एक मुलाकात : मणिपुरी साहित्यकार खुमनथेम प्रकाश सिंह के साथ
डॉ॰ लोङ्जम रोमी देवी : प्रणाम सर। हम आज आपसे आपके जीवन, साहित्य और समाज के बारे जानने के लिए आए
हैं।
खुमनथेम प्रकाश सिंह : आओ,आओ। क्या जानना चाहते हो पूछो। जितना हो सके मैं भी बताने का प्रयास करूँगा।
डॉ वाइखोम चींखैङानबा: आप पहले अपने भाई-बहन,माता-पिता और अपने परिवार के बारे में थोड़ा बताइए।
खुमनथेम प्रकाश सिंह : सन् 1931 के 27 मार्च को मेरा जन्म हुआ। मेरी माँ साधारण गृहिणी थी । उनका जीवन घर के कार्यों में ही बीता और पिताजी वारी लीबा ( मणिपुरी संस्कृति में कथा वाचन की परंपरा ) के प्रणेता थे। उनका देहांत बहुत पहले हो चुका है। मेरे दो भाई थे और दो बहनें थीं। उनमें से अब कोई भी नहीं है। अब अपने परिवार से मैं अकेले रह गया हूँ। हाँ, मेरी आठ संतानें हैं-पाँच लड़के और तीन लड़कियाँ।
डॉ॰ रोमी देवी : अपने स्कूली जीवन के अनुभव के बारे में कुछ बताइए ।
खुमनथेम प्रकाश सिंह : द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व मैंने तेरा नामक स्थान पर
स्थित प्राथमिक विद्यालय में दूसरी कक्षा तक पढ़ाई की । उस दौरान सारा संसार द्वितीय
विश्वयुद्ध में व्यस्त था। विद्यालयों में हमला वर्जित होने के कारण विद्यालय खुले
थे । इस कारण उस समय भी हम नियमित रूप से स्कूल जाते रहे और मैंने थाङमैबंद स्थित
उच्च प्राथमिक विद्यालय से तीसरी और चौथी कक्षा की पढ़ाई की। छठी कक्षा की पढ़ाई
जॉनस्टोन हाईस्कूल, इम्फाल से की।
इसी बीच मैं पढ़ाई-लिखाई छोड़कर वेस्टर्न थिएटर की स्थापना के कार्य में लग गया और अनेक नाटकों में भी भाग लेता रहा। डेढ़ साल के बाद मुझे फिर से पढ़ाई करने की इच्छा हुई। इसलिए गुरु कालाचाँद शास्त्री से प्रमाण पत्र लिखवाकर बंगाली हाईस्कूल,इम्फाल में आठवीं से दसवीं तक पढ़ाई की ।
डॉ वाइखोम चींखैङानबा: आपने बताया कि आपने बचपन में अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी और डेढ़ साल बाद फिर से
पढ़ना शुरू किया । इसकी मुख्य वजह क्या थी ?
खुमनथेम प्रकाश सिंह : मैं बचपन में बहुत मनमानी करता था। जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था, तब पिताजी का देहांत हो गया। अनाथ होने के कारण मैं आवारा बन गया था। फिर जबसे मैंने अपनी पढ़ाई शुरू की, तब से मैं हमेशा कक्षा में सर्वोच्च अंकों के साथ पहला स्थान प्राप्त करने में सक्षम रहा। उस दौरान हमारे विद्यालय में कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त कर उत्तीर्ण विद्यार्थी को मुफ्त शिक्षा देने का नियम था। इस नियम ने मुझे मुफ्त में शिक्षा ग्रहण करने का सुअवसर प्रदान किया ।
डॉ॰ लोङ्जम रोमी देवी : आपने उच्च शिक्षा कहाँ से ग्रहण की ?
खुमनथेम प्रकाश सिंह : मैंने इम्फाल स्थित डी. एम. कॉलेज (धनमंजरी कॉलेज) में कक्षा 11 तथा 12 में विज्ञान विषय की पढ़ाई करने के लिए दाखिला तो ले लिया था, पर विज्ञान की पुस्तकें बहुत महंगी होने के कारण मैं खरीद न सका। इससे मुझे विज्ञान को छोड़कर वाणिज्य का विषय चुनना पड़ा। उस वक्त डी. एम. कॉलेज में बी. कॉम. नहीं था । इस कारण आगे की पढ़ाई पूरा करने के लिए मुझे गुवाहाटी जाना पड़ा। आर्थिक स्थिति मजबूत न होने के कारण जमीन बेचकर मैंने गौहाटी विश्वविद्यालय में बी. कॉम के लिए दाखिला लिया। उस समय गौहाटी विश्वविद्यालय जालुकबारी में नहीं था। साथ ही पूरे असम में भी कोई कॉमर्स कॉलेज नहीं था । विश्वविद्यालय के अधीन कॉटन कॉलेज की कक्षा किराए पर लेकर बी. कॉम की कक्षाएँ चलायी जाती थीं । सन् 1956 में गौहाटी विश्वविद्यालय जालुकबारी में बन गया । इस तरह मैंने सन् 1955-1956 में बी. कॉम की परीक्षा उत्तीर्ण की । बी. कॉम तीन साल का होता था । तीसरे वर्ष 1955 को मैं छात्र संघ का खेल सचिव बना। चुनाव के पहले मैंने हिन्दी फिल्मों के गाने गाकर सबसे वोट माँगे थे । मणिपुर से केवल तीन ही विद्यार्थी थे। पर मैं चुनाव जीत गया था। चुनाव जीतकर खेल सचिव बनने के बाद पल्टन बाजार के पीछे स्थित नए मैदान में खेल-कूद प्रतियोगिताओं का भी आयोजन किया था ।
डॉ वाइखोम चींखैङानबा : आपने साहित्य के क्षेत्र में कदम कब रखा ?
खुमनथेम प्रकाश सिंह : बी. ए के बाद मैंने एम. ए. इकोनोमिक्स में दाखिला लिया । उस समय ए.आई.आर., गौहाटी के मणिपुरी प्रोग्राम में मणिपुरी समाचार पढ़ने के लिए कोई नहीं था, इसलिए मुझे सामयिक (casual) न्यूज रीडर के रूप में रखा गया । सन् 1959 में पूर्ण रूप से स्टाफ असिसटेंट के रूप में कार्य करने लगा । इसलिए मैंने एम. ए. इकोनोमिक्स की पढ़ाई छोड़ दी । इस तरह रेडियो के मणिपुरी कार्यक्रम में रहने के कारण साहित्य के क्षेत्र में कार्य करने लगा । सन् 1963 के अगस्त महीने में इम्फाल स्टेशन (ए.आई.आर.) का उद्घाटन हुआ । मेरा दबादला भी यहाँ हो गया।स्पोकन वोर्ड्स (Spoken Words) के कार्यक्रम को मैं संभालता था । इस में कविता, कहानी आदि का वाचन होता था । उस समय की मणिपुरी कहानियाँ बहुत लंबी हुआ करती थीं। राजकुमार शीतलजीत जैसे लेखक भी लंबी कहानियाँ लिखते थे । अतः दस मिनट में रेडयो के कार्यक्रम में पढ़े जाने के लिए लेखकों को छोटी कहानियाँ लिखने के लिए कहना पड़ा । रेडियो ने ही मणिपुरी कहानियाँ लिखने की परंपरा शुरू करवायी । मैं भी उस समय गाना, कहानी आदि लिखता था। सन् 1965 में मेरा कहानी-संग्रह ‘इचेगी सम’ (दीदी के केश) प्रकाशित हुआ।
डॉ॰ लोङ्जम रोमी देवी : आज मणिपुर में आपको एक प्रतिष्ठित साहित्यकार के रूप में जाना जाता है । इसका
श्रेय किस किसको देना चाहेंगे ?
खुमनथेम प्रकाश सिंह : वैसे तो डी. एम. कॉलेज में पढ़ते हुए मैंने कहानियाँ लिखना शुरू कर दी थी । लघु कथा प्रतियोगिताओं में मुझे ‘चा गिलास अमा’(एक गिलास चाय) शीर्षक कहानी के लिए प्रथम पुरस्कार मिला था। लेकिन पूर्ण रूप से साहित्य से जुड़ने तथा प्रतिष्ठित लेखक की ख्याति प्राप्त करने का श्रेय रोडियो को जाता है ।
डॉ वाइखोम चींखैङानबा : आपकी साहित्यिक प्रतिष्ठा का आधार आपका कहानी-संग्रह ‘मंगी इसेई’(स्वप्न
का गीत) के लिए आपको सन् 1986 में साहित्य अकादमी
पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह आपके साथ-साथ पूरे मणिपुरी समाज के लिए गर्व की
बात है। उस अनुभव के बारे में बताइए।
खुमनथेम प्रकाश सिंह : हाँ,‘मंगी इसेई’ के लिए मुझे सन् 1986 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया गया। लेखक अपनी शैली में अपना काम करते जाते हैं। सच्चे साहित्यकार पुरस्कार या सम्मान को लक्ष्य मानकर साहित्य नहीं लिखते। पर, जब उन्हें प्रतिष्ठित संस्था से स्वीकृति मिलती है, अच्छा लगता है। मुझे भी बड़ा अच्छा लगा था। पर साहित्यकार की संपत्ति पाठकों द्वारा कृति का आदर पाना है, पुरस्कार नहीं।
डॉ॰ लोङ्जम रोमी देवी : साहित्यकार कभी रुकते नहीं, थकते नहीं। वे चिर तरुण होते हैं । निश्चित रूप से आप भी अब कुछ न कुछ कर
रहे हैं। क्या हम जान सकते हैं कि वर्तमान आप क्या कर रहे हैं?
खुमनथेम प्रकाश सिंह : हाँ, साहित्य-सृजन एक नशा है। स्वास्थ्य ने अगर साथ दिया, तो वह आजीवन चलता रहता है। वर्तमान में अपनी आत्मकथा लिख रहा हूँ।
डॉ वाइखोम चींखैङानबा: मणिपुरी साहित्य के अलावा आप विश्व की किन-किन भाषाओं के साहित्य में रुचि
रखते हैं ?
खुमनथेम प्रकाश सिंह : इस मामले में मैं कमजोर हूँ।मैं बहुत कम पढ़ता हूँ । मेरी रचनाएँ अपने जीवन के अनुभवों पर खड़ी होती हैं।
डॉ॰ लोङ्जम रोमी देवी :हमें पढ़ने को मिला था कि आपको अपनी साहित्यिक यात्रा में कई कठिनाईयों का
सामना करना पड़ा है।
खुमनथेम प्रकाश सिंह : साहित्यकार को कई कठिनाइयों से निबटना पड़ता है । इन कठिनाइयों में से आर्थिक सबसे पहले आता है। कई गिने-चुने साहित्यकार होंगे, जिनको अर्थ की कमी नहीं खलती है। साहित्यकार को पाठकों की आवश्यकता पड़ती है और मणिपुर के परिप्रेक्ष में देखा जाए तो यहाँ किताब पढ़ने वाले लोगों की संख्या बहुत कम है। यह एक बड़ी समस्या है। पाठक नहीं होंगे तो किताबें नहीं बिकेंगी। किताबें नहीं बिकेंगी ,तो साहित्यकार को प्रकाशक कहाँ से पारिश्रमिक देंगे। पाठकों के अभाव में तो कभी-कभी अच्छी-अच्छी किताबें छापने से वंचित रह जाती हैं। लेखक अपना समस्त उड़ेलकर साहित्य लिखते हैं और कालांतर में दीमक उन्हें चाट जाती है। ऐसी घटनाएँ लेखक को बड़ी पीड़ा पहुँचाती हैं। साहित्य सृजन मात्र से रोटी नहीं मिलती; उससे जीवन-यापन संभव नहीं होता। साहित्यकार के लिए आर्थिक स्थिति का मजबूत होना आवश्यक होता है। वे किसी भी स्थायी पद में रहकर साहित्य की अच्छी सेवा कर सकते हैं।
डॉ वाइखोम चींखैङानबा :अब तक आपने जीवन का एक लम्बा अनुभव प्राप्त किया है । आज
युवाओं में साहित्य के प्रति रुचि रखने वाले कम ही हैं, ऐसे में आपकी दृष्टि से
मणिपुरी साहित्य के प्रति रुचि रखने वाले
युवाओं का दायित्व क्या होना चाहिए?
खुमनथेम प्रकाश सिंह : कोई भी काम निरोद्देश्य नहीं होता । सब काम किसी-न-किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है । युवाओं को अपनी रचना द्वारा समाज में व्याप्त बुराईयों को दूर करना चाहिए । जिस प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन के समय आम लोगों में चेतना जगाने के लिए एक मूलमंत्र ‘वन्दे मातरम्’का प्रयोग किया गया और इससे पूरा देश प्रभावित हुआ ,ऐसे ही युवा साहित्यकारों को भी समाज कल्याण के लिए प्रयासरत होना चाहिए । रचनाकार किसी न किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए रचना करते हैं ।साहित्यकार के ऊपर बहुत सारी जिम्मेदारियाँ होती हैं ।यद्यपि वास्तविकता यह है कि साहित्य समाज का आईना होता है , तथापि साहित्य सृजन में रुचि लेनेवाले युवाओं में लोककल्याण के लक्ष्य से साहित्य के निर्माण की प्रवृत्ति अपेक्षित है। क्योंकि जिस साहित्य में अच्छाई नहीं होगी, जीवन का संदेश नहीं होगा, वह साहित्य क्षणस्थायी होता है। हालाँकि मेरी यह बात आपलोगों को आदर्शवादी सोच-सी लग सकती है।
डॉ॰ लोङ्जम रोमी देवी: आपके विचार के अनुसार साहित्यका क्या उद्देश्य होना चाहिए ?
खुमनथेम प्रकाश सिंह : जीवनका संधान, मानवीय मूल्यबोध की प्रतिष्ठा करना साहित्य का मूल उद्देश्य होना चाहिए। साहित्य में समाज में प्रचलित अंधविश्वास को दूर करना तथा लोगों के विचारों को साहित्य के माध्यम से नई दिशा प्रदान करना एवं विचारों को शुद्ध करने का प्रयास करना आवश्यक है । चित्रण मात्र से साहित्य का उद्देश्य पूरा नहीं होता । साहित्य के माध्यम से बहुत कुछ किया जा सकता है, समाज की दशा और दिशा बदली जा सकती है।
डॉ वाइखोम चींखैङानबा : ‘पुख्री मचा’(छोटी पोखरी),‘वानोम
शरेङ’ (सिफारिश की मछली),‘कनागी मंत्री’ (किसके मंत्री) आदि कहानियाँ कुछ
रुलाती हैं तो हँसाती भी हैं । इन कहानियों से आप क्या संदेश देना चाहते हैं?
खुमनथेम प्रकाश सिंह :’पुख्री मचा’ से अंधविश्वास दूर करने तथा बच्चों को झूठ न बोलने का संदेश दिया गया है। ‘वानोम शरेङ’ में इस यथार्थ का चित्रण किया गया है कि मनुष्य भ्रष्टाचार तब नहीं करते, जब उसे मौका ही न मिलता ;अगर मौका मिले, तो हाथ से जाने नहीं देते । यानी सिद्धांतों पर कायम रहने वाले कम लोग ही होते हैं। मनुष्यों में कहने और करने के बीच एक बड़ा अंतर होता है।
डॉ॰ लोङ्जम रोमी देवी : साहित्य सृजन में आप सामग्री कहाँ से लेते हैं ?
खुमनथेम प्रकाश सिंह : मैंने पहले भी संकेत किया है कि मेरे सृजन का आधार जीवनानुभाव है। समाज के विविध परिदृश्यों से भी मैं साहित्य सृजन के लिए सामग्री लेता हूँ ।
डॉ वाइखोम चींखैङानबा: कहते हैं युवा समाज के स्तंभ हैं, उनमें समाज को, राष्ट्र
को बदलने की अद्भुत शक्ति होती है । पर आज मणिपुर की युवा पीढ़ी अनेक समस्याओं से
ग्रस्त है। बेरोजगार एक तरफ है, तो दूसरी तरफ नशे की लत है । आप उन्हें क्या संदेश देना चाहते हैं ?
खुमनथेम प्रकाश सिंह : आज की युवा पीढ़ी को मैं यह संदेश देना चाहता हूँ कि जीवन बहुत अनमोल है और जो समय चला गया, वह लौटकर कभी नहीं आएगा। इसलिए वक्त की कीमत को पहचानना जरूरी है। मन और बुद्धि को संयमित करते हुए अच्छी पुस्तकें पढ़नी चाहिए,जिससे उनका ज्ञान बढ़े । आत्मकेन्द्रित होकर व्यक्ति केवल अपना फायदा देखता है, ऐसे लोगों के संपर्क से भी बचना चाहिए तथा उनसे हमेशा दूर रहना चाहिए। युवाओं को सच्चे और सुंदर आध्यात्मिक सोच को अपनाना चाहिए ।
डॉ॰ लोङ्जम रोमी देवी : आपकी दृष्टि में समाज सुधार में साहित्य की क्या भूमिका होती है ?
खुमनथेम प्रकाश सिंह : समाज सुधार के क्षेत्र में साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका ले सकता है, लेता आया है। पर मणिपुर में रहने वाले लोग तो नाम मात्र के लिए समाज सेवा करते हैं । इसलिए समाज सुधार को लेकर लिखी गयी कविता, कहानी, लेख पढ़ने के बाद मूल को लोग भूल जाते हैं । भारत के स्वतंत्रता संग्राम में तो वंदे मातरम् का नारा हर एक भारतीय के कण्ठ में मंत्र के रूप में स्थापित हो गया था । यही देश को स्वतन्त्रता दिलाने में सहायक सिद्ध हुआ। उसी तरह साहित्य को समाज की बुराईयाँ समाप्त करने के लिए सक्षम होना चाहिए ।
डॉ वाइखोम चींखैङानबा: क्या आपके बच्चे साहित्य के प्रति रुचि रखते हैं ?
खुमनथेम प्रकाश सिंह : मेरे तीन बेटे, पाँच बेटियाँ हैं, पर कोई भी साहित्य सृजन
के प्रति रुचि नहीं रखता ।
डॉ॰ लोङ्जम रोमी देवी : मणिपुरी भाषा के कई नए साहित्यकार उभरकर आ रहे हैं, आप उन्हें क्या संदेश देना
चाहते हैं ?
खुमनथेम प्रकाश सिंह : नवीन साहित्यकारों तथा नौजवानों को मैं यह कहना चाहता हूँ कि वे अच्छी किताबें पढ़ें। पढ़कर मूल को ग्रहण करें। स्वार्थ त्यागकर समाज कल्याण और देश कल्याण के लिए सोचें,लिखें । मेरा यह मानना है कि उनका मन आध्यात्म के प्रति भी बना रहें।
डॉ वाइखोम चींखैङानबा: आपने हमें अपना कीमती समय दिया। आपसे बहुत कुछ सीखने का
अवसर मिला। आपका बहुत बहुत आभार। खुरुमजरी।
डॉ॰ लोङ्जम रोमी देवी : आप स्वस्थ रहें। लम्बे समय तक मणिपुरी साहित्य संसार को आप
अपनी रचनाओं से समृद्ध करते रहे। हमें आपकी आत्मकथा का इंतजार रहेगा। खुरुमजरी ।
खुमनथेम प्रकाश सिंह : आप लोग मुझसे मिलने आये। मुझे भी बहुत अच्छा लगा। नमस्कार।
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