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ग्लोबल गाँव की प्रतिनिधि स्त्रियाँ : डॉ. एलाङबम विजय लक्ष्मी


आज हम चाहे अनचाहे ऐसे युग में जी रहे हैंजब सारा विश्व बाजार में तबदील हो चुका है। पूँजीवाद की परिणतिजिस रूप में हुईउसे वृद्धपूँजीवाद कहा गयाजिसमें भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई। भूमण्डलीकरण अंग्रेजी शब्द ग्लोबलाइजेशन का पर्याय है।वैसे तो 19वीं शताब्दी को भूमण्डलीकरण का काल कहा गयाहै। वर्तमान मेंइसे अनेक संभावनाओं के साथ ग्रहण किया जा रहा है।भूमण्डलीकरण का तात्पर्य कई अर्थों और प्रभावशाली एक परिघटना के रूप में समझा जाने लगा है। इसमें कई चीजों का समावेश रहता है। वित्तीय पूँजी का भूमण्डलीकरणआर्थिक उदारीकरण,रोजगारों की कमीविश्व बैंक,अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोशविश्व व्यापार संगठनतीसरी दुनिया पर हमला आदि।1 सैधान्तिक अवधारणा की दृष्टि से ग्लोबलाइजेशन शब्द का प्रयोग अमरीका निवासी चार्ल्स ताजे रसेल ने कियामाना जा सकता हैजिन्होंने 1897 में एक प्रसंग में कोर्पोरेट जाइंट शब्द का प्रयोग किया था। रसेल द्वारा प्रयुक्त यह शब्दावली जल्दी ही चर्चा के केन्द्र में आ गया औरकहा जा सकता है कि इसी ने भूमण्डलीकरण की अवधारणा को जन्म दिया।

इस अवधारणा को स्पष्ट करते हुए ग्लोबलाइजेशन शब्द का पहला प्रयोग थ्योडोर लेविट के द्वारा 1983 में प्रकाशित हारवर्ट बिसनेस रिव्यू में प्रथम बार किया गया और बीस साल से भी कम समय में यह शब्द बौद्धिक जगत में सर्वाधिक प्रयोग किया जाने लगा।चाहे भूमण्डलीकरण शब्दावली का प्रयोग बहुत पुराना न हो, पर इसने मानव जीवन के हर पक्ष को प्रभावित किया है। इसे उत्तराधुनिकता से प्रेरित एक परिघटना भी कहा जा सकता है। द कॉन्साइंस ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ करेंट इग्लिश में ग्वोबलाइजेशन शब्द का अर्थ लिखा है- ‘मेक ग्लोबल’,अर्थात वैश्विक होने की प्रक्रिया को ही भूमण्डलीकरण कहा जा सकता है। इस शब्द से संकीर्णता से ऊपर उठकर सम्पूर्ण विश्व के एक होने का अर्थ ध्वनित होता है। भूमण्लीकरण शब्द "ग्लोबलाइजेशन शब्द के आधार के रूप में अंग्रेजी से आया हैजो एक आर्थिक और सामाजिक प्रणाली से संबंधित एक अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क के उभरने को संदर्भित करता है।4 विज्ञान और तकनीकी विकास के परिणामस्वरूप सम्पूर्ण विश्व एक गाँव बन चुका हैऐसे में स्वाभाविक है एक देश के समाज-सांस्कृतिकव्यापार वाणिज्य का प्रभाव दूसरे देश की स्थितियों पर पड़े। “थॉमस लारसन के अनुसार वैश्वीकरण दुनिया के सिकुड़नेदूरियों को कम करने और चीजों की निकटता की प्रक्रिया है। यह दुनिया के एक हिस्से पर किसी भी व्यक्ति के बढ़ते हुए संबंधों की उपादेयता के लिए दुनिया की दूसरी तरफ पाए जाने वाले व्यक्ति के लिए अनुमति देता है।5 भूमण्डलीकरण शब्द को स्पष्ट करने के लिए जो भी विचार या मत प्रस्तुत किए गए हैंउनसे विश्व भर के देशों में आपसी संबंधों में विस्तार के साथ संस्कृतिअर्थ-व्यवस्थाव्यापार वाणिज्य में प्रगति के लिए एक-दूसरे के विकास में सहयोग देने की बात की जाती हैपरन्तु ये अपेक्षाएँ कहाँ तक पूरी होंगीयह एक बड़ा सवाल हैक्योंकि संसार को एक करने की इसकी दृष्टि पूरी तरह एक आयामी है। यह सिर्फ व्यापार के लिए दुनिया को एक करना चाहती हैबाकी सारी बातें आनुषंगिक है ।6 भूमण्डलीकरण से सम्पूर्ण विश्व के हित और सबके सुख का जो अर्थ ध्वनित होता हैउसके विपरीत यह मल्टी नेशनल कम्पनियों तथा पूँजीवादी प्रतिष्ठानों के हितों की रक्षा करते ज्यादा प्रतीत होता है।

वैश्विकरण के परिणाम के रूप में अविकसित तथा विकासशील देश विकसित देशों के लिए कच्चे माल का भण्डार और खुली मण्डी के रूप में उपलब्ध हो जाते हैं। जिस प्रकार के ग्लोबीय प्रभावविकसित देशों की खुली मण्डी में दाखिल होने से पड़ रहे हैंये और ज्यादा विस्तार पाएँगेइन्हें आम आदमी भी रोक नहीं पाएगा पर सावधान उसे रहना होगाक्योंकि हमारे नेता अपने सियासी लाभ के लिए उच्च वर्ग से साँठ-गाँठ करेंगे और वे देश को गिरवी ही नहींबेचने तक भी आ सकते हैं। अतः आम आदमी को यह बात समझ में आनी चाहिए कि उसकी सारी कमाई खुली मण्डी के विकसित देश ठग लेंगे।ऐसी संभावना है कि भारत की आम जनता को जीने के लिए बुनियादी आवश्यकताएँ भी पूरी न हो और वह मरता क्या न करता के अनुसार ऐसे ग्लोबीय प्रभावों का ऐसा विरोध करें कि इतिहास की दिशा ही बदल जाए और कोइ ऐसा अप्रत्याशित परिवर्तन आए कि देश अपने बलबूते अपनी प्रभुता स्थापित कर लें। यदि ऐसा कुछ नहीं होता तो जनता को गरीबी का नरक भोगना पड़ेगा। उसके सामने एक ही रास्ता होगा कि जनता विकसित देशों की तथा उच्च वर्ग की लूट खसोट से अपने खून-पसीने की कमाई को अपने लिए संभाल सकेचाहे उसके लिए उसे कितना ही संघर्ष क्यों न करना पड़े। इस संघर्ष के लिए उसके पास संकल्प और चेतना का होना आवश्यक है। इस प्रकार की जागृत चेतना के बिना संघर्ष बेमानी हो जाता है।7 बाजारवाद ने छोटे से लेकर बड़े राष्ट्रों तक की आर्थिक नीतियों को बदल डाला। विश्व की आर्थिक शक्तियों ने कमजोर देशों खासकर तीसरी दुनिया के देशों को अपने बाजारों के दरवाजे उनके उत्पादकों और व्यापारियों के लिए खोलने को मजबूर कर दिया। बहुराष्ट्रीय कंपनी और उद्योगों तथा व्यापार को सरकारी हाथों से निकालकर निजी हाथों में दिए जाने की घटना ने पूरे विश्व को एक नई आर्थिक प्रक्रिया का हिस्सा बना दियाजिसने समाज को भी प्रभावित किया और साहित्य को भी। यह कहना गलत नहीं होगा किपिछले एक दशक में वैश्वीकरण नामक घटना के बारे में बढ़ती चिंता देखी गई है। यह अकादमिक दुनिया में चिंता का स्रोत बन गया है।8प्रत्येक विचारशील व्यक्ति के लिए भूमण्डलीकरण चिन्तन का विषय है। जैसा कि ऊपर कहा गया हैसाहित्य को भी इसने प्रभावित किया है। अतः साहित्य के क्षेत्र में भी इस विषय को आधार बनाकरअनेक रचनाएँ रची गईंजिनमें मानव जीवन और समाज पर भूमण्लीकरण की प्रक्रिया तथा इसके संभावित परणामों की समीक्षा की गई है और इसका व्यक्ति जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण किया गया ।

रणेन्द्र द्वारा रचित ग्लोबल गाँव के देवता एक ऐसा ही उपन्यास हैजिसमें भूमण्डलीकरण और उसके प्रभाव से उत्पन्न स्थिति और विकास के अन्तर्विरोध तथा उससे प्रभावित लोगों के जीवन-यथार्थ को व्यक्त किया गया है।इस उपन्यास में एक कथावाचक हैजो अपना अनुभव बताते हुए सीधे पाठकों से वार्तालाप करता है। उपन्यासकार ने कीकट प्रदेश के बरवे जिले में रहने वाली जनजातियों को अपने उपन्यास का उपजीव्य बनाया है।इन जनजातियों को असुर नाम से जानाजाता है। जंगलों के साथ जनजातियों का एक अटूट संबंध होता है। इन असुरों का जीवनयापन भी जंगलों के सहारे ही होता है। ग्लोबल गाँव के देवतागणों की नजर ऐसी जगहों पर रहती है,जहाँ प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हों और इसलिए ग्लोबल गाँव के ये देवता इस इलाके में पहुँच चुके हैं।जीवन के आधार जंगलों को आर्थिक विकास के नाम पर काटा जाता है। देशी-विदेशी कंपनियाँ प्राकृतिक संपदाओं का बेहिसाब दोहन करती हैं।विकास के नाम पर उन्हीं के क्षेत्र को खोखला किया जाता है, फिर भी उनमें इतनी समझ नहीं कि कुछ करें। इस स्थिति का वर्णन उपन्यास में बहुत मार्मिक ढंग से किया गया है। जब कथा वाचक भौरापाट नामक क्षेत्र को देखकर कहता है, “मीलोंतक पसरे पहाड़ के ऊपर यह चौरस इलाकामन को और उचाट कर रहा था। छिटपुट जंगल बाकी खाली दूर-दूर तक फैले उजाड़-बंजर के खेत। बीच-बीच में वॉक्साइट की खाली खदानें। जहाँ से बॉक्साइट निकाले जा चुके थेवे गड्ढे भी मुँह बाये पड़े थे।मानो धरती माँ के चेहरे पर चेचक के बड़े-बड़े धब्बे हों। कोई ढंग से बोलने बतियाने वाला नहीं। शाम होते ही सन्नाटा उतर आता।9अपनी ही भूमि पर दूसरों के द्वारा अधिकार जमा लेने पर भी ये लोग कुछ नहीं कर पाते और खेतों-खलिहानों को बंजर होते ताकते रह जाते हैं। कुछ जनजातीय युवाओं द्वारा विद्रोह किए जाने पर या तो उन्हें सताया जाता है या फिर नक्सली करार देते हुए उनके विरोध को दबाने की कोशिश की जाती है। कुछ अवसरवादी चन्द पैसों के लालच में अपने ही लोगों के शोषक बन जाते हैं। ऐसे समाज में स्वाभाविक है सबसे अधिक मुसीबतों का सामना स्त्री को ही करना पड़ेगा। इस उपन्यास के तीन स्त्री पात्रों के माध्यम से स्त्री पर पड़ने वाले भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया के प्रभावों को दिखाया गया है।

उपन्यास का कथावाचक कोयलबीघा इलाके के सखुआपाट के एक स्कूल में मास्टर बनकर आता है। यहाँ आने के बाद वह असुर लोगों से मिलता है। तब उसे पता चलता है कि सदियों से किस तरह पूरा समुदाय अपने अस्तित्व और अस्मिता की लड़ाई लड़ रहा है। वैदिक युग में आर्यों के साथ इस वर्ग का संघर्ष चलता रहा। इस संघर्ष में उन्हें बार-बार पराजित होना पड़ा। इतना ही नहीं उन्हें मायावी और राक्षस का दर्जा दिया गया और लगातार जंगलों और पहाड़ों की ओर धकेल दिया जाता रहा। गणतान्त्रिक शासन व्यवस्था अर्थात जनता द्वारा,जनता के लिए और जनता के शासन में सर्वाधिकार जनता का ही होना चाहिएपर विडम्बन है कि इसी व्यवस्था में जनता का शोषण भी सबसे अधिक होता है। अपने अधिकारों के प्रति सचेत न होने से आम आदमी लगातार शोषण की चक्की में पिसने को अभिशप्त होता है। अतःजनतन्त्र का सबसे बड़ा आधार आम आदमी की जागृति हैवह हर ऐतिहासिक अनुभव से बढ़ेगी और इससे मानवीय मूल्य नए-नए रूपों में विकसित होते रहेंगे।10 इन मूल्यों को समझने और समाजानुकूल बनाए रखने के लिए जन चेतना की आवश्यकता है। ऐसा न होने पर व्यक्ति और समाज का विकास की ओर अग्रसर होना मुश्किल हो जाएगा।

समाज के विकास में सबसे बड़ा बाधक अशिक्षाअज्ञानता और दरिद्रता को माना जा सकता है। पहाड़ोंजंगलों और गाँवों में रहने वालेअधिकांश के जीवन का एक सच दरिद्रता है।तमाम लोगों की अनिवार्य आवश्कताएँ तक पूरी नहीं हो पातीं।आर्थिक स्रोतों पर जिन लोगों का अधिकार रहता हैउस पर काबिज़ रहने के लिए वे साम-दाम-दण्ड-भेद अपनाने से भी बाज़ नहीं आते। ऐसे में जो गरीब है, वह गरीब ही बना रह जाता है।किसी भी समाज में दरिद्रता याआर्थिक असमानता का कारण बताते हुएप्रसिद्धअर्थसास्त्री अमर्त्य सेन ने यह उल्लेख किया है कि अनाज की कमी से अकाल नहीं पड़ते बल्कि गोदामों में भरा हुआ अनाज का वितरण न होने से सामाजिक व्यवस्था बिगड़ जाती हैजिसका परिणाम यह होता है कि बहुत सारे श्रमिकदलितकिसान काल के गाल में समा जाते हैं इसलिए समयानुसार सभी को सुविधाएँ उपलब्ध कराने की व्यवस्था होनी चाहिए।11यह तो हुई आदर्श की स्थितिजो यथार्थ से बहुत दूर लगती है।वास्तविकता यह है कि अधिकारी और नेता गण के बीच ऐसी साँठ-गाँठ रहती है कि उनसरकारी माल पर वे अपना एकाधिकार समझने लगते हैं और जो वास्तव में जरूरतमंद हैंउन तक कुछ पहुँचता नहीं है।कीकट प्रदेश के निवासी भी अधिकांश दरिद्र हैं।दरिद्रता के चलते तमाम परेशानियों से घिरे रहते हैं। जीवित रहना ही उनके जीवन का सबसे बड़ा सवाल है। ऐसा होते हुए भी बताया जाता है कि इस जनजाति की एक समाज-व्यवस्था हुआ करती थीजिसमें महिलाओं को विशेष स्थान दिया जाता था। श्रम विभाजन के अनुसार समाज में दायित्वों का निर्वाह होता थापरन्तु भूमण्डलीकरण के परिणामस्वरूप आर्थिक व्यवस्था में जो परिवर्तन आया,उसनेशहर ही नहीं ग्रामीण परिवेश और समाज- सांस्कृतिक व्यवस्था को भी बदल दिया।

समाज के वर्थमान परिदृश्य को देखकर ऐसा लगता है जैसे भूमण्डलीकरण या वैश्विकरण का सिद्धांत उन लोगों को लाभान्वित कर रहा हैजो पहले से ही सुविधा सम्पन्न हैं। शेष समाज संघर्षकुठा और रोष के रूप में इसकी कीमत चुका रहा है। इससे एक राष्ट्र विशेष का पारिवारिकजातीय एवं सामाजिक बोध भी प्रभावित हो रहा है।12 किसी भी विपरीत स्थिति में सर्वाधिक प्रभावित होने वाला वर्ग है- स्त्री और बच्चे। असुर समाज में भी पुरुषप्रधान अन्य समाजों की तरह स्त्रियाँ ही सबसे अधिक शोषण की शिकार होती हैं। कथावाचक गाँव वालों से सुनता है कि एक समय था जब महिलाएँ इस समाज में सियानी कहलाती थींजनानी नहीं।जनानी शब्द कहीं न कहीं केवल जनन, जन्म देने की प्रक्रिया तक उन्हें संकुचित करताजबकि सियानीशब्द उनकीविशेष समझदारी- सयानेपन को इंगित करता मालूम होता।13 मणिपुरी में एक कहावत है, ‘फल तोड़ने से ज्यादा उसे सहेज- संभालकर रखना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है भारतीय समाज में सदियों से यह काम स्त्रियाँ ही करती आ रही हैं। समय के साथ विज्ञान के तमाम आविष्कारों तथा तकनीकि विकास ने अनेक रहस्यों को खोला है तो समस्यापरक नई स्थितियों का भी सामना करवाया है।

भौतिक विकास के विभिन्न संसाधनों के साथ समाजव्यवस्था में परिवर्तन स्वाभाविक है।उपन्यास में दिखाया गया है कि कोयलबीघा इलाके को बाक्साइड के लिए खोदा जा रहा है। अवैध खनन जारी है। देशी- विदेशी कंपनियों के कार्यकर्ता और अधिकारी सभी बाहर से आए हैं। उनके घरों में काम करने वाली स्त्रियाँ असुर वर्ग की स्त्रियाँ हैं। ये दलालों और ठेकेदारों की वासनाओं की शिकार होने के लिए अभिशप्त हैं। और दुःख की बात यह है कि इस समुदाय के पुरुष ही चंद रुपयों के लालच में ठेकेदारों के हाथों के खिलोने बनकर उनकी साध पूरी करते हैं।खदान में मेठमुंशीक्लर्कअफसरों के डेरों में खटने वाली असुर युवतियों के रंग-ढंग देखते ही देखते बदल जाते। स्नो- पावडररंगआलतानकली जेवर से सजने लगतीं। सखुआपाट के अंसारी ठेकेदार की रखनी रामरति अकेले नहीं थी। वह छुतवा रोग की तरह पूरे पाट में फैल रही थी।14  उपन्यासकार ने यहाँ जिस स्त्री वर्ग को प्रस्तुत किया है वह असुर वर्ग की हैपरन्तु प्रचलित रूढ़ियों के कारण भारत के सामाजिक मन में जो धारणा बन गई है उसके अन्तर्गत सारी स्त्रियों को असुर वर्ग में रखा जा सकता है। क्योंकि स्त्री केवल स्त्री है। चाहे वह महानगर में रहने वाली होचाहे गाँव में या फिर किसी कस्बे में। तमाम विकास और उन्नति के बावजूद भारतीय समाज में आज भी  स्त्रियों की नियतिपूर्व स्थिति से ज्यादा भिन्न नहीं है। आलोच्य उपन्यास इस ओर सोचने पर मजबूर करता है।क्योंकि पढ़-लिख लेनेनौकरी कर लेने या आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने से ही स्त्री शोषण से मुक्त हो जाती होऐसा नहीं है। उपन्यास की सलोनी को देखकर ऐसा ही लगता है। वह शिंडल्को कंपनी की मुख्य शाखा में कार्यरत थीपरन्तु जब कोयलबीघा इलाके में विरोध शुरू हुआ और विद्रोहियों ने कंपनी का काम रोक दियातो उसे नियन्त्रित करने के लिए सलोनी का स्थानान्तरण सखुआपाट में करवा दिया। सलोनी को अपना परिवार चलाने के लिए नौकरी चाहिए थी और नौकरी में बनी रहने के लिए बॉस का कहना मानना ही था। इसलिए वह मेनेजर के हाथों का खिलौना बनकर रह जाती है।

एक कंपनी का मैनेजर किशन कन्हैया पाण्डे नाम के अनुरूप रसिक मिजाज़ वाला हैजो कंपनी के नाम से जहाँ भी जाता है अपने मन कीसाध पूरी करने का मौकातलाश ही लेता है। एक प्रसंग में लिखा है  सोवियत रूस के विघटन के बाद दिल्ली के सस्ते होटलों में अतिश्वेताओं की भरमार थीजिनके मोबाइल नम्बर इनकी डायरी की शोभा बढ़ाया करते। दिल्ली से दो घण्टे की फ्लाइट और राजधानी से चार घण्टे की यात्रा। ग्लोबल गाँव की कृपा से सब कितना सुलभ।15

इसी उपन्यास में स्त्री का एक भिन्न चित्र प्रस्तुत करने वाली पात्र है- बुधनी। कोयलबीघा इलाका जब बंजर हो गयातो वहाँ के अनेक लोग रोजगार की तलाश में वहाँ से बाहर चले जाने को विवश हो गए। ऐसे में बुधनी अपने पति को लेकर असम की ओर चली गई और शिवसागर या डिब्रुगढ़ के किसी चाय बगान के पास चाय की दुकान चलाने लगी। भले ही एक स्त्री का चाय की दुकान चलाना हमें नया न लगेपरन्तु झारखण्ड जैसी जगह के एक गाँव की अनपढ़ स्त्री आर्थिक स्वावलंबन की ओर बढ़ती है तो इसे स्त्री सशक्तिकरण का एक साकारात्मक पहलू माना जाना चाहिए।

आज स्त्री अपने अधिकारोंदायित्वों और समस्याओं के प्रति सजग हो रही है। आत्म-चेतना के कारण उसे जिम्मेदारियों का अहसास होने लगा है। इसी कारण वह एक प्रकार की मानसिक पीड़ा का भी अनुभव करती है। इसलिए वह अपने आस-पास घटने वाली घटनाओं से आँखें मून्द कर मुँह नहीं फेर पातीबल्कि प्रतिक्रिया करने पर उतर आती है। ऐसी ही युग की चेतना सम्पन्न असुर स्त्री है ललिता। पढ़ी-लिखी और समझदारजो अपने समाज में फैले अंधविश्वास से दुःखी है।वह बाबा शिवदास द्वारा चलाए गए कण्ठी अभियान का विरोध करती है। कहती है, “असुर पुरुष क्यों दूसरों के झाँसे में आ जाते हैंक्यों इतनी जल्दी बेवकूफ बन जाते हैं।16 यही ललिता कथावाचक मास्टर से दोस्ती की पहल भी करती हुई कहती है, “आपसे दोस्ती जमेगीचलिएहम लोग सहिया जोड़ लें यह ललिता की घोषणा थी। सहिया जोड़नेयानी दोस्ती की विधिवत घोषणा की अच्छी खासी प्रक्रिया थी। लालचन दा सुनकर हँसने लगे। लड़का- लड़का और लड़की-लड़की का सहिया जोड़ाए तो देखते-सुनते आए। अब ललिता नया विधि-विधानपरम्परा शुरू कर रही है।17 स्त्री होने भर से वह अपने को पुरुषों से हीन नहीं मानतीबल्कि स्त्री को पुरुष के समानान्तर अस्तित्व की स्वामिनी मानती है। इसी ललिता को अन्याय का विरोध करने के कारण अपनी जान बचाने के लिए दर--दर भागना पड़ता है। ललिता वास्तव में सजग होती जनजाति स्त्री की प्रतिनिधि हैजिसे संघर्ष की एक लम्बी यात्रा तय करनी है।

ग्लोबल गाँव के देवता उपन्यासमें चित्रित उन सभी स्त्री पात्रों के माध्यम से हम देख सकते हैंकि स्त्री के हिस्से केवल निराशाबेबसी और हार आती है। विकास के तमाम नारों के बावजूद स्त्री शोषण आज भी किसी न किसी रूप में विद्यमान है। लेकिन इससे स्त्री थककरहारकर और सहमकर पीछे नहीं हटती। अपनी अस्मिता और अपने अस्तित्व को दृढ़ करने के लिए बढ़ाए गए उसके कदम अब न थमेंगेन लौटेंगे और न भावी खतरों से घबराकर आगे बढ़ना छोड़ेंगे।

संघर्ष जैसे स्त्री जीवन का पर्याय बन गया है। आज हमारे सामने अनेक जीवंत प्रमाण मौजूद हैंजो स्त्री संघर्ष की ज्वाला के तपीश को अपने अन्दर समेटे शोषण और अत्याचार के खिलाफ दृढ़ता के साथ लड़ ही नहीं रही, बल्कि संघर्ष की प्रेरणा बनकर स्त्री समाज को दिशा भी प्रदान कर रही हैं। धरती भी स्त्रीप्रकृति भी स्त्रीसरना माई भी स्त्री और उसके लिए लड़ाई लड़ती सत्यभामाइरोम शर्मिलासी.के. जानूसुरेखा दलवी और यहाँ पाट में बुधनी दी और सहिया ललिता भी स्त्री। शायद स्त्री ही स्त्री की व्यथा समझती है। सीता की तरह धरती की बेटियाँधरती में समाने को तैयार।18

ग्लोबल गाँव के देवता में दिखाई गई ये स्त्रियाँ वर्तमान स्त्री के भविष्य का नक्शा तैयार कर रही हैं। इस नक्शे में कटु यथार्थ भी हैनिराशा भी। निराशा के विरुद्ध संघर्ष भी। अँधेरा भीअँधेरे के खिलाफ लड़ाई भी और चन्द सवाल भी। दरसल ग्लोबल गाँव के देवता में सुदूर जनजातीय क्षेत्रों में घटता हुआ जो कुछ दिखाया जा रहा हैवह सब विकास की भूमण्डलीकरण प्रेरित धारणा के चलते घट रहा है और हम देखते हैं कि इसमें सबसे परेशान जो वर्ग हैवह स्त्रियों का है। तो क्या भूमण्डलीकरण भी विकास के नाम पर अन्ततः स्त्री के विरोध में खड़ा होगा?इस सवाल का उत्तर भूमण्डलीकरण की वर्तमान प्रक्रिया की परिणति से मिलेगा। अर्थात इस सवाल के उत्तर में अभी देरी हैलेकिन इतना जरूर है कि स्त्री को चाहे वह किसी भी वर्ग की होपरम्परागत ठेकेदारों के साथ ही भूमण्डलीकरण के देवताओं से भी सावधान रहना होगा।

सन्दर्भ ग्रंथसूची -

1.   उदारीकरणभूमण्डलीकरण एवं दलित सं- अरुण कुमाररावतपब्लिकेशन्स जयपुरसंस्करण 2009, ISBN : 81-316-0271-0,पृ-28

2.   Globalization: Language Culture and Media, Editors- B.N. Patnaik- S. ImtiazHasnain, Chapter-2 page no. 17, Indian Institute of Advanced Study, Shimla ISBN :81-7986-061-2

3.   The Conscience Oxford Dictionary 9th Edition I Thomson Della ISBN : 0-19-861320-2

4.   The term globalization comes from English, as base of the word “globalization” which refers to the emerging of an international network, belonging to an economical and social system.  Oxford English Dictionary Online. September 2009. http://dictionary.oed.com/

5.   “Globalization" is the process of the shrinking of the world, the shortening of distances, and the closeness of things. It allows the increased interaction of any person on one part of the world to someone found on the other side of the world, in order to benefit"

The Race to the Top: The Real Story of Globalization -Larsson, Thomas.. Washington, D.C.: Cato Institute, 2001 p. 9. ISBN 978-1930865150

6.   हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली- डॉ. अमरनाथराजकमल प्रकाशननई दिल्ली-2012,ISBN :978-81-257-2207-5, पृ-358

7.   हिंदी साहित्य इक्कीसवीं सदी चुनौतियाँसं-डॉ. कीर्ती केसरनवजागरण प्रकाशनदिल्ली-2002,पृ-31

8.   The last decade or so has witnessed a growing concern about the phenomenon called globalization. It has become a source of anxiety in the academic world. Globalization language, culture & Media, Editor B.N. Paynaik, S ImtiazHasnain, page-1, Indian Institute of Advanced Study, Shimla.ISBN : 81-7986-061-2

9.   ग्लोबल गाँव के देवता- रणेन्द्रभारतीय ज्ञानपीठनई दिल्ली- 2010पृ-9,ISBN : 978-81-263-1905-3

10. हिंदी साहित्य इक्कीसवीं सदी चुनौतियाँसं-डॉ. कीर्ती केसरनवजागरण प्रकाशनदिल्ली-2002,पृ-32

11. उदारीकरण,भूमण्डलीकरण एवं दलित-सं- अरुण कुमार रावत पब्लिकेशन्सजयपुर-2009पृ-157, ISBN : 81-316-0271-0

12. उदारीकरणभूमण्डलीकरण एवं दलित सं- अरुण कुमार रावतपब्लिकेशन्स जयपुरसंस्करण 2009, ISBN : 81-316-0271-0पृ-59

13. ग्लोबल गाँव के देवता- रणेन्द्रभारतीय ज्ञानपीठनई दिल्ली- 2010पृ-25,ISBN : 978-81-263-1905-3

14. वहीपृ-39

15. वहीपृ-53

16. वहीपृ-57

17. वहीपृ-59

18. वहीपृ-92

 


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