मैत्रेयी पुष्पा से खुराइजम बेबीरोशिनी की बातचीत
मैत्रेयी पुष्पा हिंदी की ऐसी सुविख्यात लेखिका हैं, जो किसी परिचय की मोहताज़ नहीं हैं। उनकी विभिन्न औपन्यासिक रचनाओँ ने हिंदी जगत के आन्दोलित ही नहीं किया बल्कि उनके पात्र लम्बे समय तक चर्चा के केन्द्र में भी रहे हैं। मैं उनके उपन्यासों को पढ़ती रही हूँ। मुझे भी उनके उपन्यासों के पात्रों ने काफी प्रभावित किया है, इसलिए शोध विषय के रूप में मैंने उनके उपन्यासों को चुना। मैं बहुत समय से उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलना चाहती थी। मेरी यह इच्छा दिनांक 15 जून 2023 ई. को पूरी हुई। नई दिल्ली स्थित उनके आवास पर उनसे बातचीत का अवसर मिला। बातचीत के क्रम में ही उनके जीवन चरित्र व साहित्य की रचना प्रक्रिया के बारे में विविध प्रश्नोत्तर हुए, जिनका विवरण इस प्रकार है -
शोधार्थी : आपको सहित्य लेखन के प्रति रुझान
कैसे हुआ?
लेखिका : हर आदमी की अपनी एक रूचि होती है। किसी की खेल में, किसी लड़की की सिलाई – बुनाई में, संगीत में, गीत में, नृत्य में, होती है
ना।ऐसे ही मेरी थोड़ी रुचि लिखने - पढ़ने की तरफ थी। ये नहीं कि मैं बड़ी हो गई थी, तब मैं तीसरी क्लास में थी। उस समय मैं लिखती तो नहीं थी लेकिन मुझे जो
कविताएँ होती है ना, बच्चों की, बहुत
अच्छी लगती थीं । थोड़ी और बड़ी होने पर सुभद्राकुमारी चौहान की बाल-कविताएँ रट ली
थी। वो कविताएँ मुझे समझ में नहीं आतीं थीं, फिर भी उनको ज्यादा पढ़ती थी। खैर ऐसा
करते–करते जब मैं ग्यारहवीं - बारहवीं कक्षा में आ गई, तो मैंने चिट्ठी लिखना
प्रारंभ किया, चिट्ठी लिखने की कोशिश तो मैंने नौवीं-दसवीं कक्षा
में भी की थी, जैसे; बच्चे कर लेते
हैं। मेरा कोई सगा भाई नहीं था, जो गाँव के लड़के थे ना, उनको भाई बनाकर राखी बाँधती थी। तो मैं उनको एक कविता लिख कर देती थी।
अपनी नहीं दूसरे की, सुभद्रा कुमारी चौहान की, “भैया कृष्ण भेजती हूँ मैं राखी”। वो अब कहते है,
जब तू राखी बाँधती थी, तू कविता लिखके देती थी, जो हमारी सम्पत्ति थी। मैं कहती थी कविता, क्यों
लिखती हूँ? तो वे कहते –हमें अब लगता है, हाँ कुछ था। खैर जब स्नातक कोर्स में पढ़ने लगी तो मैंने विज्ञान नहीं लिया।
मैंने कला शास्त्र लिया, जिसमें मैंने इतिहास और फिलॉसोफी की
पढ़ाई की, फिर भी मेरी रुचि हिंदी और संस्कृत में रही। उसमें
भी खासतौर पर हिंदी विषय पर मेरी विशेष रुचि थी, संस्कृत में
तो थी, मगर मैं उसका प्रयोग नहीं कर सकती थी। एक बात और बताऊँ मैं तुम्हें, तुम हँसोगी– मुझे चिट्ठी लिखने का इतना शौक था, कि मैं जब आठवीं क्लास
में पढ़ती थी, तब मैं बारह साल की हो गई होंगी। उन दिनों
हमारे गाँव की चकबंदी करने के लिए एक नायब तहसीलदार आए। तो वो मुझे बड़े अच्छे लगने
लगे। तब मैं बच्ची थी, सातवीं-आठवीं क्लास में पढ़ रही थी। जब
वो आता था, तो साईकिल चलाकर आता था। वो नेवीब्लू का पैण्ट और सफेद कमीज पहनते थे।
जैसे अब मैं याद करती हूँ तो उसकी बड़ी अच्छी पर्सनालटी थी। वो मुझे बड़े अच्छे लगे
और कुछ भी बात नहीं थी। मैं पैदल पाँच किलोमीटर जाती थी, तो रास्ते में वो मुझसे
पूछते थे -“मुन्नी पढ़ने जा रही हो” ।
शोधार्थी : ये तो आपकी आत्मकथा में है ।
लेखिका : हाँ ..है ना। एक–चाहे तो आकर्षण कह लो। चाहे कोई
मेरे भाई–बहन नहीं थे, वो कह लो। मैं बिल्कुल अकेली थी, तो किसी
का इतना ध्यान देना मुझे बहुत अच्छा लगा, तो मैंने भी उनको
एक चिट्ठी लिख दी, तो मेरी माँ को पता चल गया, मैं पकड़ी गई थी।
उसमें बड़ा बवाल मचा गाँव में। मेरी माँ ने मुझसे कहा कि क्या लिखा था चिट्ठी में?
लिख अभी । मैंने फिर डर के मारे चिट्ठी फिर से लिख दी। जो मैं अब कह
रही हूँ तुमसे, यह सब मैंने किताब में भी लिखा है। ये सारे लिखने के ही लक्षण थे।
वरना कोई नायब तहसीलदार आए या कोई आए उससे छोटी बच्ची का क्या मतलब ? जो अच्छा-सा व्यवहार वो करता था केवल इसीलिए, लेकिन चिट्ठी ही लिखना था
मुझे। जो लिखित है ना, उसमें सब उतारा जा सकता है। जैसे कि
मैं कुछ कह आती तो कौन जानता था कि मैंने क्या कहा? या
उन्होंने क्या कहा? उन्होंने तो कुछ कहा ही नहीं, इतना ही कहा कि “मुन्नी तुम स्कूल जा रही हो|” खैर
यहाँ से शुरू होता है लिखना। इसमें बवाल मच गया।
शोधार्थी : आपने एक बार अपनी आत्मकथा में जिक्र किया था कि
आपको गाँव से अपनी खेतीबारी का पैसा नहीं दिया गया था? तो आपने उस व्यक्ति को भी चिट्ठी लिखी थी।
लेखिका : हाँ, वो भी था ।
मेरी माताजी ने मुझसे कहा। मैं अपनी माँ को माताजी ही कहती थी। ऐसे नहीं है कि
यहाँ कह रही हूँ या किताब में लिख रही हूँ । खैर, माताजी ने
मुझसे कहा लाली, लाली माने – जो गाँव में छोटी लड़कियों को
बोला जाता है । वैसे बुण्डेलखण्ड में ‘बिन्नू’ भी बोला जाता है । “लाली वो तो दे ही नहीं रहा हमारे खेती का लगान” ।
पूरा साल उसने उससे कमाया है लेकिन अब वो लगान देता नहीं, तो मैंने उसको एक चिट्ठी
लिखी - कि आज हमारे पिता होते तो आप ऐसा करते? ऐसे आपके
सामने हम माँगते? मैंने लिखा कि आप हमारे पैसे को बड़े दबंगई
और बेमानी ढंग से नहीं दे रहे हो तो फिर उसको मेरी कुछ बातें लग गईं ।बाद में जब
पैसे लेकर माताजी के पास आया तो मेरी माताजी ने मुझसे पूछा कि –“लाली तूने ऐसा
क्या लिख दिया? वो तो खुद ही आया पैसे लेकर |” जो लगान के पैसे नहीं दे रहा था, मेरे कहने और चिट्ठी लिखने से पैसा दे
गया। तब मैंने सोचा कि मुझे आता है चिट्ठी लिखना । तो मैं यह कहना चाहती हूँ कि जो
लेखक बनता है आगे चलकर, वो जो लिखता है उसमें दूसरों के लेखन
से फर्क होता है । कोई व्यक्ति पूरा पैराग्राफ लिख दे और उसके लिखे पूरे पन्ने पढ़
लो तो भी कुछ असर नहीं आएगा और जिसमें लेखन करने की क्षमता है, उसके लेखन में ही असर आ जाता है । जैसे हमारे घर में लगान के पैसे आ गए
थे । पर मुझे तो नहीं पता था कि मैं आगे चलकर लेखिका बनूँगी ।
शोधार्थी : आपने अपनी आत्मकथा में कहा है कि आप शादी करना
चाहती थी तो आपकी माँ आपके लिए वर ढूँढ़ने लगीं । उस समय आपके मन में क्या विचार आ
रहे थे? आप क्यों शादी करना चाहती थी ?
लेखिका : लड़कियाँ तो वैसे छुपाती भी हैं, चाहे उनका शादी करने का मन हो, वे कहेंगी कि - नहीं
– नहीं शादी तो हमारे माँ – बाप ने कर दी थी । खैर, मेरी
माताजी तो मेरी शादी के लिए मना ही कर रही थीं । वह कहती थीं - शादी नहीं करनी है, कभी नहीं करनी है शादी । पढ़ो, नौकरी करो, अपने पैरों पर खड़ी हो जाओ बस, मेरी माताजी यही कहती
रहती थीं। तब मैं अपनी माँ की बातों को समझ नहीं पाती थी । मैं सोचती थी कि - अपनी
पैरों पर अकेली खड़ी होकर क्या करूँगी मैं ? क्योंकि मेरे कोई
भाई–बहन भी नहीं थे। घर में कोई नहीं था, मैं अकेली थी तो
फिर मैं अकेली खड़ी हो जाऊँ, इसका क्या मतलब है? मैंने एक दिन अपनी माताजी को कह दिया कि – “माताजी मुझे तेरी बात बिल्कुल
समझ में नहीं आई|” और फिर वे हमसे नाराज भी हुईं । मैंने एक
दिन कहा कि –“माताजी मेरी शादी कर दो|” तो माताजी बोली – ये
क्या कह रही है? मैंने कहा हाँ । फिर माताजी बोलीं - पागल है
क्या ? किससे कर दूँ शादी? बता लड़का ।
मैं तो लड़कों के साथ ही पढ़ती थी, इसीलिए माताजी ने पूछा कि
उनमें से तुम्हारी पसंद का हो तो बता दे ? मैंने कहा उनमें
से ऐसा कोई नहीं है, जिससे मैं शादी कर लूँ । फिर माताजी
कहने लगी कि –“वो जो चिट्ठी लिखता था तुझे वो पसंद है |”
मैंने कहा – माताजी, चिट्ठी लिखने के लिए तो ठीक है लेकिन
शादी करने के लिए ठीक नहीं है । क्योंकि सुनो – शादी एक जिम्मेदारी होती है ना ।
मैं उतनी छोटी उमर में ये बातें समझ गई थी ।
शोधार्थी : लेकिन क्यों करना चाहती थी उस समय आप शादी ? वही मैं जानना चाहती हूँ ।
लेखिका : सही प्रश्न किया तुमने । इसलिए कि मुझे पढ़ने के
लिए लड़कियों का स्कूल तो मिला नहीं, हाँ दो साल
तो मिला था बाकि नहीं मिला । जहाँ पढ़ती थी वहाँ इतनी छेड़छाड़ होती थी कि मैं
तुम्हें क्या बताऊँ ? और लड़के छेड़ – छाड़ करे तो चलो चलता है
कि लड़के कुछ कर रहे हैं, पर टीचस, प्रिंसिपल
जब ये करें तो असहाय मेरी कोई सुनने वाला नहीं, पिता तो थे
नहीं, कोई भाई भी नहीं था, कोई ताऊ,
चाचा भी नहीं। अकेली माँ ही थीं, जो मेरी पास
नहीं रहती थीं। मेरी माताजी नौकरी के चलते और कहीं थीं, तो
फिर लगा और मैंने बहुत सोचा भी । उस बखत मैं पढ़ रही थी - बी.ए फाइनल में । उस समय
बहुत सोचा कि क्या किया जाए । कुछ माँए होती हैं जो अपने कैरियर पर ज्यादा ध्यान
देती हैं और संतान पर कम। मेरी माँ भी वैसी ही थीं। ये तो नहीं कहूँगा कि मेरी माँ
मेरा ध्यान बिल्कुल नहीं रखती थी, ध्यान तो रखती थीं, लेकिन
कम। ‘कस्तूरी कुण्डल बसै’ में है ना,
जो तुमने पढ़ा भी होगा। मेरे तो पिता भी नहीं थे, भाई भी नहीं, बहन भी नहीं, जिससे
में अपने मन की बात बता सकूँ। माँ तो थीं लेकिन साथ नहीं रहती थीं, तो बस दिमाग में यही आया कि मेरी एक फ्रेंड थी जो बी.ए में मेरे साथ पढ़ती
थी, फिर एम.ए में आ गई। मैंने उससे कहा कि –“यार मैं बहुत
परेशान हूँ ।” तो मेरी फ्रेंड ने कहा - देखते हुए अच्छा नहीं लगता मुझे, तू अकेली परेशान क्यों होती है ? और कहने लगी कि –
तू शादी क्यों नहीं कर लेती ? फिर मैंने कहा– किससे कर लूँ?
उस समय मेरा यही मानना था कि इन लड़कों में जो मेरे साथ पढ़ते हैं, इतना योग्य मुझे कोई दिखता नहीं है । मेरे से तो सभी पीछे हैं । मैंने
अपनी माताजी से कहा शादी के बारे में, तो माताजी बोली कि–“मैंने इसलिए पढ़ाया था तुम्हें कि तू इस तरह बात करें|” जबकि मेरी माँ
सोचती थीं कि मैं ‘सरोजनी नाइडु’ बनूँगी, फिर मेरी माँ ने किसी से या अपनी सहेली से इस मामले में जिक्र किया होगा।
फिर उन्होंने शायद कहा होगा कि – आपकी बेटी ने गलत नहीं कहा है। इसी के बाद मेरी
माँ मन मार के निकली वर ढूँढ़ने के लिए। माताजी ने मुझसे कहा कि– “तू बता दे ऐसा
योग्य वर, जिससे मैं तुम्हारी शादी करा सकूँ। खैर, बेचारी मेरे लिए वर ढूँढ़ने निकली । आत्मकथा में पढ़ा भी होगा तुमने –
जन्मपत्री के बदले मार्कशीट लेकर जाती थी, मेरी माँ । फिर
बाद में ये जो महाराजा हैं, वे मिल गए । माताजी दहेज देने के
रिवाज को बिल्कुल ही नहीं मानती थीं और वे साफ – साफ यही कह देती थी कि – “दहेज –
वहेज नहीं है मेरे पास, नहीं दूँगी मैं|” खैर शादी - वादी हो गई, जो तुमने किस्सा पढ़ लिया
होगा । उसके बाद तो फिर.........|
शोधार्थी : जैसा कि आपने अपनी आत्मकथा में
लिखा है कि जब आपकी तीन बेटियाँ हुईं तो गाँव वालों ने आपके पति पर दबाव डाला होगा
कि वे दूसरी शादी कर ले। तो आपके पति ने उन लोगों को एक्स-वाई क्रोमोझोम के बारे
में कहा। उस समय आपको क्या महसूस हुआ था?
लेखिका : मुझे क्या महसूस हुआ, मुझे अपने पति की योग्यता पर
थोड़ा विश्वास हुआ और ज्यादात्तर इस बात को लेकर हुआ कि वह दकियानूस नहीं हैं, पढ़े – लिखे है ।
शोधार्थी : नहीं मेम, आजकल के पढ़े
– लिखे लोग भी ये एक्स-वाई क्रोमोझोम के बारे में जानकर भी मानना नहीं चाहते हैं ।
लेखिका : जब एक्स-वाई क्रोमोझोम को समझ ले, तो लड़का या लड़की
के जन्म होने में औरत की तो कोई भूमिका ही नहीं होती है। लिंग निर्धारण में सारी
भूमिका पुरुष की ही होती है लेकिन फिर भी पुरुष इसको मानना नहीं चाहते है । तो
हमारे गाँव में उनसे कहने लगे कि – “अरे, तुम दूसरी
शादी कर लो, इससे तो तुम्हारे लड़का हुआ ही नहीं |” इस पर मेरे पतिदेव ने कहा कि -“तुम्हारे गाँव के लोग कितने पागल है
|”
शोधार्थी : हाँ, ऐसा ही लग
रहा है।
लेखिका : हाँ, उन्होंने तो
यही कहा । खैर, मेरी तीन लड़कियाँ हो गईं। लड़का नहीं हुआ तो
क्या कर सकते है अब? तब तो लोगों ने बहुत लानत दी। मुझे भी बहुत
रुलाया । मैं पढ़ी – लिखी थी, सब कुछ समझने के बाद भी मैं कुछ
नहीं कर पा रही थी। हमारे यहाँ कोई लड़का नहीं था लेकिन फिर भी मेरी माँ ने मुझे
लड़के की तरह पढ़ाया। ऐसा व्यवहार किया कि कभी लड़की होने का एहसास ही नहीं हुआ। ऐसा
होता है ना...हमारे समाज में । जब मैंने शादी के लिए कहा तो भई यहाँ तो बड़ा चक्कर
पड़ गया। लेकिन एक और बात बताऊँगी - मेरे ससुराल वालों में ससूर थे, सास तो नहीं थीं, होती तो शायद वह कहतीं । जेठानी ने भी नहीं कहा। आपस में
कानाफूसी हुई हो तो पता नहीं, पर मुझसे तो नहीं कहा । मैं
रोने लगती थी । मेरे पतिदेव ने मुझे हमेशा समझाया कि तुम भी तो लड़की हो अपनी माँ
की, फिर भी तुम पढ़-लिखकर आई हो । फिर मैंने कहा – मैंने किया क्या है? बच्चे ही पैदा किया है । पढ़कर तो आई हूँ लेकिन कुछ किया ही नहीं। तब तक
में मन से बहुत विचलित हो गई थी । अभी तक ऐसा इंटरव्यू नहीं दिया है, जो मैं तुम्हें अभी कह रही हूँ -
मैंने बहुत मेहनत की थी पढ़ाई में पर मैं कुछ कर नहीं पायी थी । बस मैं घर –
गृहस्थी कर रही थी । मेरे पति बहुत ही योग्य थे, मगर कराया
मुझसे यही। बस ऐसे ही करके पच्चीस साल गुजर गए और उसी बीच में मेरी तीन बेटियाँ हुई
। बड़ी बेटी की शादी हुई तब मैंने लिखने के बारे में कुछ नहीं सोचा। दिमाग में कुछ
नहीं आया, बस बेटी की देखभाल करने में लगी रही । एक औरत के लिए जो गृहस्थी होती है
ना...उसमें सब पढ़ाई – लिखाई भूल जाते है, उसी तरह मैं भी भूल गई थी। जब शादी करके
आई थी तो किताबें भी साथ लेकर आई थी ।
शोधार्थी : आपकी माँ ने शादी के समय ये कहा था कि शादी के
बाद भी तुम वहाँ अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना ।
लेखिका : हाँ.. माँ ने कहा था कि तुम पढ़ना वहाँ। नहीं तो
तुम वहाँ खाना ही बनाती रह जाओगी। माँ का कहा सच होने लगा था। मैं सबको खुश करती
रही । उसके बाद तो ठीक है जो घरवालों को खुश रख रही थी । पति भी चाहेंगे कि तू कुछ
करे और रोशिनी.... जब हम जैसे बक्सा खोलते है ना । हमारे पास उस समय अल्मारी वगैरा
तो होती नहीं थी तो उसमें मैं साड़ी वाड़ी के नीचे दबाकर अपनी मार्कशीट रखती थी और
जब मैं उनको देखती थी तो उदास हो जाती थी । मुझे कहीं जाना भी नहीं है इन साड़ियों
को पहन कर । अब मुझे बड़ा दुख हुआ, मैंने इतनी मेहनत की थी,
अकेले रहकर पढ़ना, जिसके पास न घर है न खाने का
कोई इंतजाम है । माँ बहुत दूर थी और कोई देखभाल करने वाला नहीं था । किराए पर एक
कमरा लेकर रहती थी । वहाँ से तरह-तरह के लोग निकलते थे, शाराबी
भी निकलते थे बल्कि सामने तो एक शाराबी ही रहता था। दिन – रात पीता था । रात को
शोर मच जाता था – मेरा कमरा भी उसी के पास था । ऐसे में...मैं रही थी । पर अब मैं
यहाँ सोचने लगी थी, कि मैंने क्या किया ? मैंने इतनी मेहनत
क्यों की थी ? ऐसा तो नहीं सोचा था कि, यही होगा इस बार
लेकिन हो जाता है । लड़कियाँ जब शादी के भँवर-जाल में फँस जाती है तो वो बहुत जिद
करे तभी कुछ होगा.... नहीं तो एक बार आप ने गृहस्थी शुरू कर दी तो आप उसमें फँस
जाती हो । मुझसे गलती हुई.... मैं बहुत अच्छी बहू बन गई ।
शोधार्थी : आप घर के लिए तो बहुत अच्छी बहू बन गई ।
लेखिका : हाँ, मैं बहुत
अच्छी बहू बन गई थी । मुझे देखकर सब लोग कहने लगे कि कितनी अच्छी है, पढ़ी –
लिखी है, घुँघट भी कर लेती है । मैं सबकी देखभाल करने में
लगी रहती थी लेकिन एक दिन चेतना जाग उठी । मैं मन ही मन यह सोचने लग गई थी कि - अरे
मैंने अपनी जिंदगी बेकार कर दिया है? तब ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के अंक आते थे ना – वो मैं
पढ़ने लगी । उसे पढ़कर और उसमें जो कहानियाँ छपती थीं, उसे पढ़कर मुझे विचार आया कि…
नहीं मुझे भी लिखना चाहिए । जब मैं कॉलेज में पढ़ रही थी तब आलेख लिख लेती थी फिर
उसके बाद सब कुछ भूल गई और फिर बाद में मैंने लिखने की कोशिश की । कहानी लिखी…. ऐसा नहीं की जो गुजरती है जिंदगी में... उसी को लिख दिया हो। कहानी लिखकर
भेज दी, जैसी भी थी वो नहीं छप्पी, लौट
आई । कोई बात नहीं फिर मैंने उसी कहानी को सुधारकर या दूसरी कहानी लिखकर उस
सम्पादक के पास गई । मेरा परिचय हुआ और मैंने कहा कि अभी तक तो मैंने कुछ नहीं
लिखा, मुझे पढ़ाई छोड़े पच्चीस साल हो गए है । अब मैंने ये
लिखा है ।उसे ठीक लगा तो कहानी छप गई ।
शोधार्थी : उसके बाद आपका लेखन और प्रकाशन शुरू हुआ ?
लेखिका : जब एक बार छप जाता है, तो आपका नाम मेगजीन में आ
जाता है । अगर आपकी कहानी एक बार छप जाती है तो फिर से एक नई कहानी लिखने का मन
होता है और उसे कहीं पत्रिका में भेजने के लिए कोशिश करते है। उस समय ‘धर्मयुग’ पत्रिका थी, मैंने वहाँ
भेजी ।
शोधार्थी : जैसे कि मेम अभी की जो स्थिति है आपके लेखन
कार्य की... आप बहुत लिख चुकी हैं और उस समय जो आपने कहानी पहली बार लिखी थी, जो नहीं छपी थी । उस समय की स्थिति में आपने जो भी महसूस किया हो और अभी
की जो स्थिति है, जो आप अभी महसूस कर रही है । उसमें बहुत
अंतर तो होंगा ।
लेखिका : अंतर तो था । क्या अंतर था? यह मैं बताती हूँ । जब शुरू – शुरू में... मैं लिख रही थी तब मुझे खुद भी कहानी
लिखना ठीक से नहीं आता था । उसके लिए बहुत पढ़ना पड़ता था और मैं कविताएँ पढ़ती थी
और लिखती थी । कहानी कैसे हो सकती है ? तो फिर मुझसे एक
सज्जन ने कहा । उन्होंने कहा कि कहानी पढ़िए तो आपको आएगा कहानी लिखना । मैंने उनकी
बात मान ली तो फिर मैं कहानी लिखने लगी ।दूसरी महिला लेखिकाएँ जहाँ शहर की
स्त्रियों के बारे में लिखती है और मैं लिखती थी गाँव की स्त्रियों के बारे में ।
मेरे गाँव की स्त्री क्या कर रही हैं ? इसको पहले ठीक से
अभिव्यक्त नहीं कर पा रही थी तो फिर उनको लगा कि ये क्या लिख रही है ? फिर मेरी अगली कहानी ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में छप गई । उन्होंने छाप दी मैंने उनकी बड़ी कृपा मान ली लेकिन उन्होंने
उस कहानी को ठीक से पढ़ा भी नहीं होगा । वह ऐसे ही छप गई... ठीक है, उसके पीछे यह भी था कि मेरे पतिदेव एम्स से संबंधित थे । उनका भी तो
प्रभाव था ।
शोधार्थी : आप साफ – साफ बोल देती है । मन में कुछ नहीं
रखती हैं ।
लेखिका : वो भी तो मदद करते होंगे ना... कि जो मुझसे पूछते
थे कि मेरे पतिदेव क्या करते है ? मैं कहती–वे एम्स में काम
करते है । वो खुश हो जाते थे, बहुत अच्छा एम्स में कार्यरत
है । मैं भी समझ लेती थी, हाँ..ये ठीक है काम बन सकता है ।
तब तक मेरी बड़ी लड़की की शादी हो गई थी । तो मैं उनसे बताती थी– मेरी बड़ी बेटी की
शादी हो चुकी है क्योंकि संपादकों की निगाह बड़ी खराब होती है । मैं जल्दी से बताती
थी कि मेरी लड़की की शादी हो गई है मतलब मैं इतनी उमर की हो गई हूँ । लेकिन वो इसका
विश्वास नहीं करते थे तो मुझसे पूछते थे कि लड़की क्या कर रही है ? मैं बताती थी कि वो भी डॉक्टर है । फिर वे पूछने लगते - उसके पति क्या करते है ?
फिर मैं बताती कि वे भी डॉक्टर है। वे लोग बड़े प्रभावित हो जाते थे। कहते कि –अरे
! सब डॉक्टर है, घर में कोई बात हो तो आपसे सलाह ले सकते है
। तो इस तरह कहानी भी छप गई मेरी । मैं सही बोलूँ तो ये भी मददगार साबित हुआ, जो
मेरे घर में डॉक्टरी पेशा था । ठीक है, फिर छपने लगी । जो
मैं लिखती थी, वह गाँव का लिखती थी । वो थोड़ा अलग था जो
दूसरा माहौल भी आया मेरी कहानियों में । तो ये भी कुछ लोगों ने, एकाध ने ये भी देखा तो छापी फिर वो धारा चल निकली ।लोगों से तारिफ भी आने
लगी लेकिन घर में तो कुटाई हो गई थी । घर में पति नहीं चाहते थे, कि मैं लिखूँ ।
बहुत नाराज रहते थे उन दिनों वे मुझसे ।
शोधार्थी : आपने एक बार इंटरव्यू के लिए form
fill up किया था, सर ने आपको न बताकर उसे छुपा
लिया था?
लेखिका : इंटरव्यू के लिए आया पत्र पतिदेव ने छुपा लिया था
। मुझे मेरी सहेली मारियम ने जब बताया कि आपका इंटरव्यू लिस्ट में नाम था, आप नहीं
आई। मैंने जब पतिदेव से पूछा तो उन्होंने बहाना बनाते हुए कहा कि “अरे यार वो मैंने कहीं रख दिया
था और तुम्हें बताना भुल गया।” मैं बहुत रोई उस दिन कि
मेरा पति मेरा शत्रु है कि मुझे नौकरी नहीं करने दी । पति लोग बहुत शत्रु होते है
। तुम जबरदस्ती करो कि हमें यही करना है, तो मान जाएँगे। उन्हें लगता होगा, ठीक है
जो नहीं मान रही है, तो हाँ करना पड़ेगा ना, वैसे तो घर में
ही रही ।
शोधार्थी : ये बात मैं उनको सुनाऊँगी, अपने पतिदेव को ।
लेखिका : जब मैं घर में रहती हूँ तो उन्हें अच्छी लगती हूँ
। बाहर रहो और वह भी पुरुष के साथ, लड़कों के
साथ, तो चाहे तुम कुछ नहीं कर रहे हो, बड़ी अच्छी तरह तुम
अपने चरित्र को रख रही हो लेकिन वो शक तो करेंगे ही । वे सोचेंगे कि - पता नहीं
कौन क्या कह रहा होगा? क्या छेड़छाड़ कर रहा होगा? वो ऐसे संरक्षक बन जाते है कि मानो माँ – बाप से ज्यादा पतिदेव को उसकी
चिंता है । कहाँ गई? कब आई ? फिर पूछो
मत एक तो लिखूँ और वहाँ संपादक लोग रुतबा देते है कि घर में आप अलग तरीके से रहती
है । इतनी मुश्किलें झेली कि मैं क्या बताऊँ ? फिर भी मुझे
लिखने का जुनून शुरू से ही था, चिटिठयाँ लिख देती थी शुरू से
तो मैंने छोड़ा नहीं । घर का माहौल इस तरह था । यह उनकी गलती नहीं है, उन्होंने मुझे कुछ करते नहीं देखा था। कपड़े धो रही हूँ । बच्चे पाल रही हूँ,
बच्चे पैदा कर रही हूँ । वो सब भूल गई जो मैंने उन्हें चिटिठयाँ
लिखी थी । पर मैं पागल थी । मैं तो साहित्य से जुड़ी थी और वो तो चित्किसा से जुड़े
हुए है। वो मेरी चिटिठयों में लिखा क्या समझेगे? और मैं उनके
लिए उसको कविता लिख रही हूँ, उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा
तो मैंने कहा, “हाँ, मेरी चिट्ठी नहीं पढ़ते थे तुम? तभी समझ लेना था, मैं कैसे हूँ?” पतिदेव ने कहा, “अरे यार, मेरी कौन सी समझ
में आती थी। चलो ठीक है, बीवी की चिट्ठी आती है, तो चिट्ठी
है बस कुछ नहीं है। उसमें समझने के लिए क्या है? प्यार–
व्यार के बारे में लिखा होता तो समझ में आ जाता।” वो सारी
चिटिठयाँ मेरे पास रखी हुई हैं, उनको लेके में एक किताब लिखूँगी
।
शोधार्थी : आपके उपन्यासों में ‘बछिया’ की जो एक परम्परा है, उसका
बहुत बार जिक्र किया गया है । जैसे कि शादी होने के बाद,
देवर के साथ फिर से शादी करवा दिया जाता है । इस तरह की कुछ परम्परा का बहुत जिक्र
आपने किया है। इसके बारें में आपका क्या ख्याल है ?
लेखिका : हाँ..हाँ...देखो – इसमें दो तीन चीजें जो भी हुई
होती है। जैसे जिस औरत का आदमी मर गया। वह विधवा हो गई। एक तो अगर उसमें जमीन
जायदाद उसके पति के नाम थी तो उस औरत के नाम चली जायेंगी । डर लगता है नहीं औरत
इसको लेकर अपने मायके चली जाएँगी। कहीं चली गई तो वो घर गया और जमीन गई औरत के घर।
फिर ये औरत पति तो है नहीं, किसी और पुरुष से संबंध बना लेगी तो जमीन जायदाद उस
पुरुष की हो जाएँगी। यही डर उसी परम्परा के बीच में रहता है। फिर कई तरह की बातें
होती हैं । तीसरी यह कि हमारे परिवार में हर हाल में बदनाम होना था और परिवार की
बदनामी कोई नहीं चाहता । उसे तो तलवार की नोक में आदमी बचाता है कि हमारी तो ये सब
बातें है । खास तौर पर सम्पत्ति की बात आती है चाहे घर – जमीन हो, चाहे मकान हो, चाहे जमीन हो जायदाद हो, पति मर जाए तो उस औरत का हक बनता है । पहले नहीं बनता था लेकिन अब बनने
लगा है । इन्हीं कारणों से डर लगता है । जैसे ‘चाक’ उपन्यास रेशम से उसकी सास कहती है कि उसके देवर से बछिया कर ले ।
शोधार्थी : हाँ ‘चाक’ में भी रेशम को ऐसा ही कहा गया था ।
लेखिका : ‘चाक’ में तो ये सारी कोशिश है कि ये जो रेशम है, उसके पेट
में जो विधवा होने के उपरांत बच्चा आया है उसे या तो खत्म किया जाए या फिर वे अपने
जेठ के साथ बछिया कर ले । जिसको उसने नहीं माना । उसे बिठा देना कहते है जो दूसरी
शादी कर लेते है । उसके साथ बिठा देंगे । तो कहाँ मतलब वो फेंके देती है कटोरे –
वटोरे को कि मैं अपने बच्चे को नहीं गिराऊँगी । ये कहने की हिम्मत औरत में अभी
गाँवों में नहीं है ।
शोधार्थी : अभी भी नहीं? बच्चे के लिए
तो रेशम लड़ी थी । उसे दूसरा आदमी, जो ज्यादातर पति का भाई
होता है, उसे पकड़ा देते हैं ? आपके
ख्याल से ऐसी परम्परा खत्म होनी चाहिए कि जारी रखनी चाहिए ?
लेखिका : नहीं... खत्म होनी चाहिए । मैंने तो इसमें यही कहा
है कि सास से भी रेशम यही कह रही है कि तू अपने मरे हुए लड़के के लिए रो रही है
लेकिन मेरे बेटे को और जो मेरे पेट में है उसे खत्म करवा रही है? तो रेशम की सास फेंक देती है ना... कटोरा को तो यही से रेशम खत्म होती है
। एक बात बताऊँ – औरत ही तो खत्म करेगी औरत को । कोई पुरुष या जो पुरुषों की जमात
है वो तो नहीं करेगा । वह तो चाहेगा कि स्त्री हमारे घर में ही रहे । और हमारे ही
भाई का बच्चा पैदा करे तब हम इसको बाँटेंगे.... नहीं तो हिस्सा नहीं देंगे । अकेली
स्त्री को नहीं देना चाहते जब कि अब तो कानून भी आ गया है, ये
जो मर गया है उसकी विधवा को ही मिले, लेकिन देना नहीं चाहते।
सौ बहाने बनाते है ।इसलिए उस रेशम के साथ भी वो कर रहे थे लेकिन वो मानी ही नहीं फिर
उसे मार दिया ना । तो कितनी बहूएँ ऐसे ही मरतीं हैं और कोई भी बहाना होता है उसका
तो करने के लिए होता है । कोई बहाना करेगा कि नहीं पानी खीचने गई थी कुँए में डूब
गई थी । नदी में कपड़े धोने गई थी बह गई – ये होते हैं बहाने । वहीं बह जाती है,
जिसका पति मर गया है ? क्यों नहीं बह जाती हैं,
जिनके पति जिंदा है? ये प्रश्न तो उठता है, जिनके पति जिंदा है समाज की परम्परा में शामिल कर लिए गए हैं, लेकिन जिसका पति मर गया है, उसका एक मनुष्य की तरह
रहने का अधिकार छीन लिया जाता है ।
शोधार्थी : जैसा कि मेम आप नहीं चाहतीं
कि इस तरह हो । ऐसी कई औरतें होंगी
बुण्डेखण्ड में भी जो नहीं चाहती कि ऐसी परंपरा चलती रहे।
लेखिका : हाँ.. हाँ...हाँ.. लेकिन समाज है, जात – विरादरी है, इतने दबाव होते है ।
रिश्तेदारियाँ भी , नाते रिश्तेदार है । एक किताब है मेरी
शायद ‘बेतवा बहती रही’ होगी । उसमें तो
वो बिल्कुल भी नहीं चाह रही थी लेकिन जबरदस्ती भाई ने सबसे दबाव डलवाया उर्वशी पर
। उसकी सहेली के पिताजी के साथ (मीरा के) ये नहीं देखते है कि उसकी उम्र क्या है ?
आदमी की उम्र क्या है ? इसकी दो बीबियाँ मर गई
है । अब हम अपनी लड़की को क्यों ब्याह रही है ? बस लड़की का
भेजा उतारना होता है । मतलब स्त्री की कोई वकत नहीं है । जमीन जायदाद उसके लिए पुरुष
ही है, तभी तो बेटा पैदा करने का दबाव रहता है । लड़की होगी तो शादी करके चली
जायेगी । एक तो ये चली जाने का रिवाज किसने बनाया है? कि
लड़की शादी करके चली जायेगी । तुम्हारे यहाँ ऐसा कुछ नहीं है ना, ये रिवाज ही गलत है । तुम ये Note कर लो कि ये
रिवाजें ही गलत बनाया गया है । मैं इस रिवाज के बिल्कुल भी पक्ष में नहीं हूँ ।
मैं इससे बहुत असहमत हूँ । जैसे कि मैं इस रिवाज से नाराज रहती हूँ, खिलाफ रहती हूँ। ये रिवाजें सभी गलत है। सारी रिवाजें आदमी के पक्ष को
लेके बनाई गई है औरत के लिए तो कुछ भी ख्याल नहीं रखा गया है ।
शोधार्थी : मेम जैसा कि जो स्त्रियाँ शिक्षा से वंचित रह
जाती हैं तो रीति रिवाज के मामले में हो या घर बसाने के मामले में हो या कुछ भी, वो कुछ नहीं समझती हैं इस बात को
तो बछिया की तरह ये रिवाज जो आज भी जारी है । इन रिवाजों को आप मानती है या नहीं ।
लेखिका : हाँ... और शिक्षा से वंचित नहीं, शिक्षित स्त्रियाँ भी कही न कही, इनका पालन करती है
। कहो कि जागरुकता की कमी है, चेतना से वंचित है । मान लो
थोड़ा बहुत शिक्षित भी हो, जिसे हम लिखना पढ़ना कहते है पर
चेतना नहीं है उनमें, चेतना नहीं है तो पुरानी या आधुनिक की बात नहीं है। लड़की अगर विधवा हो या छोड़ दी हो तो ऐसा ही होता है। एक
बात बताऊँ ‘परित्यक्ता’ कहते है,
जिसको छोड़ दिया जाता है । आदमी को क्या कहते है ? उसका नाम प्रतीकत्व तो नहीं है ना । परित्यक्ता तो औरत का नाम है । समाज
में विधवा तो है, विधुर कितना कहा जाता है, वो तो व्यवहार में है ही नहीं।
शोधार्थी : यही हमारे मणिपुर में भी है। हालांकि
स्त्री-पुरुष में ऐसा भेद नहीं है पर ‘लुख्राबी’
शब्द तो प्रचलन में है पर पख्रा का प्रयोग कभी नहीं किया जाता। बचपन
से हमने कभी पख्रा शब्द का प्रयोग करते हुए नहीं सुना । बड़ी होकर मम्मी से पूछा, तो उन्होंने पख्रा बताया । मैंने कहा पख्रा शब्द का तो उतना इस्तमाल नहीं
किया जाता है ।
लेखिका : उसी तरह हिंदी में विधुर शब्द का इस्तमाल कम होता
है । हमारे यहाँ भाषा में जिस स्त्री के पति मर गए है, उस स्त्री को राँर कहते है । जिसकी पत्नी मर गई हो उसको ररूवा क्यों नहीं
कहते है? मेरा कहने का मतलब यह है कि ररूवा शब्द को पुरूष के
लिए इस्तमाल क्यों नहीं होता है? औरत के लिए बड़ी जल्दी
प्रयोग कर देते है । सारी गालियाँ, तुम गालियाँ कोई भी सुन
लो औरत को संबोधित करके प्रयोग होती है। जिनमें से अधिकांश औरत के गुप्तअंगों को
निशाना बनाकर बोली जाती है । अगर पुरुष इनको बोलने में शामिल हो तो यह कितनी
विभेदकारी परम्परा है ।
शोधार्थी : बुण्डेलखण्ड की नारी और शाहर की नारी .. आज तक
आपने बहुत अनुभव किए होंगे । उन दोनों में अंतर बहुत होंगे । आपका क्या ख्याल है ?
लेखिका : हाँ... अंतर है । रिवाजों में रीति – रिवाजों में
वहाँ ज्यादा लागू हो जाती है । यहाँ नहीं हो पाती । यहाँ बड़े फक्र से दूसरी शादी
भी कर लेती है । वहाँ इतनी नहीं होती लेकिन एक बात बताऊँ – मैं गाँव की स्त्री को
ज्यादा महत्व देती हूँ वजाय शहर की स्त्रियों की तुलना में । मान लिया शहर की
स्त्री पढ़ी – लिखी है लेकिन चेतना भी है चलो, लेकिन साहस
नहीं है शहर की स्त्री का साहस उतना नहीं है जितना गाँव की स्त्री का है । वे कह
देगी कि पंचायत में कि नहीं इसने ऐसे किया था, वैसे किया था
। शहर की तो दब – दब के रहती है । कुछ भी बोलती नहीं है । कोर्ट कचहरी में जाकर
भले ही बोले । गाँव की औरत तो गाँव के लोगों के सामने बोल देती है कि हाँ इसने ऐसा
किया मेरे साथ, मैं नहीं रहती इसके साथ तो पढ़ी – लिखी ये
जरूर ज्यादा होती है पर बिल्कुल नहीं होती है ।
गाँव वाली स्त्री तो साहसी ही होती है क्यों कि वो श्रमशील है । जो आदमी
मेहनत करता है उसमें साहस और हिम्मत आ जाती हैं । जो आराम से रह रहे है, आराम में कहाँ साहस आ पाएगा, कहने की हिम्मत कहाँ से
आएँगी? अभी हम ए.सी में बैठे है । अभी मैं गाँव में होती तो
हाथ से पंखा चला रही होती । फर्क ये है कि जो चीजें हमें शहर में बड़े आराम से मिल
जाती हैं, वो कमाते भी नहीं है इसलिए उन्हें कहना भी आ जाता
है, बोलना भी आ जाता है। गाँव की औरत आदमी को सरे आम गाली
बोल जाती है। लेकिन शहर में ये नहीं चलता। यहाँ तो सभ्यता ही मारे डालती है कि
हमें कोई असभ्य कहेगा तो ये शराफत सभ्यता – ये सब जो चोले ओढ़े हुए है यहाँ की
स्त्री ने वहाँ की तो नहीं। लेकिन गाँव की स्त्री घुँघट भी मार देगी तो चार
गालियाँ दे ही देगी।
शोधार्थी : यहतो मानना पड़ेगा कि गाँव की स्त्रियों को
ज्यादा हिम्मत की जरूरत है और उनमें होती भी है।
लेखिका : ये है। ये फर्क है। गाँव की स्त्रियाँ बहुत साफ
बोल देती हैं और साहसिक भी होती है। मुझे शहर में रहते हुए बहुत साल हो गए और इस
तरह शहर में यहाँ की स्त्रियों के बारे में जानने लगी कि यहाँ की औरतें बातें तो
बहुत बना लेती हैं लेकिन खुलेआम कुछ नहीं कर पाती हैं। इसको दूसरे शब्दों में कहा
जाए तो यहाँ की औरतें महा डरपोक हैं। गाँव में मेरा जन्म हुआ है। मैं वहाँ रहकर
बड़ी हुई हूँ इसीलिए मुझे गाँव की औरतों के बारे में जानकारी है कि वो कैसी हैं? वे किस तरह का व्यवहार करती हैं? अभी में तुम्हें एक
बात कहती हूँ मैंने एक उपन्यास लिखा है जिसका नाम ‘विजन’
है, जो शहर के लोगों के जीवन पर आधारित है और
मैंने उसमें विशेषकर डॉक्टरी पैशे से संबंधित जितनी भी समस्याएँ हैं उसको उठाया है।
अभी मैं तुम्हें कृष्णा सोबती जी का उदाहरण देती हूँ उनके उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’ है ना, जो
तुमने भी पढ़ा होगा या न पढ़ा हो तो मैं बता देती हूँ। मित्रो मरजानी का पति नपुंसक
है। अच्छा वो कितना हल्ला मचाती है ये हो गया, वो हो गया।
मैं ये नहीं कहूँगी कि ज्यों है त्यों है। उपन्यास में वो कहती तो बहुत है करती
कुछ नहीं है फिर वहीं के वहीं रह जाती है। वे अपने को मायके चली जाने के लिए कहती
है – ये सब कहने के बाद वहीं लौट आती है। तो मेरा कहने का मतलब यह है कि उसकी
नायिका यू टर्न क्यों लेती है? उसकी नायिका ने ठान लिया था
कि वो चली जाएँगी और अब लौट कर नहीं आएगी, लेकिन बाद में वापस लौट आती है। इस घटना
के बारे में मैंने लिखकर दिया और लोगों ने मुझ पर सवाल उठाया कि अरे आपने उसके
लेखन के ऊपर कैसे सवाल उठाया? मैंने उनसे सवाल उठाया कि आपकी
नायिका खाली बोलती है और कुछ करती नहीं है। पर मैं ऐसा नहीं करती जो खाली भाषण
देकर रह जाती है। तो ये है ग्रामीण और शहरी महिलाओं का फर्क। वे ये सिर्फ कहती है
हम करती हैं।
शोधार्थी : कुछ कहने के बाद उसे करने का साहस भी चाहिए।
लेखिका : हाँ, करने का साहस तो चाहिए ना, कहने को तो हम कुछ भी कह सकते है। ग्रामीण क्षेत्र की स्त्रियों ने पंचायत
में कुछ किया हो या कहीं भी कुछ किया हो तो करके दिखाती हैं। कहना तो बहुत आसान है, करके तो दिखाओ। जीभ हिलाने में क्या जाता है? शहर
की जो लेखिकाएँ है, जीभ हिलाती है कलम से लिख देती है करना
कुछ नहीं है ।
शोधार्थी : ‘कहीं ईसुरी
फाग’ उपन्यास के बारे में बताइए, इसे लिखने का विचार आपको
कैसे आया?
लेखिका : पहले मुझे इस उपन्यास को लिखने का विचार नहीं आया
था पर बाद में बहुत दिनों के बाद लिखने का मन हुआ। यह इसीलिए हुआ क्योंकि हमारे
यहाँ स्त्री से हमेशा दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है और मैं अभी भी बता रही
हूँ तुम्हें। ‘कहीं इसुरी फाग’ उपन्यास
के जो ईसूरी थे वो बुण्डेलखण्ड के बहुत बड़े कवि थे। वे फागें लोगों की मनोरंजन के
लिए सुनाया जाता है। ईसुरी तो अब नहीं रहे लेकिन उनके फागों को आज तक गाई जाती है।
वो तो बस इसको कहानी के रूप में आजतक नहीं लिख गया है पर इसमें शोध तो काफी हो
चुका है। जब मैंने शोध कार्यों को देखा पढ़ा तो मुझे लगा ईसुरी की तो बड़ा बखान हो
रहा है कि उन्होंने यूँ किया, ये किया इत्यादि लेकिन इसूरी
जिस स्त्री को आधार बनाकर लिख रही है, वो स्त्री रजऊ है। रजऊ
के लिए वह कहते है “किती बेरा भर लाओ पानी रजऊ। कब तुमने
पानी भर लाई” ।मेरा कहने का मतलब यह है कि रजऊ न आज दिखाई देती है न उसके बारे में
कही कुछ कहा जाता है। ईसुरी तो रजऊ के आशिक हो गए थे, उसके
प्रेम में दिवाना सा हो गए थे और इसी प्रेम को आधार बनाकर उन्होंने बहुत सारे
फागों को गाया है । इसमें मेरा सवाल यही था कि रजऊ क्या कर रही है? क्या सोच रही है? किसी ने आजतक कुछ नहीं सोचा और
आजतक किसी ने रजऊ के जीवन के बारे में कुछ नहीं सोचा कि रजऊ क्या कर रही है?
क्या सोच रही है? किसी ने आजतक कुछ नहीं सोचा।
रजऊ एक साधारण स्त्री है या मिट्टी की गुड़िया है। वह कौन है ? क्या करती है?
जिंदगी में उसका क्या वजूद है? इन्हीं प्रश्नों ने
मुझे रजऊ के बारे में लिखने के लिए चेतना जगाई और फिर मैंने एक उपन्यास लिखने के
लिए निर्णय लिया और रजऊ को एक स्त्री का दर्जा दिया, उसके
मुँह में जुबान डाली और रजऊ को जीवित किया।
शोधार्थी : उसमें एक रिसर्च स्कोलर भी है मेम ।
लेखिका : हाँ... वह रिसर्च स्कोलर मैंने बनाया है और उसी के आधार पर उपन्यास की रचना की गई है। आजकल के शोध छात्राएँ अपने शोध कार्यों को करते समय वही कहती तथा लिखती है, जो पहले से लिखी आ रही है। उसमें उतना खोज नहीं करती है । मेरा कहने का मतलब यह है कि शोधार्थी जो भी खोज करती है, उसमें ईसुरी के बारे में उसके फागों से संबंधित जितने भी चीजें है, उसको सामने लाते है लेकिन उनके फागों में वर्णित रजऊ के बारे में आज तक किसी ने सोच – विचार कर शोध नहीं लिखा है। इसलिए मैंने ‘कहीं ईसुरी फाग’उ पन्यास में ऋतु नामक एक पात्र को रखा है। जिसके माध्यम से मैंने यह प्रश्न करवाया है कि ये रजऊ कौन है? उसने क्या किया है ? इत्यादि। और ईसुरी की जो फागें थी, उन्हीं से सारा कुछ निकालकर मैंने रजऊ को जाना समझा और उसी के बारे में लिखना शुरू किया। हाँ, रजऊ ऐसी थी, खाली पानी ही नहीं भरती थी। “किती बेरा भर लाओ पानी कब लोग बैठे....”। ईसुरी है कि वे अपनी व्यथा सुना रहे है कि रजऊ कब से कुँए पर बैठी हो, तुम दिखी ही नहीं। मेरा कहने का मतलब यह है कि जो दिखी ही नहीं वो क्या कर रही है उसकी भी तो बात करो। मैंने इस उपन्यास को इसलिए लिखा है कि ईसुरी का वर्णन करते समय एक स्त्री की जो जगह मिलनी चाहिए वह वाकई ही मिलनी चाहिए। उस समय स्त्री का वर्णन केवल अश्लीलता के लिए प्रयोग किया जाता था। मैं यह कहना चाहती हूँ कि स्त्रियों को खाली अश्लीलता के लिए प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। उसके द्वारा समाज के प्रति कितना काम है। इस पर भी तो ध्यान केंद्रित होना चाहिए।
शेष अगले अंक में।
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