसानी से सर्वसुलभ हो रही हैं,
जिसे बढ़ते बाजारवाद का प्रभाव कहा जा सकता है। पिछले कुछ वर्षों से मणिपुर के
निवासियों को सघोषित बंद-रोड रूकावट से भी निजात मिल रहा है, जिससे स्थितियों में
आशाजनक सुधार हो रहा है। मणिपुर के सीमावर्ती शहर जिरीबाम से राजधानी तक की रेल
परियोजना के पूर्ण होने पर स्थितियों के सामान्य होने में देर नहीं लगेगी।
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संपर्क
सूत्र
हिंदी
विभाग
मणिपुर
विश्वविद्यालय
काँचीपुर,इम्फाल(मणिपुर)
ईमेल-yashwantsingh68@gmail.com
मो
- 9612169840
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