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स्त्री विमर्श और स्त्रीवादी समीक्षा में नारी अस्मिता : डॉ. किरण हजारिका


हिन्दू धर्म का सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में कहा गया है कि स्त्रियों का प्रेम स्थायी नहीं होता है, वे धन लोलुप होती हैं।1 यह बात पुरूरवा और उर्वशी प्रसंग में कही गई है। बाइबिल में कहा गया है कि भगवान ने पुरुष  को बनाया तथा बाएँ भाग से स्त्री का निर्माण किया इसलिए उसे वॅउंद कहा गया।2

चाहे पश्चिम की औरतों की सभ्यता हो या पूरब की औरत की अस्मिता को विशेष महत्व नहीं दिया गया है। वैसे भारतीय ग्रन्थों में सरस्वती लक्ष्मी एवं दुर्गा के स्वरूप में नारी की शक्ति को परावर्तित किया गया है, पश्चिम में भी बेल्डोना को रणचण्डी के रूप में दिखाया गया है। हिन्दी की एक फिल्म में कहा गया है औरत ने जन्म दिया मर्दों को। मर्दों ने उसे बाजार दिया। जब चाहा उनसे प्यार किया। जब चाहा तो दुत्कार दिया।

यद्यपि फिल्मी दुनिया के कथन को मनोरंजन स्तर पर लिया जाता है, परन्तु इस प्रकार के कथन में भी समाज की सच्चाई निहित होती है।

        तुलसीदास जैसा सांस्कृतिक कवि रामचरित मानस के बालकाण्ड में लिखता है-

                कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं।

                पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥3

नारी के भाग्य को लेकर यह पार्वती की माता का कथन है। आदि कवि वाल्मीकि ने क्रौच पक्षी के जोड़े में से एक को मारे जाने पर पर बहेलिये को शाप दे दिया था, किन्तु गर्भवती सीता को घर से बन निकाले जाने पर कोई विरोध नहीं व्यक्त करता, सब मौन रहते हैं। सेंटजान की राष्ट्रीय सेवा की उपेक्षाकर उसे जीवित जला दिया गया था क्योंकि वह स्त्री होकर पुरुष  वेश में राष्ट्र के लिए लड़ाइयाँ लड़ी थीं।4

ऊपर के वर्णित आख्यान नारी नियति के आख्यान हैं । किन्तु इतिहास किसी की गलती पर हमदर्दी तो करता है उसे क्षमा नहीं करता। लम्बे समय के पश्चात स्त्री-विमर्श का उदय हुआ।

स्वी-विमर्श या नारीवाद, पुरुषों के समकक्ष स्त्रियों की राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षिक समानता का आन्दोलन है जो नारी जागृति का प्रमाण है। अंग्रेजी में इसके लिए थ्मउपदपेउ शब्द का प्रयोग किया जाता है, जिसके लिए हिन्दी मेंनारीवादशब्द प्रचलित है। सिद्धान्त रूप में यह कहा जाता है कि इसका प्रारम्भ ग्रेट ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ। इसकी जड़ें 18वीं सदी के मानवतावाद और औद्योगिक क्रान्ति में थीं। नारियाँ पहले पुरुषों के मुकाबलें, शारीरिक रूप से हीनतर समझी जाती थीं। कानून और धर्म शास्त्र दोनों ही ने उनकी पराधीनता की व्यवस्था की थी। नारियाँ अपने नाम से कोई सम्पत्ति नहीं रख सकती थीं। स्त्रियों के लिए व्यापक अवसर प्रदान किये जाने की आवाज पहले उठ चुकी थीं। इसमें पहला और महत्वपूर्ण दस्तावेज स्त्रियों के अधिकारों की बहाली (1792 ई॰) का था, जिसमें फ्रांसीसी क्रान्ति के दौरान महिला रिपब्लिक क्लबों ने मांग की थी कि आजादी समानता और भ्रातृत्व का व्यवहार बिना किसी लिंग भेद के होना चाहिए। नैपोलियन की संहिता आ जाने से यह विचार ठंडा पड़ गया। नारीवादी आन्दोलन 1848ई. में ही प्रारम्भ हो सका।5

1970ई॰ तक अमेरिका महिलाओं के लिए शिक्षा, राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्र में सुविधा देने की ओर उन्मुख हो गयी थी। 1970ई॰ के पार करते-करते नारी आन्दोलन में वहाँ भटकाव भी आ गया। यौन सुख का प्रश्न असाधारण रूप से महत्वपूर्ण हो गया। पहले स्त्रियाँ लोक तांत्रिक अधिकारों के लिए मांग कर रही थीं, इसके अन्तर्गत वे शिक्षा और रोजगार के अधिकार, संपत्ति के मौलिक होने का अधिकार, मतदान का अधिकार, संसद में प्रवेश पाने का अधिकार, तलाक के अधिकार की मांग करती थीं। आज वे स्त्री पर पुरुष  के दबाव तथा अपने यौग शोषण के विरूद्ध लड़ाइयाँ लड़ रही हैं, किन्तुजहाँ तक विमर्श का प्रश्न है वर्जीनिया वुल्फ ने 1929 में लिखा था - ह्वाइट हाल के पास से गुजरते हुए किसी भी स्त्री को अपने अस्तित्व को बोध होते ही अपनी चेतना में अचानक उत्पन्न होने वाली दरार सभ्यता की सहज उत्तराधिकारिणी होने पर वह इसके बाहर, इससे परकीय और इसकी आलोचक कैसे हो गयी है।       इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि स्त्री के साथ अन्याय हुआ है।

आज साहित्य में जो स्त्री विमर्शशब्द आया है वह इतिहास में नारी उपेक्षा की ओर संकेत करता है। वास्तविकता यह है कि स्त्री समाज के साथ साहित्य में भी उपेक्षित रही है। आज तक साहित्य लेखन, आस्वादन और समीक्षा पुरुष वादी दृष्टि से होते रहे हैं। अतः आवश्यकता है कि साहित्य के पाठ को स्त्रीवादी दृष्टि से पढ़ा और समझा जाए। स्त्रियों द्वारा रचित साहित्य स्त्रीवादी दृष्टि से विवेचित और विश्लेषित होना चाहिए।

यह बात सहज रूप से स्वीकार्य है कि स्त्री साहित्यकारों में मीरा, महादेवी, कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, शिवानी, उषा प्रियंवदा की रचनाओं में स्त्रीत्व गुण सहज उपलब्ध है। शिल्प-संरचना, भाषा-बिम्ब, प्रतीक और भाव की दृष्टि से एक विशिष्टता अवश्य रहती है, जिसे बेहतर ढंग से स्त्री-वादी समीक्षक (गाइनो क्रिटिक) ही समझ सकता है। इसीलिए स्त्रीवादी समीक्षकों का विचार है कि स्त्री द्वारा रचित साहित्य को स्त्रीवादी विशेष दृष्टिकोण से पढ़ना चाहिए।

अब सवाल उठता है कि स्त्रीत्वको कैसे रेखांकित किया जाए। मनोविज्ञान और शरीर विज्ञान के आलोक में औरतपनशारीरिक परिवर्तन के साथ ही भाव और मनोविज्ञान परिवर्तन की एक प्रक्रिया है, जो वयःसंधि में लड़कियों में शुरू होता है। इस परिवर्तन से उसके बोध और मनोविकारों, उसके भाव-संसारों में भिन्न प्रकार की मनःस्थितियों का विकास होता है, जो कालान्तर में शील, सौन्दर्य, शर्म, एकाकीपन, असुरक्षा, यौन सम्बन्ध का आग्रह और गोपन आदि के रूप में परिवर्तित और परिभाषित होता है।

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि महिला रचनाकार द्वारा सृजित साहित्य में भाषा संरचना, हस्तलेख, शिल्प के नाना अवयवों काव्य-भाषा, बिम्ब प्रतीकादि में पुरुष  रचनाकार से भिन्नता होना स्वाभाविक है, किन्तु कुछ प्रतीक - बिम्ब स्त्री और पुरुष  दोनों रचनाकारों के एक जैसे होते हैं। अवश्य ही वहाँ अर्थ में भिन्नता होती है। अर्थवत्ता का यही स्त्रीवादी पाठ गाइनों टेक्स्ट की संरचना है।

यहाँ एक बात विचार करने की है। दिनकर की रचना उर्वशी में देह भाषा मूलक बिम्ब है। जैसे रसमाती, भटकती, उँगलियों का संचरण त्वचा पर’, क्या यहाँ स्त्री के शरीर भाषा का बिम्ब नहीं उभरता? इसी प्रकार कालरिज की कविता कुवला खानयौन बिम्ब नहीं प्रस्तुत करती? सच तो यह है कि देहभाषा को स्त्री समीक्षा में ढूंढ़ना उपस्थित में अनुपस्थित की खोज है। स्त्रीवादी समीक्षकों ने फ्रायड के दमित काम भावना को भी अस्वीकार कर दिया है।

1980ई॰ के उत्तर संरचनावाद ने इन मान्यताओं का खण्डन कर दिया है। कभी सिमोन बुआ ने कहा था कि स्त्री पैदा नहीं होती वह समाज में बन जाती है।उत्तर संरचनावाद सिमोन दि बुआका समर्थन करता सा नजर आता है। स्त्रीवादी समीक्षकों का मानना है कि स्त्री संस्कृति पुरुष  संस्कृति से अलग है। इस स्त्री संस्कृति की खोज गाइनो पाठ के विश्लेषण से ही संभव है।

इस सम्बन्ध में रोलाॅवार्थ की कृति फैशन की प्रणाली उल्लेखनीय है। रोला बार्थ मानते हैं कि फैशन उपभोक्ता समाज के प्रत्येक क्षेत्र में है, परन्तु मनुष्य के सन्दर्भ में फैशन देह प्रधान बन जाती है। उपभोक्तावादी संस्कृति उपभोक्ता प्रधान है, इसमें नारी का जिस प्रकार का शोषण हो रहा है, ऐसा पहले नहीं था। उत्तर आधुनिक समाज में देहवाद को एक केन्द्रीय मूल्य बनाया गया है । इसके साथ कामुकता को जोड़कर इसका विनिमय हो रहा है।

यह बात उल्लेखनीय है कि आज से पूर्व भी स्त्री को पुरुष  के विपरीत गुणों वाला बताकर ऐसे दृष्टिकोण को जन्म दिया गया है, जिसमें स्त्री भोग्या बन गयी है। गोदान में मेहता से कहलवाया गया है कि स्त्री के गुण पुरुष  से विपरीत है, अगर वह पुरुष  का गुण धारण करेगी तो कुल्टा बन जायेगी।

इस प्रकार मानव सभ्यता में स्त्री-पुरुष  की गुणात्मक भिन्नता है। संसार में प्रारम्भ काल से ही पितृ सत्तात्मक संस्कृति का बोलबाला रहा है। नारीवादियों का मानना है कि पितृ सत्ता घर, राज्य, धर्म संस्थानों, कानून, शिक्षा-संस्थानों, सांस्कृतिक संस्थानों से प्रभावी है। यह प्रभाव स्त्रियों में भी सक्रिय है। नारी वादी मानते हैं कि दमनकारी रचना स्त्री को सर्वाधिक प्रभावित करती है।

नारीवादी समीक्षक यह मानते हैं कि पढ़ना-लिखना चिंतन करना, आलोचना करना, इन सबका लक्ष्य एक ही है अर्थात् दमनकारी संरचनाओं के यथार्थ का उद्घाटन और उन्हें बदलना।

हिन्दी में नारीवाद का प्रारम्भ सामान्य रूप से पश्चिम के प्रभाव से माना जाता है। भारत में आरंभिक आन्दोलन कर्ताओं में पंडित रमाबाई तथा सावित्री बाई फूले के नाम उल्लेखनीय हैं। ये दोनों उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में सक्रिय रहीं। पंडिता रमाबाई ने स्त्रियों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया, हिन्दू धर्म की रूढ़िवादिता पर आघात किया। उन्नीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में स्त्री स्वतंत्रता की बात की। सावित्री बाई फूले ने स्त्री शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण काम किया, उनके लिए अलग स्कूल खोला।

हिन्दी साहित्य में नारीवाद की गूंज प्रभा खेतान की पुस्तक उपनिवेश में स्त्री’: मुक्ति कामना की दस वार्ताएँसे होती है।7 इस पुस्तक में इन्होंने नारीवाद को लेकर चलने वाली गतिविधियों का हवाला दिया है। उनका मानना है कि प्रत्येक स्त्री अपने आप में एक विशिष्ट स्त्री है। अपने जीवन जीने और होने के तरीके से ही वह अपना स्त्री होना स्थापित करती है। अतः स्त्रीत्व के नाम पर समाज उसके स्त्री होने के आचरण को अच्छा या बुरा कहने का अधिकार नहीं रखता।

भारत में नारीवादपर साहित्यिक लेखन पश्चिम की भाॅति व्यापक नहीं है फिर भी आज संचार के साधनों के ज्ञान के विकसित माध्यमों के कारण नारी वर्ग अपनी चेतना में है। भले ही उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव उसे वास्तविक गन्तव्य तक पहुँचने में बांधा है।

आज उत्तर आधुनिकता के युग में जब पूॅजीवादी संस्कृति बाजारवाद के रूप में फैली हुई है, चूंकि बाजारवाद का दृष्टिकोण उपभोक्तावादी है। ऐसी स्थिति में स्त्री पर हमेशा खतरा मँडराता रहता है। वैश्वीकरण के कारण सांस्कृतिक संक्रमण होता है। संस्कृति में परिवर्तन के रूप में पुरुष  प्रधान संस्कृति की प्रबलता के कारण नारी का भोग्या हो जाना पूँजीवादी संस्कृति का गौरव है। वैश्वीकरण जिसमें स्वर्ग जैसी कल्पना है, उसमें नारी भोग तो सभ्यता के गौरव का स्तर निरूपित करेगा। कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता से कहते हैं - तुम स्वर्ग मांगों वहाँ रमासुन्दर स्त्रियाँ हैं।8 एलेन सोवाल्टर ने सांस्कृतिक प्रभाव में यह दिखाया है कि पुरुष  प्रधान संस्कृति हमेशा नारी पर हावी रही है।

इन सैद्धान्तिक बातों के अलावा आज दुनिया में नारी हर क्षेत्र में कार्यशील हैं, उसे अधिकार और भागीदारी अब भी अपेक्षा से कम मिली है। नारी की संस्कृति पुरुष  से अलग हो सकती है। मानव जाति या जड़ वस्तुएँ सभी प्रकृति से संचालित हैं, पुरुष  प्रधान सभ्यता कभी शत-प्रतिशत नारी को महत्व नहीं दे सकी है। उसका कारण भोग की मूल प्रवृत्ति है, जो सब पर लागू होती है। मानव जाति ज्ञान का फल चख चुकी है क्या वह उस स्वाद को भूल जायेगी, तो भी मध्यम परिपथ मानव जाति का कल्याण करने में समर्थ है, दुनिया उसी ओर बढ़ रही है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1.     डॉ॰ कपिलदेव द्विवेदी: संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, पृ॰ 41। रामनारायण लाल विजय कुमार, इलाहाबाद-211002, सं॰ 1997ई॰

2.     एन. कृस्नास्वामी: कांटेम्पोरेरी लिटरेरी थिअरी, ए स्टूडेंट कम्पेनियम, पृ॰ 73, मैकमिलन इंडिया लिमिटेड डेल्ही, सं॰ 2004

3.     तुलसीदास: रामचरितमानस, बालकाण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, सोलहवाँ संस्करण, सं॰ 2064वि॰

4.     डॉ॰ एस॰ सेन गुप्ता (संपादक) जार्ज बर्नाड शाॅ: सेण्टजॉन, पृ॰3, सुरजीत पब्लिकेशन्स, सं॰ 1992ई॰, दिल्ली-110007

5.     डॉ॰ अमरनाथ: हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, पृ॰ 386, राजकमल प्रकाशन दिल्ली, सं॰ 2016ई॰

6. डॉ॰ नगेन्द्र सं॰, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ॰ 432, सं0 2012ई॰

7. डॉ॰ नगेन्द्र: हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ॰ 435, मयूर पेपर वैक्स, नोएडा, सं॰ 2012ई॰

8.     ईशादि नौ उपनिषद्: कठोपनिषद्, अध्याय एक वल्ली एक मं॰ 25, गीता प्रेस गोरखपुर, सं॰ 2033वि॰।


संपर्क-सूत्र :

डॉ. किरण हजारिका

सदस्य,विश्वविद्यालय अनुदान आयोग

नई दिल्ली



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