बरसा ही नहीं बादल : कैशाम प्रियोकुमार
“चोङ्नी, देख कितनी बड़ी है मछली !”
उसके सामने बड़ी सी मछली हाथ में लटकाए लुङजाहाओ मुस्कराता हुआ उसे दिखा रहा था। चोङनिकिम का सारा शरीर सन्न पड़ गया। अगले ही पल चाँदनी में काले-काले घर, पेड़-पौधे, दूर तक फैला पहाड़ और आसमान को छूते कटे से दिखने वाले पर्वत शिखरों के अलावा कुछ भी नहीं था। चोङनिकिम ने अपने छोटे-छोटे बच्चों पर नज़र डाली। अचानक ही उसकी आँखें आँसुओं से तर हो आईं। फिर बुक्का फाड़कर रोने लगी।
चर्च से प्रार्थना के गीत सुनाई देने लगे। स्त्री-पुरुष और छोटे बच्चों
की गड्डमड्ड आवाज़ धीरे-धीरे तेज होती गई। चर्च के भीतर ईशू की सूली उसकी आँखों के
सामने तैर गई। रुलाई पर मुश्किल से काबू पाकर वह भी सबका साथ देते हुए धीरे-धीरे
प्रार्थना गीत गुनगुनाने लगी। कभी हिचकी बाँधकर रोती, कभी
गीत गाने लगती। आवाज बुलंद होती गई। चर्च से आने वाली आवाज़ के साथ एक तान होकर एक
पहाड़ से दूसरे पहाड़ के बीच टकराकर गूँजने लगी। गीत
गाते हुए चोङनिकिम की आँखों के आगे चर्च में सूली पर लटके ईशू का चेहरा तैर गया।
प्रार्थना गीत खत्म हुआ। फिर स्तब्धता छा गई। पेड़-पौधे, घर-बार, पर्वत-मालाएँ निर्जन चाँदनी में काला रूप
धारण कर गुप-चुप खड़े हो गए। चोङनिकिम एक-एक को निहारने लगी। फिर आँगन के छोर पर
मौजूद सूली को देखने लगी। लगा, मानो सारी चाँदनी इसी सूली पर
उड़ेल दी जा रही हो।
“चोङनि, मछली काफी बड़ी है न
!”
आवाज़ फिर कान में गूँजी। लुङजाहाओ था। सूली पर ईशू की तरह लटकाया हुआ।
ध्यान से देखा आड़े-तिरछे रखी दो छोटी लकड़ियों से बनी थी सूली। यह तो केवल आड़े
रखी लकड़ी है। आड़े रखी लकड़ियों पर नहीं, पत्थरों की परत पर
लेटा है लुङजाहाओ। चोङनिकिम ने फिर ध्यान से देखा। यह लुङजाहाओ नहीं, बल्कि समाधि पर उगे हुए फूल हैं। चाँदनी में घने फूलों के पौधे चोङनिकिम
को साफ नजर आने लगे।
“मुझे तुम्हारी मछली नहीं चाहिए। नहीं चाहिए मुझे
मछली।”
अचानक ही वह बड़बड़ाने लगी। फिर गोद पर और बगल में
उसका सहारा लिए बैठे अपने बच्चों को बाहों में कसकर भर लिया। बाँस की खपच्चियों से
बनी दीवार पर सिर टिका कर उसने आँखें मूंद लीं। आँखों से अबाध आँसू बहने लगे।
“चोङनि हट जाओ। बाँस गिराना है।”
सीधी ढलान वाली भंगाई पहाड़ी पर खड़े होकर लुङजाहाओ
ने ईंधन के लिए लकड़ियाँ चुन रही चोङनिकिम को पुकारा। चोङनिकिम उस जगह से परे हटकर ऊपर देखने लगी। बेल से बंधा
बड़ा गट्ठा घास-फूस और छोटे पेड़-पौधों को मसलता हुआ पहाड़ की तलहटी की तरफ
लुढ़कने लगा। कुछ ही पलों के बाद तेज आवाज के साथ तलहटी पर पड़े बड़े-बड़े पत्थरों
पर जा गिरा। इस आवाज की प्रतिध्वनि दूसरी पहाड़ी से गूँज उठी। चोङनिकिम ने देखा,
लुङजाहाओ भी पहाड़ी से घिसटता हुआ नीचे आ पहुँचा। दूर तक फैली बराक
नदी पर सूरज अपना पूरा ताप उढेल रहा है। रेत पर पड़ते ही पाँव जैसे जलने लगते हैं।
लुङजाहाओ का बदन पसीने से तर था। छायादार पेड़ के तले एक बड़े पत्थर पर बैठकर फटी
कमीज के टुकड़े से उसने अपना चेहरा पोंछा। कमर पर झूलते थैले से तम्बाकू निकाल कर कागज के एक टुकड़े में लपेटने लगा।
“तेरा बदन पसीने से तर हो रहा है।”
चोङनिकिम ने पास ही बैठते हुए केले के पत्ते में बंधा
खाना खोलते हुए कहा।
“और तुम्हारा चेहरा एकदम लाल हो गया है।”
दोनों ने एक दूसरे को देखा। फिर न जाने दिल का कैसा अहसास था कि
देखते-देखते दोनों हँस पड़े। पहाड़ का ढलान और दूर तक फैली बराक के अलावा कुछ भी
नजर नहीं आ रहा था। शोर-गुल से दूर इस निर्जन में केवल वे दोनों ही थे। निस्तब्धता
दिल में बेचैनी उत्पन्न कर रही थी। चोङनिकिम को अपनी शादी से पहले का समय याद आ
गया। पहाड़ी खाइयों, शस्य-श्यामल पहाड़ की तराइयों और बराक
की उछ्लती-कूदती लहरों में विचरने लगी। कुछ पल के लिए जीवन की सारी परेशानियों को
भुला दिया। मुस्कराते हुए खाना खा रहे लुङजाहाओ को बहुत ध्यान से देखा। वह भी
मुस्करा पड़ी।
“क्या देख रही हो ?” लुङजाहाओ
ने पूछा
“कुछ नहीं, मोती लोग कब तक
पहुँच रहे हैं ?”
सारी बातों को मन में दबाकर मोती के बारे में पूछा।
“पानी तो बरस ही नहीं रहा।”
“बरसेगा जरूर।”
चोङनिकिम ने आसमान की ओर देखा। बादल का एक टुकड़ा भी
नज़र नहीं आया। सूरज अपना प्रकाश बिखेरता भंगाई पर्वत श्रृंखला के ऊपर चमक रहा था।
बारिश का जरा भी आसार नहीं दिख रहा था । सावन तो आ ही चुका है। वह चाहती थी, एक-दो दिन ही सही पानी खूब बरसे।
“बाँस कितने होंगे?”
खाना खाकर पहले से ही तैयार तम्बाकू पी रहे लुङजाहाओ से चोङनिकिम ने पूछा
“पाँच सौ तो होंगे।”
चोङनिकिम उँगलियाँ मोड़-मोड़ कर
बड़बड़ाते हुए हिसाब लगाने लगी। लुङजाहाओ मुस्कराते हुए उसे ध्यान से देखने लगा।
चोङनिकिम सिर खुजाते हुए हँस पड़ी। फिर दोनों ठहाका मारकर हँसने लगे। हँसते-हँसते
लुङजाहाओ ने पूछ- “कितना पड़ा?”
“पता नहीं, तुम करो हिसाब। ”
लुङजाहाओ जैसे बहुत जानता हो, कंकड़ उठाकर एक बड़े पत्थर पर लकीरें
खींचने लगा।
“एक बाँस का पैंतीस पैसे...... तो ....पाँच सौ
का.....।”
छोटे से चर्च के कमरे में बचपन में पास्टर का सिखाया
हुआ गुणा-भाग याद करते-करते उस बड़े पत्थर को लकीरों से भर दिया। लेकिन हताश हो
उठा। चोङनिकिम मुस्कुराते हुए उसे गौर से देखती रही। अंततः लुङजाहाओ भी हँस पड़ा।
“मोती अपने आप हिसाब लगा लेगा।”
वास्तव में हिसाब मोती ही करता था। इतने सालों से वह
हिसाब लगाकर जितना देता, उस पर उसने कभी
ना नुकुर नहीं किया। कुछ पल हँसी के लिए ही बस। थैले से तम्बाकू निकाल कर लुङजाहाओ
कागज में लपेटने लगा। आगे बोला,- “इस
बार तो मोती के साथ जीरी घाट जाऊँगा।”
“क्या करने ?”
“उसका बाँस का व्यापार थोड़ा-थोड़ा सीख लेना चाहिए।
और सिलचर से सामान भी खरीदूँगा।”
“क्या खरीदना है ?”
“तेरे लिए कुछ भी खरीदूँगा।”
“मुझे कुछ नहीं चाहिए ।”
“मैं तो इस बार जरूर जाऊँगा। कुछ न कुछ जरूर
खरीदूँगा ।”
चोङनिकिम शांत हो गई। हँसी थम गई। याद हो आया पिछले कार्तिक-अगहन
में इतने बड़े पाम1 से अट्ठारह कनस्तर से अधिक धान नहीं मिला था। इतने
से कब तक गुजारा होगा ? कोंपलों के आने
से पहले बाँस नहीं काटे तो कब काट पाएँगे। बारिश से पहले करने को कितने ही काम
बाकी थे, हिसाब लगाने लगी। उसे मोती का भी स्मरण हो आया।
एकदम दुबला-पतला मयाङ2 है मोती। कहाँ का रहने वाला है, चोङनिकिम नहीं जानती। केवल इतना जानती है कि
वह बहुत दूर देश से आया है। जीरीघाट ले जाकर पैंतीस पैसे का बाँस फिर कितने में
बेचता होगा? लुङजाहाओ बाँसों को खुद ही बेचे तो कितना मिल
सकता है? कितनी बार वह यह बात सोच चुकी है। यह ऐसा सपना है,
जिसे वह न जाने कब से देख रही है। फिर सोचती मोती का जीवन क्या हमसे
अलग होगा? इस पर वह कल्पना की उड़ान नहीं भर पाती। मोती से
पहले आए रामप्रसाद ने क्या सुख भोगा था ? गमछे का टुकड़ा
पहने बाँसों का गट्ठर बनाते-बनाते बराक के नाले में ही मर गया। भर पेट कभी खाने को
मिला ही नहीं। चोङनिकिम ये सब नहीं सोचना चाहती। इस जीवन से बेहतर जीवन की कल्पना
वह नहीं कर पाती। अपनी आँखों के सामने से एक पल के लिए लुङजाहाओ को दूर नहीं करना
चाहती, बस इतनी सी चाह है उसकी।
“क्या सोच रही हो, क्या
खरीदकर लाऊँ ?”
“कुछ नहीं। तुम गए तो अपने दोनों बच्चों और इपा के लिए खरीद लाना।”
“तेरे लिए भी खरीदूँगा।”
लुङजाहाओ हँसते हुए बोला।
“हाँ भई, थोड़ा हँस ही लें,
सब सुन लो।”
चोङनिकिम ने हँसते हुए जवाब दिया। फिर दोनों एक साथ
हँस पड़े। देर तक हँसते रहने के बाद चोङनिकिम को घर पर रह गए दोनों बच्चों की याद
आ गई। लकड़ी के गट्ठरों को सम3 में भरकर चल पड़ी। एक बड़े पत्थर पर
बैठकर तम्बाकू का स्वाद ले रहे लुङजाहाओ की ओर पलटकर वह मुस्कराई। तेज धूप के ताप
से लाल पड़ गए उसके चेहरे को लुङजाहाओ ध्यान से निहारते हुए मुस्कराता रहा। उसे
जाते हुए पीछे से भी देखता रहा। बराक के मुड़ जाने के साथ ही चोङनिकिम भी ओझल हो
गई तो वह भी दाव हाथ में लेकर पहाड़ चढ़ने लगा।
“ईश्वर की संतान ईशू हमें पाप से बचाएँगे। अपने पाप की क्षमा याचना के लिए
ईशू से प्रार्थना करें।”
पास्टर की बुलंद आवाज चोङनिकिम के कानों में पड़ी।
अचानक ही जैसे वह नींद से जगी हो। अपने पाप ईशू को सुनाने के लोगों की आवाज़ उसे
नहीं आई। उसे तो सूली पर चढ़े हुए, सिर पर काँटों का मुकुट धारण किए खून से
लथपथ ईशू नज़र आया। स्त्री या बच्चों का भी ध्यान न करते हुए जो भी सामने पड़े,
उन्हें मार डालना, घर-बार को आग लगाकर नष्ट कर
देना, खाने के लाले पड़ना, आश्रयहीन
होकर भाग खड़े होना, अशुभ देखना-सुनना सब सपना है। उपजाऊपन
से रहित पहाड़ के मुहाने पर केवल सब्जी बोकर जीविका चला रहे निरपराध लोगों का जीवन
नष्ट हो रहा है। डर के मारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ईश्वर से केवल इतनी विनती है
कि खुली आँखों के इस दुःस्वप्न से बचाए।
चर्च से फिर प्रार्थना गीत गूँजने लगा। पहाड़
के चेहरे पर अब भी चाँदनी बिखरी हुई थी। शीतल मंद बयार बहने लगी। पर इससे चोङनिकिम
के ताप दग्घ हृदय को ठण्डक नहीं मिल रही थी। समाधि पर गड़ी सूली पर उसका ध्यान फिर
चला गया। आड़े खड़ी लकड़ी पर उसे ईशू नज़र आए। पूरे शरीर से खून बह रहा है। काँटों
का ताज़ पहना है। उनींदी आँखों से उसे देख रहा है। चोङनिकिम भी उसे देख रही है। यह
ईशु नहीं। लुङजाहाओ है। कील गड़ा हाथ लकड़ी से छूटकर बड़ी सी मछली उठाए उसे दिखाने
लगा।
“चोङनिकिम, मछली बहुत बड़ी है
न !”
“हाँ, बहुत बड़ी है। ”
“मकुई और बराक के संगम से पकड़ी है। छोटोबेक्रा में
बेचूँगा।”
“बेचेंगे नहीं। इपा को खिलाएँगे।”
उठकर मछली लेने को हुई। उससे उठा नहीं गया। देखा तो
लुङजाहाओ था ही नहीं। चाँदनी में सूली चुपचाप खड़ी थी। चर्च के प्रार्थना-गीत ऊँचे
स्वर में कानों में पड़ने लगे।
“बारिश तो हो ही नहीं रही। ”
फटे जाल के टूटे तागों के एक छोर को दूसरे से
बाँधते-बाँधते लुङजाहाओ ने मसाले बो रही चोङनिकिम से कहा। दोनों छोटे बच्चों को
कपड़े का एक टुकड़ा तक पहनाए बिना खुले आँगन में छोड़ रखा है। वे मिट्टी खोद-खोदकर
खेल रहे हैं।
“सही में, नदी कितनी संकरी हो
गई है !”
नदी के बीच वाले हिस्से में जो
थोड़ा-बहुत पानी बह रहा है, उसे और उसके साथ बराक के दोनों
ओर फैले कंकड़-पत्थरों को याद कर चोङनिकिम बडबडाई।
“अब एक भी बाँस नहीं काटूँगा। मोती के आने पर थोड़ा
और काट लिया जाएगा। बारिश की आशा में बाँस के लिए दो कनस्तर धान भी दे चुका हूँ।
पता नहीं खाने को पूरे पड़ेंगे या नहीं।”
लुङजाहाओ अकेला ही बड़बड़ा रहा था। चोङनिकिम चुप रही।
फावड़ा चलाते हुए मसाले बोने में लगी रही। लुङजाहाओ तीन-चार मछली पकड़ने का काँटा
हाथ में लिए कंधे पर जाल लटकाए निकला। निकलते हुए अपने बच्चे को, जो एक साल का भी नहीं हुआ था,
उठाकर चूमा।
“मकुई के किनारे मछली पकड़ने जा रहा हूँ, खेलते रहना।”
अपने बड़े बेटे के गाल को भी खींचता गया। चोङनिकिम
काम से अपना हाथ रोककर हँसते हुए जोर से बोली-
“मछली के नीचे दब कर मर न जाना !”
लुङजाहाओ भी हँसते हुए न जाने क्या-क्या बड़बड़ाते
हुए गाँव के रास्ते पर निकल गया। बराक के घाट की ओर।
“बच्चे सोए नहीं अभी?”
चोङनिकिम फिर होश में आई। ससुर थे। चाँदनी में गाँव
के स्त्री-पुरुष चर्च से निकलते दिखाई दिए।
“सो गए।”
“तुम भी सो जाओ। कल सुबह जल्दी उठकर लैजाङफाइ के
लिए निकलना है।”
चोङनिकिम आश्चर्यचकित रह गई। लैजाङफाइ गाँव का नाम
भले ही उसने सुन रखा था, पर कभी गई नहीं
थी। उसे केवल इतना पता था कि बहुत दूर बसा एक बड़ा सा गाँव है। पैदल चलो तो तीन
दिन से कम नहीं लगते, बस इतना ही जानती है।
“लैजाङफाइ क्यों ?”
बूढ़े हो चले उसके ससुर ने तुरंत कोई जवाब नहीं दिया।
लगा उसने एक लम्बी निःस्वास छोड़ी। थोड़ी देर बाद धीमे से बोला-
“चर्च में गाँव वालों ने कुछ समय के लिए लैजाङफाइ में
बसने का निर्णय लिया है। मुखिया आज ही लैजाङफाइ से लौटा है। कल ही गाँव बदलना
होगा।”
चोङनिकिम को सपना सा लगा। लोगों को गाँव बदलने के
बारे में गुपचुप बातें करते उसने सुना था, पर कभी ध्यान नहीं दिया था। इतनी जल्दी
निर्णय ले लिया जाएगा, इसका विश्वास नहीं था। अचानक बोल
पड़ी-
“चाहे सब चले जाएँ, हम नहीं
जाएँगे।”
“मन न होने से नहीं चलेगा। हम लोग ही कैसे रह सकते
हैं ?”
चोङनिकिम चुप रही। जवाब के बदले आँखों में आँसू उमड़
पड़े। रोने का मन हो आया। आँचल में मुँह ढाँप कर जार-जार रो पड़ी।
“रोज ही लोग मारे जा रहे हैं। गाँव के गाँव इस आग
की लपेट में आ रहे हैं। आज-कल में ही इस गाँव पर धावा नहीं बोल देंगे, ऐसा भी नहीं कह सकते। हमारा यह छोटा सा गाँव क्या कर लेगा।”
वह चुप हो गई। छोटे से टीले पर बसा लगभग बीस घरों का
गाँव उसकी आँखों के सामने तैर गया। कष्टों में जी रही स्त्रियाँ और बच्चे एक-एक कर
दिखने लगे। छोटे-छोटे घर भी। आँसुओं की धारा तेज हो उठी।
“देखो, बामूघाट, तिङखल और सोङपेन गाँव तो पहले ही विस्थापित हो चुके हैं।” अंधेरे घर में घुसते हुए बोले-
“लुङजाहाओ के साथ जो हुआ, वैसा
दोनों पोतों और तुम्हारे साथ न हो। मैं तो बूढ़ा हो गया हूँ। बेकार हो गया हूँ। मर
भी जाऊँ तो कुछ नहीं।”
चोङनिकिम अंतिम वाक्य सुनते ही सिहर गई। बूढ़े हो
चुके इन्होंने भी इस गाँव में भले ही जीवन के कष्टों को ही झेला हो, पर अपने गाँव को, इन पहाड़ियों को और बराक नदी को छोड़कर जाने का मन इनका भी नहीं है,
यह चोङनिकिम भी जानती है। सच ही है, विरलता से
बसे इस गाँव में आज-कल में ही क्या घट जाए, कुछ कहा नहीं जा
सकता। सारी दुर्घटनाएँ स्वप्न ही हैं। चोङनिकिम को लुङजाहाओ की याद सताने लगी।
चोङनिकिम रात भर सो न सकी। लुङजाहाओ बराक और मकुई नदी के संगम पर मछली पकड़ने गया था। इतनी देर हो जाने पर भी अभी तक नहीं लौटा। सोचा, शाम घिर आने पर इरंग नदी के डेल्टा की धारा की ओर चला गया होगा। कल-परसों बड़ी मछली पकड़ने की खबर सुनी थी। पर देर रात तक नहीं लौटा, तो उसे चिंता होने लगी। सोचने लगी शायद बाबूघाट पर अपने दोस्तों के साथ ठहर गया हो। केवल सोच रही थी, पर यकीन नहीं था। एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब लुङजाहाओ घर न लौटा हो। चाहे कितनी देर हो जाए वह लौटेगा जरूर, यही सोचती रही। उसका ससुर भी नहीं सो पा रहा है, यह चोङनिकिम जानती है। गाँव में कहीं भी कोई कुत्ता भौंकता, तो सुनते ही बाहर निकल जाता। लुङजाहाओ को न पाकर बाँस की खपच्चियों के मचान पर उसके चढ़ने की आवाज़ वह सुनती। चोङनिकिम अपने बच्चों को कसकर बाहों में कसे एक पल के लिए भी बिना पलक झपकाए, कानों को खड़ा किए पड़ी रही। काफी देर तक नहीं लौटा तो तरह-तरह की शंकाएँ मन में उठने लगीं। सोचने लगी, कहीं मोती के पास जीरीघाट तो नहीं चला गया। पर मन इसे मानने को तैयार नहीं हुआ। बादल बरस गया तो लुङजाहाओ के नहीं जाने पर भी मोती जरूर आएगा। बाँस का मोल दे जाएगा। फिर यहाँ से ऊँचे ज्वार के साथ बहते बराक के तेज बहाव में हाथ में एक लम्बा सा बाँस लेकर खेता हुआ चला जाएगा। उसने मन ही मन तय किया, लुङजाहाओ मोती के पास नहीं जाएगा। वह आगे कुछ सोच ही नहीं पा रही थी। देर से लौटेगा, इसके सिवा कुछ नहीं, बस।
सुबह होने तक भी वह नहीं लौटा, तो चोङनिकिम के होश उड़ने लगे। कभी बरामदे में, कभी बीच रास्ते में और कभी आँगन में खड़ी की खड़ी रह जाती। गाँव के लड़के जब खोजने निकले, तब भी इसका पता तक उसे नहीं चला। उसने किसी से बात तक नहीं की थी।
दोपहर होते-होते पर्वत श्रृंखला पर सूरज अपना पूरा ताप उडेलने लगा। चोङनिकिम ने सुबह से न कुछ खाया न पिया। कभी किसी कोने पर बैठ जाती, तो कभी किसी कोने पर खड़ी हो जाती। अंततः गाँव के लड़के बराक के घाट की ओर से चढ़ते दिखाई दिए। बाँस की डंडाडोली सी बनाकर कुछ उठाए चले आ रहे थे। वे उन्हीं के घर की ओर आ रहे थे। आँगन के एक छोर पर उस डंडाडोली को उतार दिया गया। अचानक ही चोङनिकिम की कंपकपी छूट गई। वह भय से त्रस्त हो उठी।
“इपु, मकुई पर एक पेड़ को सूली बनाकर टाँग
दिया था।”
एक लड़के ने ढके हुए कपड़े को उठा कर दिखाते हुए उसके
ससुर से कहा। चोङनिकिम को खून से लथपथ लुङजाहाओ का शरीर दिखाई दिया। डंडाडोली के
पास रखे जाल में एक बड़ी सी मछली फँसी हुई थी। उसने दाग भरी खून से लथपथ निर्जीव
देह को पास जाकर ध्यान से देखा। अगले ही पल जोर से चीख उठी और पछाड़ खाकर धरती पर
गिर पड़ी।
बरामदे पर अब चाँदनी नहीं पड़ रही थी। छज्जे का साया आँगन के छोर पर
पहुँच गया था। समाधि पर गाड़ी लकड़ी साफ-साफ दिखने लगी थी। लगा, लुङजाहाओ ईशू की तरह सूली पर चढ़े हुए कह रहा
है-
“देख चोङनि मछली बड़ी है न !”
“मुझे मछली नहीं चाहिए।”
वह अचानक ही बोल गई। फिर अपने दोनों बच्चों को बाहों
में कसकर रोने लगी।
अगले दिन चोङनिकिम ने सम में सामान रखा और अपने छोटे बच्चे को उसमें बैठा
दिया। बड़े बच्चे को ससुर ने गोद में उठाया और पंक्तिबद्ध बढ़ते गाँव वालों के
पीछे-पीछे चला गया। चोङनिकिम जल्दी नहीं उठी। समाधि के निकट जाकर थोड़ी देर खड़ी
हो गई। धीमे से बोली-
“मैं फिर तुम्हारे पास आऊँगी। इसी गाँव
में रहूँगी।”
आँखों से आँसुओं की लड़ियाँ अबाध बहने लगीं। बराक के
किनारे रह गया बाँसों का गट्ठर आँखों के सामने तैर गया। बादल तो बरसा ही नहीं। मन
को शीतल करने वाला। पहाड़ियों को शस्यश्यामल करने वाला। पर पानी बरस भी गया तो अब
क्या फायदा!
“चलो, देर
हो जाएगी।”
उसका ससुर था। लौटकर उससे कह रह था। सीधी चढ़ाई वाली
पहाडी पगडण्डी पर एक के पीछे एक पंक्तिबद्ध गाँव वाले लैजाङफाई की ओर बढ़ते दिखाई
दिए। चोङनिकिम भी उस अनजान जगह के लिए बोझिल कदमों के साथ धीरे-धीरे बढ़ने लगी।
***
1. पाम- पहाड़ के मुहाने पर पेड़-पौधे और
झाड़-झंखाड़ों को जलाकर प्राप्त जमीन पर की जाने वाली खेती।
2. मयाङ- मणिपुर के मूल निवासियों के अलावा बाहर से
आने वाले लोग।
3.सम-बाँस तथा बेंत से बनी गहरी टोकरी,जिसका उपयोग पहाड़ों पर सामान ढोने के लिए किया जाता है।
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