अंगामी लोक साहित्य का परिचय : विकिहो वित्सु
साहित्य को मूलतः दो धाराओं में विभाजित किया गया है । पहली धारा मौखिक साहित्य एवं दूसरी धारा लिखित साहित्य। मौखिक साहित्य धारा को लोक साहित्य धारा के अंतर्गत माना जाता है और लिखित साहित्य धारा को शिष्ट साहित्य या नगर साहित्य माना जाता है । मौखिक साहित्य धारा मौखिक परम्परा के रूप में सभ्यता एवं संस्कृति के प्रारम्भ से ही चली आ रही है, और आधुनिक समय में इसे लिपि-बद्ध किया जा रहा है । दूसरी ओर लिखित साहित्य जिसे परिनिष्ठित साहित्य भी कहा जाता है इसे शिक्षित वर्ग द्वारा व्याकरण सम्मत भाषा में व्यवस्थित रूप प्रदान किया जाता है।
‘लोक’ शब्द संस्कृत के लोकृ दर्शने धातु में “धञ्” प्रत्यय लगने पर निष्पन्न हुआ है । इस धातु का अर्थ देखना होता है, जिसका लट् लकार में अन्य पुरुष एक वचन का रूप ‘लोकते’ है । अतः ‘लोक’ शब्द का अर्थ हुआ ‘देखने वाला’। इस प्रकार वह समस्त जन समुदाय जो इस कार्य को करता है ‘लोक’ कहलायेगा ।”1 लोक शब्द का प्रयोग पहले ग्रामों में रहने वाले लोगों के लिए किया जाता था जो शहर की चंकाचौंध से दूर सामान्य जीवन व्यतीत करते थे ।
लोक
साहित्य मुख्य रूप से जन सामान्य के हर्ष-विषाद, राग-विराग, इच्छा-आकांक्षा,
श्रम-संघर्ष मूल्य और
मान्यताओं की मौखिक रचना है । लोक साहित्य का प्राण तत्त्व जन जीवन में होने वाली
घटनाओं को समेटकर चलता है, जिसमें मनुष्य के अनुभव, आकांक्षा इत्यादि की अभिव्यक्ति होती है। इनके कारण ही लोक साहित्य
आज भी हमारे लिए प्रभावकारी व शक्ति स्रोत के रूप में विद्यमान है ।
आज के
आधुनिकतावाद के समय में समाज में बढ़ते बाजारवाद एवं उपभोक्तावाद के कारण लोग
धीरे-धीरे समाज परिवार, रिश्ते-नाते, अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज को भूलते जा रहे हैं । यहाँ तक कि अपने अस्तित्व की पहचान
को भी भूलते नज़र आ रहे है । लोक साहित्य में स्त्री-पुरुष का स्वस्थ तथा समानता पर
आधारित उन्मुक्त और कुंठाहीन सम्बन्ध मिलता है । आज उपभोक्तावाद के ज्वार में जो
पैसे के दम पर सब कुछ खरीदने की बात सोचते हैं, उनके प्रति लोक साहित्य की
यह प्रवृत्ति प्रतिरोध का भाव जगाती है । यह पूंजी के हिंसाचार और अराजक भोगवाद के
विरुद्ध संयम, सम्मान, आत्माभिमान और परस्पर प्रेम
तथा विश्वास की भावना जाग्रत करता है ।आज के मूल्यहीनता के दौर में लोक साहित्य का
यह सन्देश उसकी प्रासंगिकता को दुर्लभ ढंग से सिद्ध करती है । आधुनिकता या
उत्तराधुनिकता से नागालैंड भी अप्रभावित नहीं हैं। इसके साथ ही मिशनरियों के प्रभाव
के चलते यहाँ की नई पीढ़ी भी लोक जीवन से दूर होते दिखाई देते हैं।पर अंगामी
जनजाति ऐसी है जो काफी हद तक लोक जीवन से जुड़ा हुआ है। अंगामी नागालैंड की एक
प्रमुख जनजाति है। अंगामी लोक साहित्य की चर्चा से परहले यहाँ नागालेंड का
संक्षिप्त परिचय समीचीन है।
नागालैंड
भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित एक पर्वतीय प्रदेश है । जिसकी राजधानी कोहिमा है ।
इसके उत्तर में असम और अरुणाचल,
दक्षिण मे मणिपुर, पूरब में म्यांमार और अरुणाचल, पश्चिम में असम राज्य स्थित
है । यह प्राकृतिक सौन्दर्य से युक्त एक जन-जातीय राज्य है । नागालैंड में कुल
ग्यारह जिले हैं- कोहिमा, मोकोकचुंग, तुएंसंग, मोन, ओखा, जुन्हेबोतो, फेक, डिमापुर, पेरेन, लोंग्लेंग, किफिरे । नागालैंड में प्रमुख रूप से अंगामी, सेमा, लोथा, आव,चाखेसंग, चंग, रेंगमा, फोम, खिमिउन्गम, संगतम, कोंयक, पोचुरी,यिम्चुन्गर, जेलियंग, रोंग्मय इत्यादि प्रमुख जन-जातियां और कुछ
उप-जन-जातियां गारो, कछारी, कुकी, मिकिर आदि निवास करती हैं ।
नागालैंड
में अन्य जन-जातियों की तरह अंगामी का भी लिखित साहित्य बहुत कम मात्रा में उपलब्ध
है । उसका मौखिक रूप ही ज्यादा उपलब्ध है, जो परम्परागत रूप से चला आ
रहा है । जिससे अंगामी जीवन और समाज प्रभावित है। अंगामी समाज लोक जीवन से बंधा
हुआ है जो प्राचीन काल से आज तक प्रचलित है । अंगामी लोक-साहित्य के अंतर्गत
लोक-गाथा, लोक-गीत, लोक-कथा, लोक-सुभाषित आदि आते हैं ।
अंगामी लोक-साहित्य का परिचय:- अंगामी लोक-साहित्य की अपनी
विशाल परम्परा दिखाई देती है । परंतु इसका अपना लिखित रूप नहीं पाया जाता, बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी इसकी मौखिक परम्परा ही चली आ रही है
। प्राचीन काल से इस समाज में लोक-कथा, लोकगीत, और लोकगाथा का सुनना- सुनाना होता रहा है, लेकिन आधुनिक समय में यह परम्परा धीरे-धीरे लुप्त होती नजर आ रही है, और फिर यह किताबों तक सीमित रह जा रही है । ऐसे समय में युवा पीढ़ी के
द्वारा अपनी सभ्यता, समाज एवं संस्कृति को संरक्षित रखना आवश्यक है ।
अंगामी लोक साहित्य में भी यही संकट देखने को मिलता है, आज के समय में लोग नौकरी और अच्छी शिक्षा के लिए गाँव छोड़कर धीरे-धीरे शहरों की ओर जा रहे हैं जिसके कारण आज की युवा पीढ़ी अपने ही समाज से धीरे-धीरे कटती जा रही है और आधुनिकता के इस बवंडर में फंसकर रह गयी है । गाँव के जो बड़े बुजुर्ग हमारी संस्कृति, रीति-रिवाज परम्परा आदि को अच्छी तरह से जानते समझते थे, धीरे-धीरे उनकी संख्या भी कम होती जा रही है ।
अंगामी लोक साहित्य में अंगामी समाज की सम्पूर्ण जीवन शैली देखने को मिलती है, उनके रहन-सहन रीति-रिवाज, संस्कृति व समाज इत्यादि उनके लोक गीतों, लोक कथाओं के माध्यम से प्राप्त होता है । लोक साहित्य उतना ही प्राचीन हैं जितनी बोलियाँ, जब मनुष्य ने बोलना सीख लिया तो हर्ष-विषाद आदि भावों को प्रकट करने के लिए उसने गुफावास से बाहर आकर नाच-गान को माध्यम बनाया होगा । अंगामी समाज में भी उसके लोक-साहित्य से उनका युगीन इतिहास, भूगोल, भाषा, साहित्य और संस्कृति के सूत्रों की जानकारी लेने में सहायता मिलती है।अंगामी समाज के लोक-साहित्य में प्राकृतिक, लोक-विश्वास, अनुष्ठान व धार्मिकता से सम्बंधित विवरण अत्यधिक उपलब्ध है ।
अंगामी लोक-साहित्य यहाँ की संस्कृति का पहरेदार है । लोक साहित्य किसी भी समाज के अस्तित्व की पहचान होता है पर उसके रचयिता अनाम ही रह जाते है, पर लोक साहित्य मौखिक परम्परा की सातत्यता नहीं तोड़ता । लोक-साहित्य लिपिबद्ध हो जाने, इंटरनेट से जुड़ जाने या आधुनिक तकनीकी उपकरणों में स्थापित होकर कालजयी रहेगा । अंगामी लोक-साहित्य को भी संरक्षित करने का प्रयास जारी है।
अंगामी
लोक-साहित्य को इस प्रकार देखा जा सकता है-
लोक-गीत
लोक-कथा
लोक-गाथा
लोक-
नृत्य...इत्यादि ।
लोक-गीत जन मानस की सामूहिक चेतना का प्रतिबिम्ब होता है । लोक-गीतों के द्वारा किसी भी समाज के विशेष क्रियाकलापों लोक व्यवहारों, त्योहारों और संस्कारों का पता चलता है । अंगामी समाज में भी उनके लोक-गीतों के माध्यम से अंगामी समाज के त्योहारों, उत्सव, आयोजनों, मानवीय जीवन के संस्कारों में उनके अचार-विचार इत्यादि की अभिव्यक्ति हुई है।
अंगामी
समाज में किसी ‘गिना’ या पर्व के समय गान
अनिवार्य होता है । इसमें अनेक प्रकार के विषयों को लेकर गीत गाया जाता है । यह
किसी परम्परा, शूरवीरता की प्रशंसा या खेती के समय बारिश आने पर
या प्रेमिका के सम्बन्ध में प्रायः लोक-गीत पाए जाते है। अंगामी समाज में लोक को
जीवन के एक अभिन्न हिस्से के रूप में देखा जाता है । अंगामी समाज में कई बिन्दुओं
के आधार पर लोक-गीत गाये जाते है । उदाहरार्थ- जंगल में लकड़ी लेने जाते समय उसके
लिए अलग से गाना, योद्धा जब अपने दुश्मनों पर विजय प्राप्त कर उनका
सिर लेकर लौटता था, तब उसके स्वागत के लिए, अपने प्यार का इजहार करने के लिए, बच्चे को सुलाने के लिए
लोरी, आशीर्वाद के लिए, लड़ाई के लिए इत्यादि अवसरों
पर लोक-गीत गाए जाते थे। अंगामी रीति- रीवाजों, संस्कारों. भावों-विचारों
को उनके लोक गीतों के माध्यम से आज भी संरक्षित रखा हुआ है । यदि ऐसा न होता तो यह
समाज अपने रीति-रिवाज व संस्कृति को भूल जाता परन्तु लोक में आज भी गीतों के
माध्यम से समाज में जीवित और संरक्षित रखा हुआ है । इस सम्बन्ध में एक उदाहरण देखा
जा सकता है, जिसमें नायक नायिका के सौंदर्य का वर्णन करता है
और कहता है कि
(“Hi|Hi|Hi|I,
RiikhriiNyiedzoVarhieAneiii, Hi|Hi|Hi|।”)
ही/ ही/
ही/ आई, रीख्रीन्यीदजो वारही अनी ई, ही/ ही/ ही/ आई ।
अर्थात ...तुम्हारा पसीना जब तुम्हारे गालों पर गिरता है तब तुम और भी अधिक अच्छी लगती हो......।
अंगामी लोक-कथा का परिचय:- लोक-कथा को किसी भी समाज की संस्कृति के उदगम संबंधी विषय को जानने
और समझने का एक महत्वपूर्ण माध्यम कहा जा सकता है । इसके आश्रय से वहाँ की
सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक
परिस्थितियों से परिचित हुआ जा सकता है । लोक-कथाएँ वे कथाएँ है जो सदियों से लोक
में चली आ रही है अर्थात् एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी और दूसरी से तीसरी पीढ़ी के सतत्
क्रम में प्रवाहित होती चली आ रही है । यह प्रवाह उस समय से माना जाता है जिस समय
से मनुष्य ने अनुभवों, कल्पनाओं एवं विचारों का परस्पर आदान-प्रदान आरम्भ
किया ।
लोक समुदायों में लोक-कथाओं का जो स्वरूप आज भी
विद्यमान है, वह लोक-कथाओं के उस रूप में अत्यधिक निकट है जो
विचारों के आदान-प्रदान की प्रक्रिया आरम्भ होने के समय रहा होगा । लोक-कथाओं में
मनुष्य के जन्म, सृष्टि के निर्माण, देवी-ईश्वरताओं की उत्त्पति, भूत-प्रेत, परी, राक्षस आदि से लेकर लोक
व्यवहार से जुड़ी कथाएँ विद्यमान होती है ।
लोक-कथाएँ लोक-साहित्य का अभिन्न अंग है ।
लोक-साहित्य में लोक-कथाओं का महत्वपूर्ण स्थान है । लोक-कथाओं की उत्त्पति उस समय
से मानी जा सकती है, जब मनुष्य ने अपनी कल्पनाओं एवं अनुभवों को
कथात्मक रूप में कहना शुरू किया होगा । आदि समय में मानव अपने मन बहलाव के लिए
कथाओं, गीतों व नृत्यों के माध्यम से अपने हर्ष-विषाद, सुख-दुःख आदि अनुभवों को बाँटने के लिए एक मनोरंजन के साधन के रूप
में लोक-कथाओं और लोक-गाथाओं का उपयोग करता रहा होगा ।
अंगामी लोक-कथाओं का संकलन सन् 1970 ई. के आस-पास माना जा सकता है । आर. सेखोसे द्वारा सन् 1970 ई. में ‘अंगामी नागा फोकलोर’ के नाम से पुस्तक लिखी ।
जिसमें अंगामी नागा के लोक-साहित्य पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया था। नागा
समाज के लोगों की लोक-कथाओं को भिन्न-भिन्न प्रकार से देखा जा सकता है । कुछ ऐसी
कथाएँ भी हैं जिनमें अनेक ऐतिहासिक घटनाएँ रहती है । कुछ किवदंतियां या पौराणिक
कथाएँ भी हैं और कुछ पंचतंत्र की जैसी कहानियाँ हैं जिनमें मानव चरित्र और
पशु-चरित्र मिले जुले है । अंगामी समाज में लोक-विश्वास से संबंधिक कथाएँ पर्याप्त
मात्रा में उपलब्ध है- जैसे मुर्गे की आवाज पर सूरज निकलना, यह कथा मुर्गा,
सूरज और चन्द्रमा पर आधारित
कथा है, जिसमें सूरज को पुरुष और चन्द्रमा को स्त्री कहा
गया है और मुर्गा की आवाज पर ही सूरज का निकलना (भोर होना) इसके पीछे भी बहुत
रोमांचक कथा अंगामी समाज में पायी जाती है । दूसरी ओर सृष्टि के आरम्भ पर भी एक
लोक-विश्वास की कथा गढ़ी गई है,
जिसमे बाघ, ईश्वर और मनुष्य से सम्बंधित है । कथा में बाघ, ईश्वर और मनुष्य भाई-भाई थे। बारी-बारी से वे तीनों अपनी माँ की
देखभाल करते थे । जब मनुष्य और ईश्वर माँ की देखभाल करते तो माँ का स्वास्थ्य ठीक
रहता परन्तु जब बाघ की बारी आती है तो माँ का स्वास्थ्य बिगड़ने लगता । इसका मुख्य
कारण यह था कि जब बाघ माँ के साथ होता वह उसे चाटता रहता। मनुष्य और ईश्वर ने एक
चाल चली जिसके अनुसार बाघ को उन्होंने पानी लेने भेज दिया है और उसी समय माँ का भी
स्वर्गवास हो जाता है । कहीं बाघ को पता ना चल पाए इसलिए जल्दी-जल्दी में माँ को
चूल्हे के नीचे मिट्टी खोदकर उसे दफना देते हैं । इसी कारण आज भी अंगामी समाज या
नागा समाज में पुरानी कब्र के ऊपर कोई मकान बनाना वर्जित नहीं माना जाता ।
एक दूसरी कथा में माँ और बेटे के प्रेम को दर्शाया
गया है जिसमें दोनों पत्थर में परिवर्तित हो जाता है । आज भी ‘रुसुमा’ गाँव में यह पत्थर देखा जा सकता है, यह कथा ‘सफुन्यो’ के नाम से अंगामी समाज में
प्रसिद्ध है । यह कथा सफुन्यो और उसके बेटे की दर्द भरी दास्ताँ को बयान करती है ।
अपने पति से अलग होने के बाद वह वापस अपने गाँव की ओर चल पड़ती है । एक तरफ अँधेरा
तो दूसरी तरफ ढलान था, अपने बच्चे को अपने पीठ पर लिए वह गाँव की ओर चल
देती है । बीच रास्ते में ही माँ और बच्चे की मौत हो जाती है
। कहा जाता है कि दोनों मरने के बाद पत्थर में परिवर्तित हो गये थे ।
एक दूसरे लोक-विश्वास कथा में यह दिखाया गया है कि
आदमी और कुत्ते के बीच अच्छी दोस्ती कैसे हुई ? कहा जाता है कि दो पिल्लों
की माँ को एक हिरण ने मार डाला इसलिए वे उससे बदला लेना चाहते थे । मदद मांगने के
लिए हाथी और बाघ के पास गये,
लेकिन दोनों से उन्हें कोई
मदद नहीं मिली, निराश होकर अन्त में मनुष्य के पास गये और आदमी ने
उसका पूरा ख्याल रखा । जब पिल्ले बड़े हुए तब आदमी के साथ मिलकर हिरण का शिकार किया
। तब से यह रिवाज हो गया है कि शिकार की दाहिनी टांग उसका पीछा करने वाले कुत्ते
के लिए अलग से रख दी जाती है ।
लोक-कथाओं का उद्देश्य केवल मनोरंजन ही न होकर
हमें शिक्षा देना भी है । लोक-कथाओं के माध्यम से हमें अपने सामाजिक, सांस्कृतिक परिदृश्य को जानने और समझने का अवसर प्राप्त होता है।
लोक-कथाओं में धर्म से सम्बंधित,
संस्कृति व जीवन शैली
इत्यादि का स्वरुप देखा जा सकता है । कथाओं के द्वारा नयी पीढ़ी को अपने धर्म, संस्कृति, रीति-रिवाजों को समझने में सहायक सिद्ध होती है ।
अंगामी लोक-कथाओं में भी इसी प्रकार की कथाएँ उनके
साहित्य में पाई जाती हैं । जो विभिन्न विषयों को अपनी कथा का आधार बनाकर अंगामी
समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं । कथा के माध्यम से अंगामी समाज के सांस्कृतिक, सामाजिक, भौगोलिक व उनके रीति-रीवाज, रहन-सहन को जानने समझने और परखने का अवसर प्राप्त होता है । इन्हें
उनके समाज के दर्पण के रूप में देखा जा सकता है । अंगामी समाज में प्रायः ऐतिहासिक
कथाएँ, कंजूसों और लालचियों की कथाएँ, काल्पनिक कथाएँ,
चतुराई की कथाएँ, जादू की कथाएँ,
त्योहारों और व्रतों की
कथाएँ, धार्मिक कथाएँ, नीति सम्बंधित कथाएँ, परियों की कथाएँ,
पशुओं की कथाएँ, पक्षियों की कथाएँ,
बहादुरों की कथाएँ, बाल-लोक कथाएँ,
भूतों की कथाएँ, मित्रों की कथाएँ,
शिक्षाप्रद कथाएँ, सांस्कृतिक कथाएँ,
अलौकिक कथाएँ, डरावनी कथाएँ, सृष्टि की उत्त्पति और पूर्वजों की कथाएँ इत्यादि
आज भी अंगामी समाज का अभिन्न अंग बना हुआ है।
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