हिंदी साहित्य में ‘हालावाद’ की प्रासंगिकता
हिंदी की हालावाद काव्य-परंपरा पर फ़ारसी साहित्य का प्रभाव पड़ा हैI फ़ारसी के विश्व प्रसिद्ध कवि उमरखैय्याम की रुबाइयों को हिंदी की हालावादी काव्य धारा का आधार माना जाता हैI फिट्जरल्ड ने उनकी रुबाइयों का अनुवाद अंग्रेजी में किया हैI हरिवंश राय बच्चन जी ने इसी अनुवाद के आधार पर ‘खैय्याम की मधुशाला’ शीर्षक से इसका हिंदी में अनुवाद किया। साथ ही उन्होंने स्वतंत्र रूप से अपनी ‘मधुशाला’ काव्य ग्रंथकी भी रचना की।
हालावादी कवि जीवन की कठिनाइयों से मधुपान कर मुक्ति की क्षणभंगुरता में विश्वास करते हैं और उसे आनंद और मस्ती से व्यतीत करना चाहते हैंI इस नवीन काव्य धारा को वैयक्तिक कविता या हालावाद या नव्य स्वच्छंदतावाद या उन्मुक्त प्रेम काव्य या प्रेम व मस्ती के काव्य आदि उपनामों से अभिहित किया जाता हैI डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उत्तर छायावाद को छायावाद का दूसरा उन्मेष कहा हैI
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उत्तर छायावाद/छायावादोत्तर काव्य को ‘स्वच्छंद काव्य धारा’ कहा हैंI
डॉक्टर नगेन्द्र ने
छायावाद के बाद और प्रगतिवाद के पूर्व की कविता को ‘वैयक्तिक कविता कहा हैI उनके
अनुसार ‘वैयक्तिक कविता ‘छायावाद की अनुजा और प्रगतिवाद की अग्रजा है जिसने
प्रगतिवाद के लिए मार्ग प्रशस्त किया I डॉक्टर रामदरस मिश्र के अनुसार ‘वैयक्तिवादी’
कविता का प्रमुख स्वर निराशा का है, अवसाद का है, थकान का है, टूटन का है, चाहे किसी भी
परिप्रेक्ष्य में होI
डॉ.हेतु भारद्वाज ने
हालावादी काव्य को ‘क्षयी रोमांस और कुंठा का काव्य` कहा हैंI हरिवंश राय बच्चन
जी ने हालावाद को ‘प्रगति प्रयोग का पूर्वाभास कहा हैI
सुमित्रानंदन पन्त
ने कहा है कि मधुशाला की मादकता अक्षय हैI उन्होंने आगे कहा है कि मधुशाला के चार
प्रतीकों के माध्यम से कवि ने अनेक क्रांतिकारी, मर्मस्पर्शी, रागात्मक एवं
रहस्यपूर्ण भावों को वाणी दी हैI
हजारी प्रसाद
द्विवेदी ने हालावादी काव्य को ‘मस्ती, उमंग और उल्लास की कविता’ कहा हैI
हिंदी साहित्य में
हालावाद का प्रारंभ हरिवंशराय बच्चन जी की ‘मधुशाला’ से माना जाता है और हालावाद नामकरण करने का
श्रेय रामेश्वर शुक्ल को प्राप्त हैI हालावाद का समय सन् १९३३ ईं. से १९३६ ईं तक माना
जाता है।
इस धारा के कवि दुनिया
को भूलकर स्वयं अपने प्रेम–संसार की प्रेमपूर्ण मस्ती में डूबते हुए दिखाई देते
हैंI संसार के सारे दुःख, सारी निराशा और सारी कठिनाइयाँ हालावाद की इसी
मस्ती में डूब गईI प्रेम की दुनिया में तिरोहित हो गएI प्रेम को सर्वस्व मानना हालावादी
कविता का मूल सिद्धांत बनकर सामने आयाI इस धारा की कविताओं को लोग आत्यधिक पसंद
करने लगेI हालावादी कवियों में प्रमुख हैं–हरिवंश राय बच्चन, भगवतीचरण वर्मा,
पंडित नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल आदिI
हरिवंश राय बच्चन की
‘मधुशाला’ हालावाद की
उत्कृष्ट रचना मानी जाती हैI यह जितनी लोकप्रिय हुई उतनी किसी अन्य कवि की काव्य
रचना नहीं हुईI रुढ़िवादियों ने ‘मधुशाला’ का विरोध तो किया परन्तु उन लोगों ने उस
रचना को अमरता प्रदान कर दी, जो मस्ती के दीवाने थेI
बच्चन जी ने
‘मधुशाला’ के संबोधन में मादक तत्व को संबोधित करते हुए लिखा है– ‘आज मदिरा लाया
हूँ। मदिरा जिसे पीकर भविष्य के भय भाग जाते हैं। भूतकाल के दारुण दुःख दूर हो
जाते हैं। जिसे पाकर मान –अपमान का ध्यान नहीं रह जाता और गर्व लुप्त हो जाता है, जिसे
ढालकर मानव अपने जीवन की व्यथा, पीड़ा और कठिनता को कुछ नहीं समझता और जिसे चखकर
मनुष्य श्रम, संकट, संताप सभी को भूल जाता हैI यह मेरे ह्रदय की मदिरा हैI मत समझ
तू अकेले जलता हैI तू जलता है पर प्रभाव मुझ पर पड़ता हैं .....I’
यह सच है कि बच्चन जी की ‘मधुशाला’ तब तक
अमर रहेगी जब तक लोग प्रेम और मस्ती के दीवाने बने रहेंगेI इसका अस्तित्व कभी
समाप्त नहीं होगा; जैसा कि स्वयं बच्चन ने कहा हैं :
“कभी न कण खाली होगा लाख पिए,
दो लाख पाठक गण हैं
पीने वाले पुस्तक मेरी मधुशाला!”
‘मधुशाला’ वास्तव में एक रहस्यमयी गुफा के
समान है जिसे पढ़ने पर उसमें तमाम द्वार स्वयं ही खुल जाते हैं और हर द्वार पर एक
नई मस्ती से भरी ‘मधुशाला’ का एहसास होता हैI यह रचना अपने समय में जितनी लोकप्रिय
थी, आज के पाठकों के लिए भी उतनी ही प्रिय हैI बच्चन जी की मुख्य रचनाएँ ‘मधुशाला,
‘मधुकलश’, ‘निशा निमंत्रण’, ‘एकांत संगीत’, ‘आकुल अंतर’ आदि हैं, जो अपने अन्दर गहन पीड़ा और
दार्शनिकता समेटे हैंI
हालावाद के दूसरे
महत्वपूर्ण कवि भगवतीचरण वर्मा जी हैंI उन्होंने भी बच्चन जी की भाँति छायावादी
रहस्यात्मकता का परित्याग किया तथा प्रेम, मस्ती और उल्लास भरे गीत पाठकों के
सामने प्रस्तुत किएI उनके गीतों में किसी प्रकार की कृत्रिमता एवं नैतिकता का बंधन
नहीं हैं -
“हम दीवानों की क्या हस्ती,
मस्ती का आलम साथ चला”
‘मधुकरण’ और ‘प्रेम-संगीत’ में देखने योग्य हैं, किन्तु उनकी रचना ‘मानव’ में मस्ती और खुमार ज़रा भी नजर नहीं आता बल्कि उसका स्थान शोषित वर्ग के प्रति उपजी सहानुभूति और करुणा ने ले लिया I हालावाद का नशा बिखेरने वाले तीसरे कवि नरेन्द्र शर्मा हैंI उनकी प्रारंभिक रचनाओं में प्रेम की व्याकुल अभिव्यक्ति हुई हैंI वे कहीं–कहीं पर वासनात्मक भी हो गई हैं, जिसे हालावाद का अतिक्रमण कहा जा सकता हैंI उन्हें आधुनिक युग का निराशावाद अच्छा नहीं लगा और वे यर्थाथवादी गीतों की रचना में अधिक रमे पर प्रधानता प्रेम गीतों की ही हैंI उन्होंने अपने-आप को मानवीय दुर्बलताओं का कवि कहा हैंI ‘फूल–फूल’ और ‘कर्णफूल’ उनकी प्रारम्भिक रचनाएँ हैंI
हालावाद का हाला का प्याला पकड़ा देने वाले इन कवियों ने दीवानगी और मस्ती से भरपूर जिन्दगी जीने का जो पैगाम अपनी कविताओं के द्वारा जन–जन तक पहुँचाया है, वह दुःख विषाद तथा निराशा को भूलने की अचूक औषध रही हैI
प्रेम और मस्ती से भरपूर ये गीत पाठकों के
मन में गहरे पैठ गए तथा आज भी जो उन्हें पढ़ता है, वह प्रेम और मस्ती से भर जाता
हैI वस्तुत: हिंदी साहित्य में ‘हालावाद’ की प्रासंगिकता जितनी अपने समय में थी अब
भी उतनी ही है और उसकी यह भावुक दुनिया स्वयं में जीवन का एक पहलू हैI
‘हालावाद’ विकास की एक कड़ी के रूप में हिंदी
साहित्य का एक खास अंग आज बन गया और यह अंग आज भी उपस्थित है, भले ही इसकी मात्रा
अब कम हो गई है और एक खास समय के बाद मस्ती और प्रेम का रुपांतरण यथार्थ जगत की
करुणा और सहानुभूति में हो जाती हैI
हालावाद की प्रासंगिकता जीवन के एक अंग के
रूप में हिंदी साहित्य में आज भी बनी हुई हैI अतः इसे पूरा जीवन भले ही न माना जा
सके पर इसे जीवन का एक मस्ती भरा पहलु जरुर माना जा सकता हैI यह प्रेम और मस्ती आज
भी हिंदी साहित्य में बनी हुई हैI केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, सर्वेश्वर दयाल
सक्सेना आदि ने उस दौर के बाद भी इसमें डूबकर कुछ कविताएँ की हैंI अत्याधुनिक काल
के नए कवि भी आरम्भ में ऐसी कविताएँ करते हैं I
समकालीन काव्य–साहित्य में ‘हालावाद’ अर्थात
प्रेम में रंगी और दार्शनिकता से ढँकी–दबी कविताएँ प्राप्त होती हैं। अज्ञेय, नागार्जुन
और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कुछ कविताओं में प्रेम कहीं–कहीं वियोग की स्थिति
में है और कहीं-कहीं मिलानावस्था में प्रेम का नशा सिर चढ़कर बोलता दिखाई देता हैI
अज्ञेय की निम्न पंक्तियों में वासनात्मक पहलु
तो है ही, असफल प्रेम की कुंठा भी है–
“वासना के पैक – सी फ़ैली हुई
थी .............I
तोड़ दूंगा मैं तुम्हारा आज यह अभिमान II”
अज्ञेय ने प्रकृति–चित्रण द्वारा भी अपने काव्य में प्रेम भावनाएँ व्यक्त किए हैं
–
“खग युगल! करो संपन्न
प्रणयI
क्षण के जीवन में हो तन्मय !!”
नारी–शरीर की कोमलता और सौंदर्य को उन्होंने नए उपमानों से स्पष्ट किया है –
“अगर मैं यह कहूँ
बिछली घास हो तुम
लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की I”
इसी क्रम में नागार्जुन भी कुछ पंक्तियाँ लिखते हैं -
“तुम नहीं हो पास मैं तो तरसता हूँ
प्यार के दो बोल सुनने के लिएI
एक के ही दस अंगुलियाँ नहीं काफी
कदाचित रेशमी परितृप्तियों का जाल बुनने के लिए II”
हिंदी साहित्य में हालावाद की प्रासंगिकता
आज भी बरक़रार हैI बच्चन, भगवतीचरण वर्मा, नरेन्द्र शर्मा आदि ने जो धारा प्रवाहित
की, वह आज अनेक रूपों में भी सतत प्रवाहित हैI आधुनिक कवियों में केदारनाथ अग्रवाल
के काव्य में भी यह प्रेम रस भरपूर मात्रा में मिल जाता हैI वे यथार्थ के धरातल पर
खड़े होकर भी प्रेम की दुनिया में डूबते नजर आते हैंI अग्रवाल जी की एक कविता है, जहाँ
प्रेम का उन्मुक्त रूप और अमरता दोनों देखने को मिलते हैं -
“हम न रहेंगे तब भी रति रंग रहेंगे
लाल कमल के साथ पुलकते मृग रहेंगे मधु के दानी,
मोड़
मनाते, भूतकाल के रससिक्त बनाने,
लाल चुनरिया में लहराते अंग रहेंगे।’’
हिंदी साहित्य में प्रेम के मस्ती से भरे
गीत की प्रासंगिकता कभी समाप्त होने की संभावना दिखाई नहीं पड़ती हैं क्योंकि यह सिलसिला
आज भी जारी है, जिसमें मनुष्य प्रेम के गीत गाना चाहता है, उन्हें अमर कर देना
चाहता हैI यथार्थ जीवन की निराशा, दुःख और कठिनाइयों को ‘हालावाद’ की मस्ती में
डूबो देना चाहता है।
--------------------------------------------------------------------------------------------------------
सन्दर्भ :
1. ब्रिजबाला सूरी-शोध प्रबंध, हरिवंश राय बच्चन के काव्य का हालावाद के
परिप्रेक्ष्य में विश्लेषणात्मक अध्ययन
2. आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास - हरिवंश राय बच्चन, प्रकाशन वर्ष –२०२३
3. आधुनिक काव्य विविधा - (एम् .एच. डी. -२ IGNOU), प्रकाशन वर्ष जुलाई-२०१६
4. आधुनिक काव्य
संग्रह (केंद्रीय हिंदी संसथान आगरा)
5. प्रतियोगिता साहित्य (हिंदी ) नेट / जे.आर.एफ – एग्जाम गाइड पेपर -२ पेपर–३
----------------------------------------------------------------------


कोई टिप्पणी नहीं