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नेपाली लोक नाट्य बालन : सन्तोष लुईंटेल


नेपाली जाति समन्वयात्मक प्रक्रिया के आधार पर गठित जाति है। इसमें ब्राम्हण, छेत्री, राई, लिम्बु, शेर्पा, तामाङ, मगर, गुरूङ, थकाली, नेवार आदि कई विभिन्न जातियों का समन्वय है। ये भारत, नेपाल, म्याँमार, थाइलैंड, चीन, इंगलैंड, अमेरिका आदि कई सारे देशों में रहते हैं। भारत के राजनैतिक, शैन्य, इतिहास, कला, खेल-कूद के साथ-साथ कई सारे क्षेत्र में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान देखने को मिलता है । भारतीय नेपाली अपनी संस्कृति और परंपरा के प्रति ही लगाव नहीं रखते बल्कि साहित्य और लोक साहित्य के विकास के लिए भी प्रयत्नरत है। अपने देश में इस जाति का विकास पूर्वोत्तर के आठों राज्य समेत पश्चिम बंगाल, उत्तरांचल, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-काश्मीर आदि पहाड़ी राज्यों में देखने को मिलता  हैं । नेपाली पहाड़ी जाति होने के कारण अधिकतर पहाडी क्षेत्रों में बसना पसंद करते हैं साथ ही इन की अधिकतर जनसंख्या पहाड़ी क्षेत्रों में रह रही है । भारत में इस का उदाहरण सिक्किम, दार्जेलिङ, असम, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश के साथ-साथ अन्य पहाडी राज्यों में भी देख सकते हैं । पहाड़ी जाति होने के कारण इन के खान-पान, रहन-सहन, कला-संस्कृति, साहित्य एवं लोक साहित्य में भी पहाड़ीपन झलकता है । इस के साथ ही नेपाली जाति में धार्मिक आस्था का प्रभाव गहरे रूप में देखने को मिलता है । सनातन इनका मूल धर्म होने के कारण इन के साहित्य और लोकसाहित्य दोनों पर इसका प्रभाव देखने को मिलता है । जब भी इन के साहित्य और लोकसाहित्य की बात आती है उस के साथ धर्म का जुडाव निश्चित रूप से दिखाई देता है । 

नेपाली लोक नाट्य सोरठी, चरित्र और लीला, रत्यौली, नचरी, घाटु, गोपिचन आदि में बालन भी प्रमुख है । यह लोक नाट्य नेपाली समाज में ब्राहम्ण-क्षत्रियों के बीच में प्रचलित है । नेपाली समाज में बालन का अपना विशेष स्थान है । धार्मिक कथानक को सामान्य लोगों द्वारा अपनी मातृभाषा में आकर्षित नृत्यभंगिमाओं के साथ प्रस्तुति के कारण इस ने नेपाली लोक जगत के हृदय में विशेष स्थान प्राप्त किया है । मानव जीवन में सुख-दुःख के पल आते रहते हैं । इन दोनों ही परिस्थितियों में मनुष्य ईश्वर को याद करता है । सम्पन्नता के समय धन का सार्थक प्रयोग के लिए धार्मिक अनुष्ठनों का आयोजन करता है तो दुःख की घड़ी में ईश्वर से मदद की प्रार्थना भी करता है, साथ ही अपनी मनोकामना पूरा होने पर ईश्वर को कुछ न कुछ अर्पण करने का पूर्वसंकल्प भी करता है । इन सभी परिस्थितियों में बालन का असंदिग्ध महत्व रहा है, जिसके चलते इसने लोक में अपना विशेष स्थान प्राप्त किया है। पुत्र या संतान प्राप्ति की इच्छा प्रत्येक दम्पति के मन में होती है ।मान्यता के अनुसार जब दम्पति निःसन्तान होते हैं या पुत्र प्राप्ति की लालसा को पूरी नहीं कर पाते, उस समय भी बालन से उन की मनोकामना पूरी हुई है जिससे बालन को लोकविश्वास की जीत हासिल करना और भी सहज हुआ है ।

बालन पुरुष प्रधान लोक नाट्य है । बालन को बालून भी कहा जाता है । मान्यता है कि बालन का आरम्भ श्री राम के पुत्र लव-कुश ने की थी । सीता के वनवास के दैरान लव और कुश का जन्म वन में ही हुआ और उन्होंने बाल्यावस्था में ही गुरु महर्षि वाल्मिकी से शिक्षा पाकर अपने पिता मर्यादा पुरुषोत्तम राम के दरवार में बालन (बालुन) प्रस्तुत किया था । अब यहाँ वाल्मिकी द्वारा सिखाए गए कला को बाल लव-कुश द्वारा प्रस्तुत किए जाने के कारण इस कला का नाम बालन होने की मान्यता भी है । 

बालन में धार्मिक प्रसंगो की कथाएँ मिलती हैं । इस में पहले रामायण की कथाएँ होती थीं बाद में कृष्ण चरित्, महाभारत तथा माता दुर्गा की कथाएँ भी आने लगीं । नेपाली भाषा में बालन की प्रस्तुति ग्यारहवीं शताब्दी से मानी जाती है ।कहा जाता है कि इससे पहले इसकी भाषा संस्कृत होती थी । नेपाली संस्कृति सुधा पुस्तक में बालुनः नेपाली लोकनाट्य रचना के लेखक श्री पूर्ण कुमार शर्मा उद्धृत करते हैं कि लोक साहित्य गवेषक डॉ. खेमराज नेपालजी द्वारा अपनी पुस्तक नेपाली लोक साहित्यको रूपरेखा में उल्लेख किया है कि लगभग ई. सन् 1653 में रामचन्द्र विप्र द्वारा संकलित बालन संग्रह अभी तक प्राप्त संग्रहों में से सबसे प्राचीनतम बालन संग्रह है । हो सकता है कि रामचन्द्र विप्र द्वारा संकलित बालन के श्लोक सबसे पुराना संकलन हो परन्तु नेपाली समाज में इस नाट्य का प्रचलन उससे भी पहले से होने की बातें पण्डितों से सुनने को मिलती है ।

भगवान श्री राम के कथानक को लेकर बनाए गए बालन को राम-भरत बालन तथा माता सीता के जीवन प्रसंगों को आधार मानकर बनाए गए बालन को राम-सीताबालन कहा जाता है । यह लोक नाट्य विशेष पर्वों व उत्सवों, पारिवारिक सुख-दुख, विविध मनोकामना पूर्ति, विशेष हर्ष तथा खुशहाली के अवसर पर तथा संतान प्राप्ति की कामना को पूरा करने के उद्देश्य से आयोजित किया जाता है ।

इस के सभी पात्र पुरुष होते है जो सफ़ेद नेपाली सांस्कृतिक पोशाक दौरा-सुरूवाल पहने होते हैं । यह गुरु परंपरा पर आधारित लोक नाट्य है जिसमें गुरु अपने शिष्यों को स्वरचित बालन कथा को गेय शैली में और नृत्य भंगिमाएँ भी सिखाता है । नाटिका के अनुसार गुरुको ओझा /भट्याउने / दलपति आदि नाम से जाना जाता है जो नाटक का सूत्रधार होता है । संपूर्ण प्रस्तुति गुरु के निर्देश पर ही निर्भर रहता है । यह नाट्य रात में प्रस्तुत किया जाता है ।

काङपोक्पी जिले के अन्तर्गत मोत्बुङ निवासी बालन प्रस्तुतकर्ता श्री खड्ग बहादुर चापागाईं कहते हैं कि मणिपुर में अभी तक प्रस्तुत बालनों में से कुछ को छोड़कर अधिकतर बालन पुत्र प्राप्ति की कामना से प्रस्तुत हुए हैं । जिस दम्पति की कोई संतान नहीं होती वे अपनी कामना पूर्ती के उद्देश्य से बालन का आयोजन करते हैं। आयोजक द्वारा ज्योतिषी से परामर्श लेकर एक निश्चित दिन तय किया जाता है और दलपति को उसके मण्डली के साथ नाट्य प्रस्तुति के लिए निमन्त्रत किया जाता है। नाट्य प्रस्तुति के लिए कोई निश्चित मंच नहीं होता। यह घर के आंगन पर ही प्रस्तुत किया जाता है। किन्तु ठंड, शीत/बारिस से बचने के लिए पूरे आँगन में शामियाना लगाया जाता है। आयोजक को ही निश्चित दिन पर अपने घर के आंगन को गाय के गोबर से पूरी तरह से लीप-पोत करके नाट्य प्रस्तुति के लिए शुद्ध स्थान तैयार करना होता है ।

बालन प्रस्तुति के लिए मुख्य रूप से एक बडे महाबत्ती तथा स्वर्ण मोठ/मोठ की आवश्यकता होती है । महाबत्ती एक बडे ताम्बे का दिया भी हो सकता है या एक बडे मेवे को काटकर उस में तेल और रूई के घागे के प्रयोग से भी बनाया जाता है । स्वर्ण मोठ/मोठ एक साथ कई प्रकार के फूलों को तने सहित बाँधकर गुलदस्ते की तरह बनाया जाता है औऱ उसे बाँस या लकड़ी को पाँच स्तम्भों के सहारे खडा रख दिया जाता है । इस तरह महाबत्ती और मोठ को आँगन के बीचों बीच स्थापित किया जाता है जो बालन के कर्मसाक्षी की तरह होते हैं ।

सूरज के ढलते-ढलते नाट्य मण्डली निमन्त्रित स्थान पर पहुँच कर शाम से ही लोक नाट्य प्रस्तुत करने लगती है । इस में सारे दर्शक आँगन के चारों ओर से प्रस्तुति को देखते हैं । यह प्रस्तुति रात भर चलती है । इस दौरान संतान की कामना करने वाले दम्पति महाबत्ती और मोठ के सम्मुख बैठकर रात- भर नाटकीय भंगिमाओं का साथ की गई प्रस्तुति को देखते हुए गेय रूपी कथा को सुनकर आनंद लेते हैं । कहीं – कहीं मोठ के स्थान पर एक पतली बाँस को भी प्रयोग में लाने का प्रचलन है जिसकी शिखरों की पत्तियों को रखकर अन्य सभी पत्ते छील दिए जाते हैं और शिखर में लाल, पीला, सफेद आदि ध्वजा बाँधकर तैयार किया जाता है । 

लोक नाट्य की प्रस्तुति से पहले सारे प्रस्तुतकर्ता आँगन में मण्डलाकार होकर पद्मासन में बैठते हैं और गणपति सहित श्री राम तथा अन्य देवी-देवताओं की स्तुति करते हैं, जो आरती की तरह ही होती है । जिसका एक नेपाली नमूना निम्न है –

प्रथममा आरती राम-राम गणेश ।

ज्यूकी पूजा अरू नाहीं दूजा ।

आरती को जय राजा राम ज्यूको जय ।।1।।

जय हरहर भक्त गरौं प्रभु दर्शन दीजै ।

संजे मा आरती ज्यूको जय  ।।

दोसरो आरती राम-राम

देवर ज्यूको नन्दन अरू नाहीं खन्दन ।

आरतीको जय राजा राम ज्यूको जय ।।2।।

जय हरहर भक्त गरौं प्रभु दर्शन दीजै ।

संजे मा आरती ज्यूको जय  ।।

यहाँ मणिपुर के स्थानीय देवता कौब्रु बाबा, गोविन्द बाबा आदि विविध देवताओं से भी रक्षा की कामना करते हुए लिखते है –

ए सिद्ध मणिपुर गोविन्द बाबा ।

डाँग्रे बाबा कपूर बाबा

सिद्धि बाबा, बुद्धि बाबा, बलिया बाबा

तमु रक्षा गरे हाम्रो रक्षा होला

हामी खेल्छौं, पैली पीउ सारी ।

नारदगंगा माई, इराङ्ग माई, तपन माई

तमु रक्षा गरे हाम्रो रक्षा होला

हामी खेल्छौं, पैली पीउ सारी ।

इस तरह प्रारम्भिक पुष्पाँजलि समाप्त हो जाने के बाद कर्ता द्वारा सभी बालन प्रस्तुत करने वालों का स्वागत नेपाली परम्परा के अनुसार दहि, चावल और लाल रंग मिश्रित लाल अक्षत से टिका लगाकर और पुष्पमाला पहनाकर किया जाता है ।

इस के बाद बालन अपना रफ्तार पकड़ती है । दलपति किसी निश्चित स्थान पर बैठकर एक –एक श्लोक बोलना आरंभ करता है । यह प्रस्तुति रात भर करना होता है जिसमें प्रस्तुतकर्ता अपने आप को शारीरिक थकान से बचाने तथा स्फूर्ति बनाए रखने के लिए दो भागो में विभक्त हो जाते हैं जो 4,6 या 8 आदि समसंख्या में होते हैं और दलपति द्वारा उच्चारित श्लोक को बारी-बारी से स्वीकार करते हुए/दोहराते हुए नृत्य भंगिमाओं के साथ बालन की प्रस्तुति करते हैं। प्रस्तुति के दौरान शुद्ध उच्चारण और प्रस्तुतकर्ता द्वारा महाबत्ती को अपना पीठ न दिखाना ये दो नियम प्रस्तुतकर्ता का धर्म होता है। बालन की भाषा में श्लोक दोहोराने को (शिलोक स्वीकार गर्नु) श्लोक स्वीकार करना कहा जाता है ।

बालन में सबसे पहले सभी देवी देवताओं का स्मरण किया जाता हैं । मणिपुर के काङ्पोक्पी जिले के अन्तर्गत इराङ्ग पार्ट – 2, हरूप, खोपी निवासी भवानीशंकर गौतम द्वारा रचित नाट्य कथानक निम्न है, जिस में वे इश्वर से अपनी रक्षा की प्रार्थना करते हुए बालन आरम्भ कर रहे हैं ।

ओर की उजारौं पर की उजारौं ।

दण्डवत सेवा लगाउँ हो .....।।

दाईनेब्रत प्रदक्षिणा करू छैया हो ।

हामु रक्षे तमु शरणे हो-हो-हो ।।

ओरकी जुवारौं परकी जुवारौं ।

दण्डवत सेवा लगाउँ हो .....।।

इस के बाद महाबत्ती का प्रज्वलन सन्तान की कामना करने वाले दम्पति द्वारा कराते हुए निम्न श्लोक उच्चारित किया जाता है । तथा अन्त में उस का बिसर्जन उन्हीं के द्वारा ही करवाया जाता है, किसी तीसरे द्वारा छूना वर्जित है।

चन्द्रवर्णै देवी सिंह स्वरूपकी दृपैमातु हो ।

जगमग चौदिशा ज्योति उज्यालो हो ।।

इस तरह भवानीशंकर जी अपने कथानक में राम – रावण के पूर्वावतारों की कथाओं को जोड़ते हैं तथा त्रेता युग में राम-रावण के आवतार का वर्णन करते हुए रामायण के कथानक में राम सहित उनके भाइयों के जन्म को निम्न रूप से वर्णन करते हैं –

पाएसको बुटि दशरथले दिई, रानीलाई ख्वाउनु भनी ।

राजाले बुटि रानीलाई दिए, बाँडेर खाओ भनी ।

कौशल्या-कैकेयी पाएस बाँडे, त्यही बेला सुमित्रा आइन् ।

आधा-आधा गरि सुमित्रालाई दिए, सोहि बुटि सबैले खाए ।

ऋषिको वचन पुरैर भयो, तिनै रानी असोग्य भए ।

मास पुरा पुगी बेलै र आयो, आइपुग्यो जन्मको दिन ।

चैतैर महिनाको नवमा तिथी, कौशल्याको बाल जन्मे हो ।

चतुर्भुज स्वरूप बालक देखी, हाथ जोडि स्तुति गरिन् ।

यो ब्रम्ह संसारमा भाग्यैरछु, भगवान प्रकट भए ।

म उपर दया गर भगवान, के कसो गरूँ मैले ।

भक्त उपर दया रैछ हजुरको, हे नाथ शरणमा परें ।

यहीरूप हजुरको झल्कियोस मनमहाँ, सदा पुकार गर्छु ।

यस्तो विश्वस्वरूप लुकाइकन, बालक सरीका बनी ।

दर्शन देउ मलाई हेर्छु भगवान, बालक लीला पनि ।

यो बिनती सुनी बील रूपी भगवान, बोलन लागे हो तहाँ ।

दुबै स्त्री – पुरूषभई तपस्या गरेउ, तिमीजस्ता पुरूष हुन भनी ।

 सोहि र तपस्या मनैमा राखी, औतार लिएर आएँ ।

मनुष्य औतार लिएर मैले, भूभार हर्ने छु अहिले ।

एतिबात प्रभुका भएर त्यहाँ, बालक रूपी भएर रून थाले ।

बालक जन्मेको हल्लार भयो, दशरथ पुगे हो ताहाँ ।

इस तरह कथानक में पूरी रामायण की कहानी को विस्तृत रूप में प्रस्तुत किया जाता है । कथानक के अन्तिम पडाव में राम द्वारा रामण का वध, जानकी सहित राम का अयोध्या लौटना, सीता का वनवास, राम का अश्वमेध यज्ञ, लव-कुश के साथ भरत और हनुमान का युद्ध, राम का बैकुण्ठ गमन आदि सम्पूर्ण कहानी विस्तार से सुनाई जाती है ।

जब रावण द्वारा हरण सीता की खोज का प्रसंग आता है उस वक्त हनुमान जागरण ( हनुमान जगाउनु) किया जाता है । उस वक्त वहाँ पर भजन का कार्यक्रम जोर-शोर से होता है । जब भजन चरम पर होता है उस वक्त वहाँ उपस्थित पुरुषों में से किसी एक पुरुष का शरीर कम्पन करने लगता है और उस में शक्ति का संचार होता है तब वह हनुमान की तरह ही उछल-कूद करता है, पेड़ की शाखाओं में बंदर की तरह आसानी से चढ़ता है साथ ही ऐसे काम करता है जो सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता । उस वक्त हनुमान के अनेक गुण उसमें दिखाई देने लगते हैं ।  हनुमान जागरण से बालन और आकर्षित हो जाता है । दर्शक भी उस के कारनामों को देखकर अति उत्साहित हो जाते हैं ।

उसे सीता को खोज कर लाने का आदेश देने पर वह दर्शकों में से किसी बच्ची या स्री को उठा लाता है साथ ही घर के छतों और पेड़ो पर उछलता भी पाया जाता है । फिर कथानक के प्रसंग में उस के द्वारा लाई गई बच्ची या स्त्री को सीता का छाया रूप कहने पर वह उस बच्ची या स्त्री को जहाँ से लेकर आया था उसी स्थान पर छोड आता है । जानकार बताते हैं कि जब कथानक के मुताबिक हनुमान का प्रसंग समाप्त हो जाता है तब मंत्रों के सहारे हनुमान बने व्यक्ति के कम्पन को रोक दिया जाता है । हनुमान को जगाना अत्यंत कठिन होता है । भजन और बालन दोनों का लय ठीक रहने पर ही यह प्रसंग सही ठंग से सफल हो सकता है । हनुमान जगाने के लिए निपुण व्यक्ति का होना आवश्यक होता है इस के अलावा काई भी पुरोहित/पण्डित इस काम को सफल नहीं करा सकता ।

दूसरे दिन सुबह प्रस्तुत कर्ता द्वारा शुभाशीष देने से पहले दम्पति को स्नान करना तथा घर के देवी-देवताओं की पूजा करना आवश्यक होता है । इस दौरान कुछ समय के लिए बालन रोक दिया जाता है । जब दम्पती स्नानादि करके तैयार होते हैं तब उन्हें महाबत्ती के समीप विशेष आसन पर रखा जाता है और प्रस्तुतकर्ता  द्वारा दम्पति को गेय शैली में ही ईश्वर से घर में सम्पन्नता आने, सन्तान की लालसा को पूरा करने, घर में उन्नति के लिए शक्ति देने तथा ज्ञान प्रदान करने जैसे अनेक प्रकार के आशीष प्रदान करते हैं। बालन प्रस्तुति समाप्त होने के साथ- साथ प्रत्येक प्रस्तुतकर्ता द्वारा दम्पति को अक्षत का टीका लगाकर आशीर्वाद देते हुए अपने गले की पुष्पमाला उन्हें पहना देते है । फिर प्रस्तुतकर्ता द्वारा उन दम्पति को आसन सहित उठाकर उन्हें घर के अन्दर प्रवेश कराया जाता है । दम्पति कुछ देर घर के अन्दर ही रहते हैं और फिर बाहर निकलकर विसर्जन का कार्यक्रम आरम्भ होता है ।

विसर्जन का कार्यक्रम नदी किनारे सम्पन्न होता है । इस में दम्पति में से स्त्री महाबत्ती को उठाकर सिर पर रखती है और आगे-आगे नदी की ओर चलती है तथा अन्य सभी प्रस्तुतकर्ता तथा अन्य लोग पूजा में प्रयोग की गयी सभी सामग्री उठाकर उसके पीछे - पीछे चलते हैं। नदी तट पर पहुँचकर महाबत्ती को एक जगह पर स्थापित किया जाता है और गोबर का एक कुण्ड बनाया जाता है जिसे महाबत्ती के समीप रखकर दम्पत्ति द्वारा उस में दुध या दही से सूर्यार्घ्य दिया जाता है । इस के बाद घर वापस आकर प्रस्तुत कर्ता मण्डली को दक्षिणा सहित भोजन कराया जाता है और उन्हें विदा कर दिया जाता है ।

बालन को आध्यात्मवाद तथा नेपाली समाज के बीच धार्मिक आस्था को बनाए रखने वाला एक सफल लोक नाट्य माना जाता है। आदि काल से ही लोक में इस की आस्था प्रगाड़ रूप में थी यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा । साथ ही खड्ग बहादुर चापागाईं के अनुसार उन्होंने जितने बुलावे पर बालन प्रस्तुत किया उनके घर में पुत्र प्राप्ति हुई, इससे बालन के प्रति और भी विश्वास बढ़ना स्वाभाविक दिखता है । वर्तमान युग में बालन की प्रस्तुति बहुत ही कम देखने को मिलता है । आज सभी लोग तकनीकि और औद्योगिकी से जुड़ रहे हैं । इस में बालन जैसे कई सारे लोक नाट्यों के लिए प्रस्तुतकर्ता का मिलना भी मुश्किल हो रहा है । शहर तो शहर हो गया गावों में भी लोग अपने लोक नाट्यों के बारे में भूलते जा रहे हैं ।  शहरों का विकास और दूरदराज के गाँव के युवाओं का शहर की ओर आकर्षण एवं पलायन से लोक नाट्यों को जिन्दा रखना कहाँ तक संभव होगा कहना मुश्किल हो रहा है । तकनीकि दुनियाँ के कारण आज सभी चीजें व्यवसायिक हो रही हैं इससे सामान्य लोगों के घरों में इस प्रकार सरल और सहज तरीके से लोक नाट्य प्रस्तुत हो पाएगा या नही इस प्रकार की चिन्ता का होना भी आम है । आज के इलेक्ट्रोनिक गजटों के बीट व्यक्तिगत स्तर पर तथा सामाजिक संस्थाओं द्वारा ही नहीं सरकारी स्तर पर भी इस प्रकार की लोक संस्कृति को बचाए रखने के लिए अनेक प्रयास की आवश्यकता और दिखाई देती है।  

सन्दर्भ ग्रन्थ –

नेपाली संस्कृति सुधा  प्रकाशक - गोर्खा उन्नयन परिसद, असम

बुँदाः भाषा – नृशास्त्र – संस्कृति, मित्रदेव शर्मा, असम

सन्तोष लुईंटेल ने इस लेख को कंगला पत्रिका के लिए लिखा था
लेखक से santoshghy@gmail.com या पर संपर्क किया जा सकता है
8131944774, 8837343797

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