पूर्वोत्तर भारत : नेपाली सवाई काव्य : डॉ.गोमा देवी शर्मा
सवाई नेपाली जातीय लोक छंद है, जिसमें मात्राओं एवं वर्णों की गिनती की
कोई समस्या नहीं है । साधारणतः इसमें 14 अक्षर होते हैं और चार, आठ तथा
तेरह में विराम होता है । यह विशेष रूप से किसी वस्तु एवं घटना के वर्णन के लिए
प्रयोग में लाया जाता है । यह हमेशा पंचों को संबोधन करके लिखा जाता है और इसे
गाकर सुनाया जाता है । गेयता इसकी प्रमुख विशेषता है । यथा-
सुन-सुन पंच हो म केही
भन्छु ।
मनिपुर्को धावाको सवाई कहन्छु ।। (श्लोक 1)
1
(सुनो-सुनो पंचगण मैं कुछ कहूंगा।
मणिपुर की लड़ाई की सवाई कहूँगा ।।)
नेपाली लोक जीवन में सवाई को विशेष स्थान प्राप्त है । इसकी मौखिक
परंपरा आज भी विद्यमान है । इसका प्रारंभ कब हुआ यह बताना कठिन है, लेकिन
लिखित रूप में संत ज्ञानदिल दास रचित उदयलहरी (1877) काव्य इसका प्रथम उदाहरण है ।
इतिहासविद देवी पंथी के अनुसार सवाई लेखन परंपरा के इतिहास को देखा जाए तो लोकगीत
के अन्य अवयवों की तरह यह भी एक पुरानी विधा है । इसके लेखन कार्य का सीमांकन करना
एक जटिल कार्य है फिर भी वर्तमान तक की खोज के अनुसार भारतीय नेपाली साहित्य में
संत ज्ञानदिल दास के विक्रम संवत् 1934, तदनुसार सन् 1877 में लिखित उदयलहरी को
प्रथम सवाई काव्य कहा जा सकता है ।2 संत ज्ञानदिल दास ने सवाई को
निर्गुण भक्ति साहित्य की अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग किया । इस परंपरा को तोड़ते
हुए तुलाचन आले ने मणिपुरको लड़ाईको सवाई (1893) लिखकर सवाई को पहली बार वीर रस
प्रधान काव्याभिव्यक्ति के लिए प्रयोग किया । परवर्ती कवियों ने इसके अलावा इसे
सामाजिक यथार्थ जनजीवन चित्रण के लिए भी अपनाया । इसके उपरान्त एक निश्चित कालखंड
तक सवाई परंपरा की धारा आगे बढ़ती हुई दिखाई देती है ।
भारतीय नेपाली साहित्य में सवाई काव्य का विशेष स्थान है । सवाई
अधिकांश सैनिकों एवं अन्य साधारण कवियों द्वारा रचित काव्य है । इन रचनाओं में
अधिकतर युद्ध, प्राकृतिक आपदाएँ एवं सामाजिक कुव्यसनों का चित्रण हुआ है । इन
रचनाकारों का पूर्ण परिचय प्राप्त नहीं है लेकिन वर्णमय विषय का देश काल और भूगोल
का स्पष्ट जानकारी इन रचनाओं में दी गई है । सवाई काव्य पूर्वोत्तर भारत की प्रारंभिककालीन
रचनाओं में आती है । इस क्षेत्र में नेपाली सहित्य की नींव रखने में इन रचनाओं का
विशेष स्थान है ।
पूर्वोत्तर भारत में रचित प्रमुख सवाई काव्य-
1. तुलाचन आले - मणिपुरको
लडाईको सवाई (1893)
2. धनवीर भंडारी - अब्बर
पहाड़को सवाई (1894), भैंचालाको सवाई (1897)
3. कृष्णबहादुर
‘उदास’- आछामको
सवाई (1908)
4. गजवीर
राना - नागाहिल्सको सवाई (1913)
5. रामचंद्र शर्मा - कानी (अफीमको) सवाई (1933)
उपरोक्त सभी सवाई काव्यों में से रामचंद्र ढुंगाना रचित कानी (अफीमको) सवाई को छोड़कर सभी काव्य पंडित हरिहर शर्मा तथा सुब्बा होमनाथ, केदारजीनाथ द्वारा प्रकाशित सवाई पच्चीसा (1933) में संकलित हैं ।
1. मणिपुरको लड़ाईको सवाई
पूर्वोत्तर भारत का प्रथम सवाई काव्य मणिपुरको लडाईको सवाई के रचयिता
का नाम तुलाचन आले था । वे 43/44 गोर्खा पल्टन के लांस नायक थे । इसमें सन् 1891
में हुए आंग्लो-मणिपुर युद्ध का वर्णन किया गया है । इस युद्ध में वे अंग्रेजी फौज
के पक्ष से लड़ने को बाध्य थे लेकिन उनके मन में स्वदेश तथा देशवासियों के प्रति प्रेम
और अंग्रेजों के प्रति वितृष्णा का भाव होने का स्पष्ट संकेत इस रचना में दिखाई
देता है । इस रचना में अंग्रेजों का गुणगान नहीं बल्कि उनकी दमन नीति एवं
अत्याचारों का खुलकर वर्णन किया गया है ।
इस रचना में कुल 28 श्लोक और 122 पंक्तियाँ हैं । यह मूल रूप में
वर्णनात्मक शैली में रचित है । मूल रूप में यह एक ऐतिहासिक विषय प्रधान काव्य है
जिसे कवि ने साधारण भाषा तथा गेय शैली में अभिव्यक्ति दी है । इसमें अंग्रेज सरकार
द्वारा 33 गोर्खा राइफल्स को मणिपुर जाने का आदेश देना, अंग्रेजों की कूटनीति, मणिपुर
के युवराज को बंदी बनाना, अंग्रेजी फौज के द्वारा दरबार में दाखिल होकर लूट
मचाना, दोनों
तरफ की सेनाओं के बीच हुए भारी युद्ध आदि का विषद् वर्णन किया गया है । इसकी भाषा
सरल, बोधगम्य तथा ग्रामीण बोलचाल की नेपाली भाषा है । यथा-
सरकार्को हुकुम भयो मनिपुर्को जाऊ
मनिपुर्को राजासँग कन्सल गरी आउ ।
अंग्रेजी सनको येकानब्बे साल् हो ।
मारच महीनाको सत्ताइस तारीक हो ।।(श्लोक 2)
जोगराजलाई पक्र भनी हुकुम जब
दीया ।
हुकुम्पाई पल्टनले किल्ला घेरी लिया ।।
तहाँ पछी मनिर्पुले थाहा पनी पाया ।
जोगराजको हुकुम पाई गोली चलाया ।।(श्लोक 12)
जाने जती फौजले दरबार लुटी लिया ।
लूटका शूरमा राजा भगाया ।।
जोगराजका भाई सेनापति थीया ।
येक घडी पछी तहाँ तोप चलाया ।।(श्लोक 14)
पच्चीस तारीक अप्रेलमा भारी युद्ध भयो ।
तृतालीस गोर्खले नाम चलायो ।।(श्लोक 14) 3
(अनुवाद - सरकार की आज्ञा हुई
मणिपुर जाना है
मणिपुर के राजा से कन्सल्ट करके आना है ।
अंग्रेजी सन का इक्यानबे साल है ।
मार्च महीना, सत्ताइस तारीक है ।। (श्लोक 2)
युवराजको पकड़ने का आदेश जब दिया ।
आदेश पाकर पल्टन ने किला घेर लिया ।।
इस बात का पता मणिपुर को चल गया ।
युवराज के हुक्म से गोली चलाया ।। (श्लोक 12)
जाने वाले फौजों ने दरबार लूट लिया ।
लूटके चलते राजा भाग गया ।।
युवराज के भाई सेनापति थे ।
एक घडी पश्चात वहाँ तोप चलने लगे ।।(श्लोक 14)
पच्चीस तारीक अप्रैल में भारी युद्ध हुआ ।
तृतालीस गोर्खा ने नाम कमाया ।।) (श्लोक 28)
यह केवल युद्ध की विभीषिका का वर्णन करने वाली रचना नहीं है बल्कि इसमें यह ऐतिहासिक तथ्य सामने आता है कि मणिपुर और अंग्रेजों के बीच युद्ध पच्चीस अप्रैल को हुआ था । मणिपुर में आज भी इस युद्ध को याद करते हुए 23 अप्रैल को खोङजोम दिवस के रूप में मनाया जाता है । मणिपुर के इतिहासविदों में आज भी इसकी तिथि को लेकर मतभेद है । इस रचना में इस बात का स्पष्ट संकेत दिया गया है कि खोङ्जोम युद्ध 25 अप्रैल 1891 को हुआ था ।
2. अब्बर पहाड़को सवाई / भैंचालाको सवाई (1894)
धनवीर भण्डारी कृत अब्बर पहाड़को सवाई में कुल मिलाकर 927 श्लोक हैं ।
इसमें अब्बर पहाड़ अर्थात् अरुणाचल प्रदेश के आदिवासी आवर या अब्बर तथा इस्ट इंडिया
कम्पनी के मध्य सन् 1893-94 हुए युद्ध का वर्णन है । अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध
में अब्बरों की वीरता, युद्ध में वीरगति पाने वाले सैनिकों की स्थिति का
वर्णन, अब्बरों का साहस एवं युद्ध कौशल का वर्णन, युद्ध से उत्पन्न त्रासदी, जनता की
दयनीय स्थिति आदि का चित्रण सजीव बन पड़ा है-
जानी न जानी कथक जोऱ्याको ।
धावाको समाचार जाहेरि गऱ्याको ।।
थियो सन् अठार चौरानब्बे साल ।
अलीकती सुन्नु हवस् दुश्मनको हाल ।।3।।
उड़न लाग्यो तोप गोला बन्दुकका पर्रा ।
भेटिए छ बल्ल अब आँखा भया टर्रा ।।
तोपका गोला जाँदा किल्ला भित्र पस्थे ।
अलि अलि अब्बरले जङ्गलतिर सर्दा ।। (श्लोक 43)
डुकु बस्ती पोलीकन सोलोक बस्ती तऱ्यो ।
बेलुकाको पाँच बजे धावा गर्नु पऱ्यो ।।
किल्लातिर जान फौज कदम बढाउँछन ।
माथिबाट अब्बरले
ढुङ्गा लडाउँछन् ।। 4 (श्लोक 96)
(भावार्थ- जाने अनजाने में मैं इन पंक्तियों के माध्यम से युद्ध का
हाल लिख रहा हूँ । सन् 1894 साल की बात है । मैं दुश्मन का हाल सुना रहा हूँ ।
चारों ओर तोप, गोले, बंदुकें चलने लगीं। किसी को गोली लगी है । उसकी आँखें बंद
होने वाली हैं । तोप के गोले चलने पर अब्बर लोग किले के अंदर घुस जाते थे । कुछ
जंगल की ओर छुप जाते थे । डुकु बस्ती को ध्वस्त करके अंग्रेजी फौज ने सोलोक बस्ती
की ओर कूच किया । शाम के पाँच बजे वहाँ भारी युद्ध हुआ । जब फौज ने किले की ओर कदम
बढ़ाया तो ऊपर की ओर से अब्बरों ने पत्थर बरसाने शुरू किए।)
भैंचालाको सवाई में सवाईकार भण्डारी ने सन् 12 जून 1897 में शिलांग
में आए भूकंप की त्रासदी का वर्णन किया है । यथा-
शिलांगको ठुलो टापू सुनाकुरूङ् थीयो ।
पहरा हल्लाएर सबै झारी दियो ।।
चुराडिम् चेरापुंजी खसीयाको बस्ती ।
भताभुंग गरीदियो भुमि चल्दा अस्ति ।।
डिब्रुगढ गोहाटी अरू रांगामाटी ।
धुपगढीजात्रा पुरै सबै गयो फाटी ।।
पत्ताल फुटीकन निस्की गयो जल ।
छताछुल्ल हुन गयो मधेषको थल ।।5
(भावार्थ- सुनाकुरूङ शिलांग का बड़ा टापु था । भूकंप का झटका इतना जोरदार था कि पहाड़ भी हिल गया और सब चकनाचूर हो गया । चुराडिम, चेरापुंजी खसीया बस्ती सभी भताभुंग हो गए। डिब्रुगढ़, गुवाहाटी, रांगामाटी, धुबगढ़ी सब जगह जमीन फट गई । धरती में हर तरफ दरारें ही दरारें दिखाई दे रही हैं । धरती फटकर पाताल का पानी बाहर निकल आया है । मैदानी भू-भाग में चारों ओर जल ही जल दिखाई दे रहा है ।)
4. आछामको सवाई
इस कृति के रचयिता कृष्णबहादुर उदास डिब्रुगढ़, असम के निवासी थे ।
उनकी रचना आछामको सवाई में प्रयुक्त असमिया शब्द भी उन्हें असमवासी होने का प्रमाण
देते हैं । प्रारंभ में असम को नेपाली जनता आछाम के नाम से संबोधित करती थी; इसीलिए
सवाईकार ने भी असम को आछाम शब्द से संबोधित किया है । इस सवाई में 31 श्लोक हैं ।
कवि ने असमीया नेपाली जनजीवन में व्याप्त कुव्यसन को अपना काव्य विषय बनाया है । इस
सवाई में वर्णित है कि समाज के कुछ लोग अफिम के नशे में पड़कर अपना घर-परिवार,
अपना जीवन, बाल-बच्चों का भविष्य, सामाजिकता सब कुछ दाँव पर लगा रहे हैं । कवि ने
ऐसे असामाजिक तत्वों से समाज में पहुँचने वाली क्षति के प्रति खेद प्रकट किया
है-
सुन सुन पंच हो म केहि भन्छु
आछामको हाल खबर विस्तार कहन्छु ।।(श्लोक 1)
चार दामको उत्पत्ति छैन चार आनाको खर्च ।
कानि खाई बिग्रन लाग्ये नेपाली सबै भ्रष्ट ।।
अछामको नेपाली भासाले केरालाई कोल ।
कानि नखाई सकिन्न भन्छ दुनिया लोक ।। (शलोक 4)6
(अनुवाद- सुनो सुनो पंचगण मैं कुछ कहूँगा ।
असम का हाल खबर विस्तार से कहूँगा ।।
चार आने की उन्नति नहीं चार पैसे का खर्च ।
अफीम पीकर सारे नेपाली हो गए हैं भ्रष्ट ।।
असमीया नेपाली कहती केले को कोल ।
बिना अफिम जी न पाए यह दुनिया लोक) ।।
इसमें तत्कालीन असमीया नेपाली जन-जीवन, रहन-सहन, बोलचाल आदि के साथ भौगोलिक तथा आर्थिक पक्ष को भी वर्ण्य-विषय बनाया गया है ।
5. नागाहिल्सको सवाई (1913)
नागाहिल्सको सवाई के रचयिता गजवीर राना है। इस रचना में सन् 1913 में
इस्ट इंडिया कंपनी तथा नागालैण्ड के नागाओं के बीच हुए युद्ध का वर्णन किया है। इस
युद्ध में कवि स्वयं शामिल थे, इसीलिए उनका युद्ध वर्णन सजीव बन पड़ा है। इस युद्ध
में वे घायल हो गए थे। इसका प्रमाण चौथे श्लोक में प्राप्त होता है। इसमें गजवीर
राना ने नागाहिल्स में रहने वाले नागाओं के युद्ध कौशल, अंग्रेज अफसरों का सेना को
नागाहिल्स जाने की आज्ञा, सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए उन्हें मेडल का प्रलोभन
देकर युद्ध के लिए तैयार करना, युद्ध में मची त्राहि-त्राहि का सजीव वर्णन ही नहीं
नहीं सेना की खाद्य-पदार्थों तथा पानी की कमी से उत्पन्न त्रासद स्थितियाँ का भी
वर्णन है। नागाओं के साथ-साथ सैनिकों के मारे जाने से उनके बाल बच्चों की दयनीय स्थिति
आदि का भी सजीव वर्णन इस सवाई में किया गया है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है-
तेत्तीस कोटि देवता भद्रकाली माई ।
नमस्कार गर्दछु चरण समाई ।।
सुन सुन पाँच हो! म केहि भन्छु ।
दोस्रोपल्ट नागा हिलको लड़ाई कहन्छु ।।(श्लोक 2)
दाउरा भाला धनुका र बन्दुकका गोली ।
हान्न लाग्यो नागाहरू इष्टान खोली ।।
कुरूक्षेत्रको महाभारत जस्तो ।
चार घण्टासम्म लडाई भयो तेस्तो ।। 7
(भावार्थ- हे तैंतीस कोटि देवता, भद्रकाली माता! मैं आपके
चरणों को पकड़कर नमस्कार करता हूँ। सुनो पंचो! मैं कुछ कहना चाहता हूँ । दूसरी बार
नागाहिल्स में हुए युद्ध का हाल कहता हूँ । लकड़ी, भाला, धनुष, बन्दुक आदि अस्त्र-शस्त्रों को खोलकर नागा लोग
अंग्रेज सेना पर प्रहार करने लगे । लगातार चार घण्टे तक यह युद्ध चला । यह इतना
घमासान हुआ कि कोई मामुली युद्ध नहीं बल्कि कुरुक्षेत्र का महाभारत जैसा प्रतीत हो
रहा था ।)
6. कानीको सवाई
इस कृति के रचनाकार
रामचन्द्र शर्मा असम के निवासी थे। उनके द्वारा लिखित यह सवाई काव्य सन् 1933 में
सर्वहितैषी कम्पनी बनारस द्वारा प्रकाश में आया। यह मूलतः सुधार, संस्कार
के भाव पर आधारित है। इसमें समाज में अफीम पीने की आदत से होने वाली हानि को
दर्शाते हुए लोगों को इस दुर्व्यसन से दूर रहने का उपदेश दिया गया है । उसमें
जातीय उत्थान के लिए कार्य करने की बात भी कहीं गई है ।
1.कानी खाँदा शक्ति छिनमा हात्ति किन्ने दिन्छ । 7
2.बन्धु जनमा करजोड़ी शरणमा पर्छु ।
कानि त्यागे मित्रले आनन्दमा पर्छु ।। 8
(भावार्थ-1.अफीमची अफीम के नशे में सब कुछ गँवा देता है । वह नशे मे
पड़कर हाथी खरीदने के सपने देखता है ।
2. कवि कहता है कि मैं अपने बन्धुजनों की शरण में हाथ जोड़कर विनती
करता हूँ कि आप लोग इस व्यसन से दूर रहिए । आप लोगों के इस कार्य से मुझे असीम
शांति प्राप्त होगी ।)
उपरोक्त रचनाओं के अलावा समग्र भारतीय नेपाली साहित्य में इस काल खंड
में लिखे गए अन्य सवाई काव्यों में दिलु सिंह राई कृत पैह्रो को सवाई डाकमान राई
कृत पैह्रोको सवाई’, (1899), मनी राज शाही रचित चरीको सवाई, (1909), चेतनाथ
आचार्य कृत काशीको सवाई, धर्मसिंह चामलिङ् रचित मनलहरी (1919) सुन्दर सिंह
रचित आनन्द लहरी आदि इस दिशा की महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं ।
उपसंहार
पंचों को संबोधित करके लय में गाते हुए प्रस्तुत किए जाने वाले सवाई
काव्य भारतीय नेपाली साहित्य को पूर्वोत्तर भारत की महानतम देन है । जिस काल में
नेपाली साहित्य का केंद्र बनारस श्रृंगारिक परंपरा में डूबकर जनमानस के सुख-दुख को
नज़र अंदाज करते हुए विलसिता के रंग में डूबा हुआ था, वहीं पूर्वोत्तर भारत के
सवाईकार जनजीवन के सुख-दुख, युद्ध की विभीषिका, प्राकृतिक आपदा जैसी विषयों पर
यथार्थ अभिव्यक्ति दे रहे थे । ऐसे समय में ये रचनाकार पढ़े-लिखे पंडित न होकर
साधारण सैनिक या साधारण जनता में से थे, जिन्होंने लोकछंद, लोकभाषा और लोक शैली में युद्ध की
विभीषिका, प्राकृतिक
आपदा, तथा इनसे
प्रभावित जन-जीवन का यथार्थ चित्रण करके अपनी प्रगतिशीलता का परिचय दिया है । इनकी
भाषा भले ही जनप्रचलित नेपाली भाषा है लेकिन भाषा में चित्रात्मकता साफ दिखाई देती
है । इसकी अभिव्यक्ति के लिए इन कवियों ने जन साधारण द्वारा व्यवहार में लाई जाने
वाली सहज बोधगम्य और सपाट नेपाली भाषा को माध्यम बनाया है । भारतीय नेपाली साहित्य
इन सवाई काव्य-ग्रन्थों का ऋणि रहेगा ।
सन्दर्भ सूची :
1. मणिपुरको लड़ाईको सवाई, असमेली
कविता यात्रा, सं - नव सापकोटा, नेसाप, असम, पृ. - 91
2. देवी पंथी - भीमकान्त उपाध्याय - आँखीझ्यालबाट हेर्दा, पृ. 33, नेपाली
लेखक सहकारी समिति, सिलगढ़ी,1987
3. मणिपुरको
लड़ाईको सवाई, असमेली कविता यात्रा, सं - नव सापकोटा, नेसाप, असम, पृ.- 91
पूर्ववत - पृ. 87, 88,
89
4. अब्बर
पहाडको सवाई, असमेली कविता यात्रा, सं - नव सापकोटा, नेसाप, असम, पृ.- 91, 92, 94
5. भीमकान्त उपाध्याय -
आँखीझ्यालबाट हेर्दा, पृ. 33, नेपाली लेखक सहकारी समिति, सिलगढ़ी,1987, पृ.
85
6. पूर्ववत - पृ. 53
7. नागाहिल्सको सवाई, असमेली कविता यात्रा, सं - नव सापकोटा, नेसाप,
असम, पृ.- 84
6. भीमकान्त उपाध्याय -
आँखीझ्यालबाट हेर्दा, पृ. 33 8. पूर्ववत - पृ. 48
7. पूर्ववत - पृ. 53
अन्य सहायक संदर्भ ग्रंथ
1. भारतीय नेपाली साहित्यको विश्लेषणात्मक इतिहास - डॉ. गोमा देवी
शर्मा, गोर्खा ज्योति प्रकाशन, प्र. सं, 2018
2. नेपाली साहित्यको परिचयात्मक इतिहास - डॉ. घनश्याम नेपाल - नेपाली
साहित्य प्रचार समिति सिलगढी,1981
3. मणिपुरमा नेपाली साहित्य : एक अध्ययन - डॉ. गोमा दे.शर्मा, गोर्खा
ज्योति प्रकाशन, 2016
4. भारतीय नेपाली साहित्यको इतिहास - असीत राई, श्याम ब्रदर्श प्रकाशन, दार्जीलिङ, 2004
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