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जब याद करता हूँ गुजरे जीवन सफर को : डॉ. गुरुमयुम विजयकुमार शर्मा

 डॉ. गुरुमयुम विजयकुमार शर्मा

सहायक प्रोफेसर

इंफाल कॉलेज, इंफाल- 795001 (मणिपुर)

मणिपुरी से हिंदी अनुवाद – डॉ. वाइखोम चींखैङानबा

हार गया था मैं

जे.डी. का एन.सी.सी. कैंप

भाग लेने की होड़ में,

पच्चीस विद्यार्थियों के चुनाव में

पाकर छब्बीसवाँ स्थान ।

हार गया था मैं

कई आर्मी रिक्रुटमेंट में

बो लेग पाकर मेडिकल टेस्ट में ।

नहीं जानता था एन.सी.सी. का महत्त्व ।

हार गया था मैं

किसी तरह रिक्रुट होना

बी.एस.एफ. में,

किस्मत में नहीं थी मेरी ।

पार्टी के दोस्तों के साथ

सोचा था रिक्रुट हो गया,

गुंजती है आज भी उस अफसर की आवाज

मजे करो, घूमो नाचो 

पैंतालीस दिन के अंदर 

आ जाएगा कोल लेटर ।

कार्गिल वार के समय 

बी.एस.एफ. चले गए कोइरेंगै से,

कोल लेटर का इंतजार करना 

मेरा जीवन बन गया ।

सपने में बोरिया बिस्तर बाँध 

खाकी वर्दी पहन

अनेक बार निकला ट्रेनिंग के लिए।

रह गए अरमान

मेरे ख्वाबों में ही ।

कॉलेज का शिक्षक बनने के बाद

कोई और न होने पर, विद्यार्थियों के अनुरोध पर

बन गया मैं सी.टी.ओ ।

और बोर्ड ने मुझे चुना ए.एन.ओ ।

ए.एन.ओ. की ट्रेनिंग हेतु

अनेक बाधाएँ देख 

सोचा न जाऊँ ।

मेरी इच्छा , मेरी चाहत ।

गुजरे जीवन सफर में मिली हार

आज बन गई सफलता की सीढ़ी ।

जमीन और आसमान की दूरी सिमटकर

बन गया जगह एक बेहतर ।

स्वर्ग के बागों में

क्या खिलते होंगे ऐसे फूल

तरह तरह के महक वाले ?

भारत के कोने – कोने में बिखर गए अनेक फूल

स्वर्ग से भी श्रेष्ठ ओ.टी.ए. काम्पटी में

कड़ी धूप और पतझड़ की चिंता बगैर

कोविड 19 को पछाड़कर

खिल रहे हैं, महक रहे हैं ।

महक तो पा गया

लेकिन घूमना है रस के लिए

तुम्हारी गोद में खिलने वालों का पद चिह्न ढूंढ,

अमृत रूपी आशीर्वाद 

पी पाऊँगा घूंट भर ।

एक सच बताना चाहूँगा प्रारंभ का

जल गया था मैं गोद में तुम्हारी

लेकिन आज उसी में जलना चाहता हूँ ।

डाँटा, चिल्लाया, तोड़े प्यार के रिश्ते,

एक बैरेक से दूसरे में, 

मच्छर, खटमल, कीड़े-मकौड़े ने

चूस लिया था खून,

बहुत बड़ा दंड समझ लिया था

शिकायत करूँ तो भी कैसे ।

जिसको मैंने विष माना

वह निकला अमृत ।

सब था

अनुशासन के लिए, तपस्या के लिए

परख के लिए और बहुत कुछ ।

एक इंस्टिट्यूशन का एन.सी.सी. यूनिट चलाना,

ए.एन.ओ. का कार्य करना 

आम व्यक्ति थोड़े कर पाएगा ?

पुजारी के रूप में साहित्य के

घूम चुका भारत का कोना-कोना

दो-चार दिनों में मिला अनेकों से

लेकिन यहाँ अटूट धागे से बँधे हम

कई दिनों से, एक परिवार की तरह ।

शिक्षक होने के साथ-साथ

मुझको रेंक भी दे दिया ।

हे ओ.टी.ए. काम्पटी

हे शिवाजी कंपनी

जब तक मेरी जान है

तुमको न भूलूँगा कभी

तुमको न भूलूँगा कभी 

जय हिंद ।


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