कबीर : एक विलक्षण व्यक्तित्व - स्मिता साह
भारतीय संत परम्परा या भक्ति आन्दोलन में एक विलक्षण व्यक्तित्व धारण किए हुए जिस संत का उदय हुआ , वह कबीरदास है । विलक्षण इस अर्थ में कि शायद ही कोई ऐसा पक्ष हो जो मानवहित में हो, और जो उनके काव्य में न हो । मानव हितकारी और मानवता के घनघोर पक्षधर है कबीर। कबीरदास मनुष्य के विकारों को दूर करने वाले थे । समुच्य संत साहित्य में मानवता का बीज देखा जा सकता है । इनके मानवता के निकट होने का एक कारण और यह बताया जा सकता है, कि संत समाज के अधिकांश कवि उस समाज से आते हैं , जो एक तरह से समाज के निचले तबके के अंतर्गत आते हैं। कोई नाई है, कोई जुलाहा है, कोई चमार है , कोई जाट, तो कोई खत्री । इन सभी संतो ने कहीं न कहीं अपने आस - पास मानवीय मूल्यों का ह्रास होते हुए देखा था , इसलिए वे उसके निकट जान पड़ते हैं । संत साहित्य पर रामविलास शर्मा लिखते हैं-
“ संत
साहित्य का सामाजिक आधार क्या है ? इसका सामाजिक आधार
जुलाहों , कारीगरों, किसानों और
व्यापारियों का भौतिक जीवन है । संत साहित्य भारतीय संस्कृति की आकस्मिक धारा नहीं
है । यह देश की विशेष सामाजिक परिस्थितियों में उत्पन्न हुई थी । इसलिए यह एक भाषा
या एक प्रदेश तक सीमित नहीं रही । उसका प्रसार श्रीनगर से कन्या कुमारी तक ,
गुजरात से बंगाल तक हुआ था । यह इस देश का सबसे विराट सांस्कृतिक
आन्दोलन था जिसकी जड़े दूर - दूर गांवो तक पहुंची थी । ” ' देखा
जाय तो समुच्य संत साहित्य में कबीर का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है । भारतीय वाङमय
में सर्वाधिक पढ़े और कोट किए जाने वाले कबीर हैं । कबीरदास की दृष्टि पर किसी
प्रकार का संदेह करना निहायत ही अपनी मूर्खता सिद्ध करने जैसी है ।
मानवता की आधारशिला रखने वाले कबीर पहले
संत है। जिस वर्गहीन और शोषण मुक्त समाज की कल्पना कार्ल मार्क्स आदि विद्वानों ने
आधुनिक काल में की । उसके प्रबल पक्षकार के रूप कबीरदास मध्यकाल में ही दिखाई देते
हैं। कबीर के समय में या ठीक उसके पहले विश्व के कई देशों में ‘ रेनेसा’ आ रहा था
। जिसकी मूल विशेषता मानवता को ऊपर उठाना था । किन्तु ऐसा कहना कि कबीर पर उसी
जागरण का प्रभाव है जो पश्चिम के देशों में उदय हो रहा था सर्वथा भूल होगी ।
भारतीय समाज और पश्चिमी समाज में आज भी भिन्नता है और कल भी थी । यहाँ भिन्नता को
दर्शाना मेरा लक्ष्य नहीं है । किन्तु धर्म की आड़ में हर जगह शोषण और दमन होता
रहा है । अगर यह नहीं होता तो नवजागण में धर्म - कर्म और मानवता की कल्पना शायद
नहीं हई होती । यहाँ पर यह मान लेना भी गलत होगा कि धर्म को धारण करने वाले सभी
लोग वैसे होते हैं । धर्म वही होता जो सबको सन्मार्ग पर ले जाए । कबीर सबके उत्थान
से उत्थान मानते हैं । उनकी बातें मनुष्य को जोड़ने की ओर संकेत करती है । मनुष्य
को तोड़ने वाले व्यक्ति को कबीर साहब जगह - जगह फटकारते नजर आते हैं । कबीर धर्म , संप्रदाय , समाज के ठेकेदार को इसलिए फटकारते हैं ,
ताकि मनुष्य में मनुष्यता बची रहे । मानवता को बनाए रखने के लिए
कबीर लिखते हैं :
“कबीर आप ठगाइये , और न ठग्या कोई ।
आप ठग्या सुख उपजै , और ठग्या दुःख होत ॥“
कितने आसान शब्दों में कितनी बड़ी बात
कबीर कह देते हैं । यह विलक्षण व्यक्तित्व धारण करने वाला ही कर सकता है । कबीर
खुद को ठगवाने की बात करते हैं । वे कहते हैं खुद ठगे जाने पर सुख मिलता और दूसरों
को ठग देने पर दु:ख । यह कितनी बड़ी उदारता है । वास्तव में खुद के साथ कुछ हो
जाने पर उतना बुरा नहीं लगता जितना किसी दूसरे के साथ होने से बुरा लगता है । यह
बात सभी को हमेशा याद रखनी चाहिए । यही भाव मानव की मानवता को बचाए रखने में सक्षम
है । अगर हम देखे तो भारतीय नवजागरण के वे सारे मूल तत्व जैसे मानवतावाद , सामंतवाद विरोध , धार्मिक सत्ता का विरोध , समाज सुधार , समानता , वाह्यडंबरों
का विरोध , जाति प्रथा का विरोध , नवीन
संस्कृति , नवीन जीवन शैली आदि सभी कबीर और अन्य संतों के
साहित्य में विद्यमान है । भाषा के क्षेत्र में संस्कृत , अपभ्रंश
को छोड़कर लोक भाषा को स्थान दिया । इस तरह से देखे तो कबीर आदि संत कवि विलक्षण
प्रतिभा के धनी थे ।
बौद्ध , नाथ , सिद्ध एवं संत साहित्य, अपने समय और समाज में फैले आचार - विचार की जो
विषमता थी उससे ही वे उदय हुए माना जा सकता है । बौद्ध , नाथ
एवं सिद्धों ने जिस प्रकार जाति , धर्म एवं समाज में फैली
कुरीतियों का विरोध किया, ठीक ऐसा ही कबीरदास भी करते हैं । जिस तरह रूढ़िवादिता
और धर्म का विरोध सहजयानी करते थे । वैसा ही कबीर के काव्य में भी देखा जा सकता है
।इस कारण एक तरफ वे लोग हैं, जो कबीर के काव्य में नाथ , बौद्ध
, सिद्ध आदि संप्रदाय का होने का तर्क देते हैं , तो दूसरी तरफ वे लोग है जो इसे नकारते हैं और यह नहीं मानते हैं कि कबीर
पर सीधा सीधा प्रभाव नाथ , बौद्ध , सिद्ध
आदि संप्रदाय का है । कबीरदास अपनी तरह से अपने समय - समाज को देखते होंगे और अन्य
संप्रदाय के विद्वान अपनी तरह से । कबीर का संबंध सीधे लोक से था । वह लोक जिसमें
वे खुद रहते थे । अपने रोजमर्रा के सुख – दुःख को उसी समाज में रहने वाले लोगों के
साथ व्यतीत करते थे इसलिए कबीर , कबीर है ।
भारतीय समाज में कर्म की प्रधानता हमेशा
से रही है । भारतीय धर्म ग्रंथ में सर्वाधिक लोकप्रिय श्रीमद् भगवत् गीता में भी
कर्म को प्रमुख स्थान दिया गया है । कबीरदास भी कर्म के समर्थक है । उनका सम्पूर्ण
जीवन इसी कर्म के इर्द - गिर्द दिखाई देता है। कबीर खुद जुलाहे समुदाय से आते हैं
और वे जीवन पर्यन्त जुलाहे के काम में अपने आप को संलिप्त पाते हैं । उन्होंने कभी
अपने कर्म को छोड़ कोई और कर्म अपनाने की चेष्टा नहीं की । चूँकि उस समाज का काम
ही यही था और इसी पर उनकी आजीविका निर्भर थी । इसलिए वे भी अपने भाई - बंधु के साथ
ही रहना उचित समझते थे । कबीरदास ने कभी भी किसी दूसरे व्यक्ति को ये नहीं कहाँ कि
भाई तुम ज्ञान ध्यान में लगो । वे हमेशा यही कहते आये कि अपना कर्म करते रहो इसी
में सब हैं। कबीरदास के कर्म के बारे में बलदेव वंशी लिखते हैं
“ कबीर साहब अपने युग में इन सब बाहरी
सामाजिक मूढ़ताओं को मूर्खताओं को देखा था और इनका प्रतीकार किया था। उन्होंने
कर्म और श्रम की महत्ता को स्थापित किया था अपने जीवन में , अपने
आदर्शों को ढाल कर दिखाया भी। किन्तु सोये हुए को जगाया जा सकता है , जागे हुए को कोई क्या जगाए। यानि जो जान बूझकर आंखे बंद किए सोने का बहाना
करे उसे कैसे जगाया जा सकता है।”
कबीर का कर्म
कितना महत्वपूर्ण है । बलदेव जी ने सही लिखा है कि जान बूझकर सोने वालों को कभी
नहीं जगाया जा सकता। कबीर साहब के काव्य में मानव चेतना को जगाने से संबन्धित अनेक
दोहे देखने को मिल जाते हैं । उनके सम्पूर्ण काव्य में अनेक पद ऐसे मिल जाएंगे जो
मनुष्य को कर्म करते जाने की प्रेरणा देते है।
काम मिलावे राम
कूं जे कोई जाँनै राखि ।
कबीर बिचार
क्या करै , जे सुखदेव बोलै साखि ॥
कबीरदास के काव्य सम्पूर्ण मानव के लिए हित की बात करता है
। वे प्रेत्येक मनुष्य में मनुष्यता को देखते थे । उनके लिए मनुष्य का मनुष्य रहना
ही सही था । भक्ति की उपासना के लिए उन्होंने प्रेम को प्राथमिकता दी है । उनके
काव्य में मानवता का रेखांकन लगभग हर जगह मिल जाता है । आदर्श उनके यहाँ सिर्फ
दिखावा नहीं है। उनके अनेक पद जाति - पात , छुआ - छूत , धर्म
संप्रदाय का खण्डन करता है । उन्होंने सम्पूर्ण मनुष्य के लिए सर्वथा साधारण मार्ग
प्रशस्त किया है ।
प्रेम बिना जो
भक्ति है , सो निज दम्भ विचार । उदर - भरन के कारने , जनम
गंवायो सर ॥5
संदर्भ ग्रंथ
1 परम्परा का मूल्यांकन , रामविलास शर्मा ,
राजकमल प्रकाशन , नयी दिल्ली , 1981 , पृ स . 45-46
2 कबीर ग्रंथावली , रामकिशोर शर्मा , लोकभारती
प्रकाशन , इलाहाबाद , 2006 , पृ . सं . 298
3 कबीर की चिंता , बलदेव वंशी , वाणी
प्रकाशन नयी दिल्ली , 2008 पृ . सं . 53
4 अकथ कहानी प्रेम की कबीर की कविता और उनका समय , पुरुषोत्तम अग्रवाल ,
राजकमल प्रकाशन , 2016 , पृ . सं . 371
5 कबीर जीवन और दर्शन , उर्वशी सूरत , लोकभारती प्रकाशन , इलाहाबाद , 1980 , पृ . सं . 150
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