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संपादकीय

 


साहित्य का प्रदेय

पूर्वोत्तर के सात राज्यों असम,अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और मणिपुर में सैन्य बलों को विशेष अधिकार प्राप्त है। आर्मड फोर्सस स्पेश्यल पावर्स एक्ट 1958 [सशस्त्र बल(विशेष शक्तियाँ) अधिनियम 1958] संसद में 11 सितम्बर 1958 को पारित किया गया था। इस अधिनियम के अंतर्गत सुरक्षा बलों को अशांत माने गए राज्यों में अपनी कार्रवाई के लिए विशेष शक्ति दी जाती है। चाहे वह आतंकवाद से उत्पन्न स्थिति हो या उग्रवाद से यदि भारत का कोई क्षेत्र अशांत है, तो वहाँ इस अधिनियम को लागू किया जा सकता है। आतंकवादी गतिविधियों तथा उग्रवाद की समस्या से निबटने के लिए भारत के सीमांत प्रदेशों पूर्वोत्तर राज्यों तथा जम्मू कश्मीर जैसे इलाकों में इसे लागू किया गया है। 

इस अधिनियम के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि देखने पर पता चलता है कि वास्तव में यह सन् 1942 में गाँधी के नेतृत्व में किए जा रहे भारत छोड़ो आन्दोलन को विफल करने के लिए अंग्रेजों द्वारा बनाया गया अध्यादेश था। इसी आधार पर कालांतर में जनता द्वारा जनता के लिए जनता का शासन अर्थात लोकतंत्र पर विश्वास रखने वाले भारत देश में अपने ही देशवासियों के असंतोष से उत्पन्न विद्रोह को दबाने के लिए प्रयोग में लाया गया। जब 1952 में सम्पन्न आम चुनाव का नागा नेशनल काउंसिल द्वारा विरोध किया गया तब स्थिति को नियंत्रित करने के लिए असम सरकार द्वारा नागा हिल्स पर असम मेंटिनेंस ऑफ पब्लिक ऑर्डर (ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट) एक्ट 1953 लागू करते हुए नागा बहुल इलाकों पर असम राइफल्स को तैनात किया था। डिस्टर्ब्ड एरिया घोषित करते हुए असम तथा मणिपुर पर भी आर्मड फोर्सस स्पेश्यल पावर्स एक्ट 1958 लागू किया गया। बहुत लोग इस अधिनियम के समर्थन में अपना मत प्रकट करते हुए कहते हैं कि राष्ट्र की सुरक्षा और आंतरिक शांति बनाए रखने के लिए इस तरह के अधिनियम की जरूरत है। पर अक्सर ऐसा होता है कि जहाँ शक्ति आ जाती है, वहाँ शक्ति का दुरूपयोग भी होने लगता है। लाल झण्डे तक लाल फिताशाही बन जाते हैं। अफस्पा (आर्मड फोर्सस स्पेश्यल पावर्स एक्ट ) के लागू करने के बाद पूर्वोत्तर क्षेत्र से उग्रवाद की समस्या जड़मूल नष्ट हो गया हो, यह तो देखने में नहीं आया पर अनेक फेक एनकाउंटर होते देखा गया है, जिसमें अनेक मासूम मारे गए हैं। आय दिन इसके उदाहरण देखने में आ ही जाते हैं। इसी क्रम में हाल ही में एक और दुःखद घटना घटी। 4 दिसम्बर 2021 को नागालैंड के मोन जिले के मोन इलाके में दिन भर काम करके लौट रहे 14 मजदूरों को उग्रवादी समझकर असम राइफल्स के जवानों द्वारा गोलियों से भून डाला गया। ऐसा भी नहीं था कि यह घटना अंधेरे में घटी हो, बल्कि दिन के उजाले में ये मजदूर मारे गए थे। सवाल यह है कि क्या उग्रवादियों और मजदूरों में कोई अंतर दिखाई नहीं देता या पूर्वोत्तर के सभी जन उग्रवादी ही दिखते हैं। इस पहेली को सुलझाने की जरूरत है।

अफसोस की बात तो यह है कि मासूमों का मारा जाना एक तरफा नहीं होता। असंख्य उग्रवादी संगठनों द्वारा सम्पन्न गतिविधियों में भी आम लोग ही मारे जाते हैं। अनेक उदाहरण इसके भी मिल जाएँगे जब निर्दोष आम जनता उग्रवादी संगठनों की गतिविधि के कारण मारे जाते हैं या कष्ट भोगते है। किसी भी मामले पर इन संगठनों का हस्तक्षेप होता है तो किसी को कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं रहती, क्योंकि वहाँ बंदूक की नोक पर बात होती है। बन्दूक के आगे कौन अपनी जबान खोले। यहाँ भी शक्ति का ही दुरूपयोग होते देखा जा सकता है।

ये दोनों ही स्थिति आम लोगों के लिए परेशानी का सबब ही होता है। हिंसा शांति के नाम पर हो या आजादी के नाम पर इससे मानवता की ही मौत होती है। दो पाटों के बीच पिसने वाले आम लोग ही होते हैं। मणिपुरी साहित्य में अस्सी के दशक से लेकर दो हजार तक के साहित्य में आम जनता की मनःस्थिति का चित्रण साहित्य के प्रत्येक विधा में देखने को मिलता है। मणिपुरी साहित्य के विधाओं में कविता और कहानियाँ सर्वाधिक लोकप्रिय है। इस काल खण्ड के अन्तर्गत रचित इन दोनों विधाओं में उग्रवाद की स्थिति, उनके सिद्धांत और आदर्श, आम लोगों की सहानुभूति और समय के साथ उसमें आए परिवर्तनों को प्रामाणिकता के साथ प्रकट किया गया है। यह तो मानना ही होगा कि उग्रवाद एक विचार है बन्दूक नहीं। अतः बन्दूक के आगे बन्दून तानने से समस्या का अंत नहीं होगा बल्कि उससे दूसरी समस्याएँ उत्पन्न होंगी। अतः उग्रवाद की समस्या और उसके प्रभाव को जानने- समझने के लिए तथा इसके विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण करने के लिए साहित्य को आधार बनाया जा सकता है, बल्कि बनाया जाना चाहिए। मुझे लगता है कि ऐसा करने पर समस्या की जड़ों तक पहुँच पाएँगे।   


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